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दिल्ली बाढ़ और अर्बन प्लानिंग: गवर्नेंस से शुरुआत करें, बाकी सब अपने आप हो जाएगा

Delhi Floods And Urban Planning: हर साल मौसम की बदमिजाजी बढ़ रही है, पर हमारी व्यवस्था उसके लिए कतई तैयार नहीं

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मैं यह मानते हुए अपनी बात शुरू करता हूं कि जलवायु परिवर्तन एक सच्चाई है. मौसम की बदमिजाजी पहले से ज्यादा महसूस हो रही है, और भारत के बड़े शहर विकास के जबरदस्त दबाव में हैं.

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इस समय पूरे उत्तर पश्चिमी भारत में बाढ़ आई हुई है, खासकर राष्ट्रीय राजधानी में. और हर साल ऐसी घटनाएं बढ़ रही हैं. बाढ़, भूकंप, वायु प्रदूषण, यातायात की भीड़ वगैरह बहुत आम बातें हो रही हैं. हम देख रहे हैं, हमारे सिस्टम पूरी तरह से धराशाई हो रहे हैं.

असल में, इन "आम" होते हालात में हम क्या करते हैं, इसी बात से तय होता है कि हम मौसम की इस इंतेहा के लिए किस हद तक तैयार हैं. मैं हाइड्रोलॉजिकल और इंफ्रास्ट्रक्चर से जुड़े मुद्दों पर बात नहीं कर रहा, जिनके कारण हाल ही में दिल्ली-एनसीआर की बाढ़ ने और मुसीबतें पैदा कीं. इसकी बजाय, मैं शहरों में बाढ़ की समस्या के मूल कारणों पर बात कर रहा हूं. यह समस्या दरअसल मुख्य रूप से गवर्नेंस से जुड़ी हुई है.

माफ करें, कोई नई नीति और समिति मत बनाएं!

नीतियां मौजूद हैं और कागज पर जिम्मेदार विभाग और समितियां भी पहले से ही मौजूद हैं. जैसे, शहरी बाढ़ प्रबंधन के लिए राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन दिशा-निर्देश 2010, एनसीआर के लिए 2016 में प्रकाशित जल निकासी पर कार्यात्मक योजना, दिल्ली के लिए संशोधित ड्रेनेज मास्टर प्लान- 2018 में आई एंड एफसी विभाग के लिए आईआईटी दिल्ली का एक अध्ययन (इससे पहले 1976 में दिल्ली के लिए पहला ड्रेनेज मास्टर प्लान तैयार किया गया था) पहले से ही सार्वजनिक डोमेन में मौजूद है.

ऐसे में कमी किस बात की है? इन नीतियों के आधार पर विशिष्ट परियोजनाओं की पहचान करने वाली कार्य योजनाओं और इन समितियों के ऑन-फील्ड कार्यों की निरीक्षण रिपोर्टों की.
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इसलिए पहले बुनियादी बातों को लागू किया जाए- हरियाली की हिफाजत की जाए. नए अनाधिकृत कांक्रीटीकरण पर रोक लगाई जाए, स्टॉर्मवॉटर यानी बरसाती पानी की नालियों को सीवर नेटवर्क से अलग किया जाए, कचरे को अलग-अलग करने और उसके उपचार की व्यवस्था पक्की की जाए- क्योंकि यही सब इस बड़ी समस्याओं की वजहें हैं.

अहम सरकारी पदों को खाली न रखा जाए!

जैसा कि सभी जानते हैं, दिल्ली-एनसीआर क्षेत्र भौगोलिक रूप से कई राज्यों में फैला हुआ है. इसी से इस मामले में न केवल अंतरराज्यीय, बल्कि अंतर-विभागीय समन्वय भी जरूरी है. हालांकि इतने हिस्सेदारों के बीच समन्वय और उनके आपस में एकमत होने के लिए जिस ताकत और अधिकार की जरूरत होगी, उसे जुटाना भी अपने आप में काफी बड़ी चुनौती है.

इस समय शहरी बाढ़ की समस्या से जुड़े विभागों और एजेंसियों के पास इतनी मैनपावर नहीं कि वे आसानी से इस दिक्कत से निपट सकें. इसलिए पहला ठोस कदम तो यह उठाया जाना चाहिए कि सरकारी मशीनरी में उपलब्ध स्वीकृत पदों को भरा जाए, चाहे वह किसी भी विभाग या प्रभाग में हो.

हर कुछ सालों में, यह चर्चा होती है कि टॉप लीडरशिप या अदालत रिक्त पदों पर तेजी से भर्तियां करने का काम कर रही है. लेकिन इन आदेशों को अंतिम रूप मिला या नहीं, इसकी कोई खबर नहीं आती. या कई बार भर्तियां या पदोन्नतियों के नियम मुकदमेबाजियों में फंस जाते हैं. सही कहें तो प्रशासन को ऐसे लोगों की जरूरत है जो असरदार ढंग से काम करें!

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सरकारी कर्मचारियों को एक कठोर चयन प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है और वे प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं को पास करते हैं. हालांकि भर्ती के बाद उनके कौशल और ज्ञान को बढ़ाने की शायद ही कोई कोशिश की जाती है. चूंकि अतिरिक्त भर्ती में समय लग सकता है तो सरकार को अपने मौजूदा कर्मचारियों, खासकर जूनियर स्तर के कर्मचारियों के क्षमता निर्माण पर ध्यान देना चाहिए.

