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COVID-19: भारत के पास अब भी दक्षिण कोरिया से सीखने का भरपूर मौका

सच्चाई किसी से छिपी नहीं है कि कोरोना से लडने के लिए भारत बड़े पैमाने पर आयातित संसाधनों पर ही निर्भर है.

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आपको ऐसी खबरें तो मिल रही हैं कि भारत में कोरोना कैसे दिनों-दिन और भयावह होता जा रहा है? सरकारें इसकी रोकथाम के लिए कैसे युद्धस्तर पर कदम उठा रही हैं? कैसे लॉकडाउन की मियाद को बढाने तथा इसे और सख्त बनाने की कोशिशें हो रही हैं? लेकिन क्या आपको ऐसी भी खबरें मिली हैं कि भारत सरकार ने युद्धस्तर पर सुरक्षा उपकरण (PPE), सेनेटाइजर, मास्क, टेस्टिंग किट्स, वेंटिलेसर्स और अस्थायी अस्पतालों के लिए जरूरी सामानों के लिए देश में ही भारी पैमाने पर उत्पादन की मुहिम छेड़ दी है?

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हो सकता है, सरकार ने इस दिशा में कुछ सक्रियता दिखाई भी हो, लेकिन सच्चाई तो ये है कि दुनिया में आर्थिक महाशक्ति का दंभ भरने वाली हमारी सरकार ने उपरोक्त क्षेत्र में कोई क्रान्तिकारी पहल नहीं की है. तभी तो हम आये दिन सिर्फ इतना सुनते हैं कि ‘फलां-फलां सामान की फलां-फलां मात्रा के आयात का आर्डर दे दिया गया है और फलां-फलां तारीख से इसकी डिलीवरी हमें मिलने लगेगी.’ या फिर ये बयान कि ‘सरकार ऐसे सभी उपाय कर रही है जिससे किसी भी जरूरी चीज की मांग को पूरा किया जा सके’.

सच्चाई किसी से छिपी नहीं है कि कोरोना से लडने के लिए भारत बड़े पैमाने पर आयातित संसाधनों पर ही निर्भर है. मतलब साफ है कि हमारे रणनीतिकारों ने अपनी ओर से तो कोई दूरदर्शिता नहीं ही दिखायी, बल्कि दक्षिण कोरिया और जर्मनी जैसे देशों की शानदार मिसाल से भी कोई सबक नहीं लिया. हम अब भी ये नहीं देख पा रहे हैं कि कोराना से लड़ाई लम्बी खिंचने वाली है.

लिहाजा, हमारी तैयारी लम्बी रेस के लिए होनी चाहिए. हम क्यों इस मोर्चे पर ढिलाई दिखा रहे हैं? हमारे पास ठोस इरादा क्यों नहीं है? यदि है, तो देश को बताया क्यों नहीं जा रहा? वो भी तब जबकि उपरोक्त कोई भी सामान किसी भी ऐसी हाईटेक टेक्नोलॉजी से जुडा हुआ नहीं है, जो हमारे पास नहीं हो. इन सामानों के उत्पादन को हम क्रायोजेनिक इंजन या सुपर कम्प्यूटर की तरह नहीं देख सकते. तो फिर हम खुद अपनी पूरी ताकत क्यों नहीं झोंक रहे?

यदि हम अब भी चेत जाएं तो जिन सामानों की आज हमें किल्लत झेलनी पड़ रही है, आयात करना पड रहा है, उसके हम कल को अहम निर्यातक बन सकते हैं. यकीनन, उपरोक्त सामानों का भारी मात्रा में उत्पादन करना दलहन, तिलहन और प्याज की पैदावार से तो आसान नहीं है.

चाणक्य ने राजाओं की बुद्धिमत्ता को तीन श्रेणी में बांटा था. पहला, बुद्धिमान- जो दूसरों से अनुभवों से सीखें. दूसरा, मन्दबुद्धि और जिद्दी- जो खुद की गलतियों से ही सीखने में यकीन रखता हो. तीसरा, मूर्ख- जो अपनी गलतियों से कोई नसीहत नहीं ले और बार-बार पिछली गलतियों को ही दोहराता रहे. इसी तरह, दुनिया की हरेक सेना और उसके हरेक सैनिक का पहला सबक यही सिखाया जाता है कि ‘जो शान्ति काल में ज्यादा पसीना बहाते हैं, उनका ही युद्धकाल में कम खून बहता है’. यानी, शान्ति काल में सैनिक जितना अभ्यास करेंगे, जितनी वर्जिश करेंगे, जितना खुद को चुस्त-दुरुस्त और तन्दरुस्त रखेंगे, मैदान-ए-जंग में वो उतनी ही आसानी से दुश्मन के दांत खट्टे कर पाएंगे.

अब जरा इन नीति वाक्यों की कसौटी पर दुनिया भर के नेताओं को कसकर देखिए. आप पाएंगे कि जनवरी में चीन के वुहान शहर से उठे कोरोना के बवंडर को देखते हुए भले ही विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) उतनी तेजी से सतर्क नहीं हुआ जितना उससे अपेक्षित था, लेकिन जैसे ही WHO ने कोरोना को epidemic (महामारी) के बाद pandemic (वैश्विक महामारी) का दर्जा दिया वैसे ही दक्षिण कोरिया का बुद्धिमान नेतृत्व चौकन्ना हो गया. उसके रणनीतिकारों की आंखों के सामने सार्स, स्वाइन फ्लू, इबोला, स्पैनिश फ्लू, चेचक, हैजा, प्लेग जैसी वैश्विक महामारियों का इतिहास और अनुभव बहुत तेजी से घूम गया.

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फिर क्या था! दक्षिण कोरिया ने बगैर वक्त गंवाये अपने उद्योगपतियों के साथ मशविरा करके बडे पैमाने पर उन चीजों का उत्पादन शुरू कर दिया जिसकी जरूरत कोरोना के दस्तक देने के बाद पडने वाली थी. उन्हें वो किस्सा भी याद था कि ‘जब रोम जल रहा था तो नीरो बांसुरी बजा रहा था’.

दुनिया के तमाम विकसित और शक्तिशाली देशों की तरह दक्षिण कोरिया हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठा रहा. बल्कि उसने प्रभावितों से आ रही खबरों को देखते हुए अपने पांच करोड नागरिकों की जांच का बीडा उठा लिया. तरह-तरह के नये प्रयोग किये, नये उपकरण और नयी प्रक्रिया को अपनाया, चुनौतियों के हिसाब से उसमें सुधार लाता रहा और आखिरकार, अपनी पूरी आबादी को सुरक्षित बनाकर दिखा दिया.

ऐसा नहीं है कि दक्षिण कोरिया की युद्धस्तरीय चपलता को देखकर कोरोना ने वहां कदम नहीं रख सका, वहां इससे लोग मरे नहीं. ये भी हुआ. लेकिन कोरिया ने कोरोना को पहले से दूसरे स्टेज के बीच ही पूरी तरह से रोककर दिखा दिया. उसने जितने भी आपातकालीन उपाय किये उस पर भारी रकम खर्च हुई, लेकिन इस खर्च की भरपाई में एक पल भी नहीं लगा, क्योंकि उसे लॉकडाउन की नौबत नहीं देखनी पडी. उसकी अर्थव्यवस्था का पहिया कभी जाम नहीं हुआ. वहां कोरोना की गहन जांच के बीच जनजीवन सामान्य गति से चलता रहा. ऐहतियात के तौर पर स्कूल वगैरह कुछ दिनों के लिए बन्द किये गये, लेकिन जल्द ही बच्चों की ऑनलाइन पढाई का ढांचा खडा कर लिया गया.

कोरोना से दक्षिण कोरिया की विमान सेवाएं और विदेश व्यापार जरूर प्रभावित हुआ, लेकिन दुनिया के अन्य विकसित देशों के हालात के आगे तो इस क्षेत्र का नुकसान कुछ भी नहीं है. दक्षिण कोरिया सरकार ने सूझ-बूझ दिखायी तो उसे जनता से भी भरपूर सहयोग मिला. लोगों ने सोशल डिस्टेंसिंग का भरपूर ख्याल रखा. बाजार में सामान की कोई किल्लत नहीं हुई. किसी ने बदहवासी वाली खरीदारी नहीं की. कोई जमाखोरी नहीं, कोई कालाबाजारी नहीं. वहां सभी लोग सुरक्षा के लिए मास्क लगा रहे हैं और जरूरत पडते ही टेस्टिंग के हाजिर हो रहे हैं. वहां टेस्टिंग हमेशा मुफ्त रही. उन्होंने बडे पैमाने पर टेस्टिंग करके कोरोना को फैलने से रोका है. आइसोलेशन या क्वारनटीन में सिर्फ उन्हें ही रखा, जिन्हें रखना जरूरी था.

दक्षिण कोरिया के नक्शे कदम पर चलने का, उससे सीखने का, उसकी मिसाल को गुरु-मंत्र मानने का काम सबसे व्यापक पैमाने पर जर्मनी ने किया. चाणक्य की कसौटी पर देखें तो जर्मन नेतृत्व को हम मन्दबुद्धि मान सकते हैं, लेकिन बाकी सारी दुनिया पर तो वाकई मूर्खों का ही राज है. तभी तो आज दुनिया के 7.8 अरब लोगों में से 40 फीसदी लोग अपने घरों में कैद हैं. जबकि 76 दिन या 11 हफ्ते का लॉकडाउन झेलकर वुहान में जिन्दगी फिर से पटरी पर लौट चुकी है.

ध्यान रहे कि चीन के पास कोरोना से मुकाबले का कोई अनुभव नहीं था. उसने भी हजारों लोगों की जान गंवाकर सीखा था कि ‘कोरोना का संक्रमण इंसान से इंसान में फैलता है और कई बार संक्रमित व्यक्ति में इसके लक्षण नहीं उभरते, जबकि वो अनजाने में ही औरों के लिए कोरोना का कैरियर बन जाता है’. दक्षिण कोरिया की खुशनसीबी थी कि उसने चीन के ऐसे अनुभवों को देखते हुए अपनी रणनीति बनायी और उसे अमल में लाया. जबकि बाकी दुनिया के देशों का नेतृत्व अपने सियासी अहंकारों में ही मदमस्त रहा. बहरहाल, सबके अनुभवों को देखते हुए हम इतना तो कह ही सकते हैं कि भारत के लिए ‘जब जागे तब सवेरा’ का मौका अभी हाथ से नहीं निकला है.

(ये आर्टिकल सीनियर जर्नलिस्ट मुकेश कुमार सिंह ने लिखा है. आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)

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