इसकी एक अद्भुत मिसाल 2023 के बसंत में देखी गई. सेंट्रल दिल्ली में मालियों ने सड़कों और चौराहों को खूबसूरत फूलों की क्यारियों से सजा दिया. ये सब उन्होंने सिंगापुर, चीन और बेल्जियम की यात्राओं से सीखा. इसी तरह दिल्ली सरकार ने टीचर्स को लीडर्स के तौर पर ग्रूम करने के लिए लीडरशिप ट्रेनिंग के लिए भेजा, ताकि उनका क्षमता निर्माण हो. यह सही दिशा में उठाया गया कदम है.

सरकारी स्तर पर प्रक्रियाओं की जटिलता से बचा जाए

काम करने और सरकारी व्यवस्था की प्रक्रियाओं में काफी बड़े बदलाव की जरूरत है. जल निकासी योजना या शहरी बाढ़ शमन योजना या क्लाइमेंट रेजिलियंस प्लान, जिन्हें सरकार कार्रवाई के लिए लागू या हासिल करेगी, उनके लिए कई नियम और प्रक्रियाएं मौजूद हैं, जैसे जनरल फाइनेंशियल नियम, 2017 और सरकारी ई-मार्केटप्लेस (GEM) पोर्टल. जीईएम पोर्टल सरकारी स्वामित्व वाला खरीद पोर्टल है जोकि यह सुनिश्चित करता है कि टैक्सपेयर के पैसे का सही उपयोग हो.

लेकिन नतीजा यह होता है कि ये प्रक्रियाएं बहुत लंबी हो जाती हैं, और उन्हें कई स्तरों की हेरारकी और प्रशासनिक मंजूरियों से गुजरना पड़ता है. इरादा सही भी हो तो भी, उसे अमल में लाना मुश्किल होता है और वह प्रशासनिक प्रक्रियाओं के जंजाल और ऑडिट से जुड़े ऐतराज के डर में फंस जाता है.

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अक्सर इन प्रक्रियाओं के जरिए खरीदे गए सामान और सेवाएं बाजार मूल्य से ज्यादा होती हैं (अमेजॉन या फ्लिपकार्ट जैसे ऑनलाइन वेंडिंग प्लेटफार्मों के जरिए खरीदे गए वैसे ही उत्पादों की कीमतों की तुलना में), उनकी गुणवत्ता उतनी अच्छी नहीं होती है, और आफ्टर सेल सर्विस भी सही तरीके से नहीं की जाती. इसलिए प्रक्रियागत मानदंडों को आसान बनाने और स्थानीय परिस्थितियों के आधार पर स्थानीय स्तर पर वस्तुओं और सेवाओं की खरीद की सख्त जरूरत है.

बुनियादी ढांचे से जुड़े समाधान

मौसम की बदमिजाजी के बाद अक्सर ब्ल्यू-ग्रीन इंफ्रास्ट्रक्चर सॉल्यूशंस की सलाह दी जाती है. नीला, यानी पानी, नदी और टैंक, और हरा, यानी पेड़, पार्क, बगीचा. आसान शब्दों में कहें तो शहर में प्राकृतिक और अर्ध प्राकृतिक क्षेत्रों का एक योजनाबद्ध नेटवर्क जिससे पानी को सोखने के लिए बड़े हरे और खुले स्थान हों.

जब एक्टिविस्ट, एकेडमिक्स और प्रशासक शहरी क्षेत्रों में ब्ल्यू-ग्रीन इंफ्रास्ट्रक्चर सॉल्यूशंस की उम्मीद करते हैं, तो यह भी देखा जाना चाहिए कि इन सॉल्यूशंस को लागू करने के लिए कार्यान्वयन अधिकारियों का मोटिवेशन क्या है.

शहरी बाढ़ की चुनौती से निपटने के लिए जिम्मेदार आई एंड एफसी, पीडब्ल्यूडी, जल बोर्ड जैसे विभागों में ज्यादातर अधिकारी इंजीनियर हैं, खासकर सिविल इंजीनियरिंग पृष्ठभूमि वाले. जब साल के आखिर में प्रदर्शन का मूल्यांकन इस आधार पर होता हो कि कितनी लंबी सड़कें और नालियां बनाई गई हैं (साफ तौर से कंक्रीट जैसी कठोर सामग्री का उपयोग करके) और कितने किलोमीटर गाद निकाली गई है तो अधिकारियों से ब्लू-ग्रीन इन्फ्रा सॉल्यूशंस को लागू करने की उम्मीद कैसे की जा सकती है? शहर में क्लाइमेंट रेजिलियंट ऐक्शंस के नतीजों को शहरों में विभागों के वार्षिक आउटकम बजट में शामिल किया जाना चाहिए.

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ऐसा लगता है कि हमने पिछली घटनाओं से कुछ भी नहीं सीखा है, यहां तक कि कोविड-19 महामारी जैसी अप्रत्याशित घटना के बाद भी अधिकारियों ने बैठकर सोचने और व्यवस्था में बदलाव करने की जरूरत महसूस नहीं की. हम सब सस्टेनेबिलिटी चाहते हैं, लेकिन उसे हासिल करने की हमें कोई जल्दी नहीं है. हर बार की तरह, हालात सामान्य हो गए हैं, और सत्ता की संरचना अपने रुतबे पर कायम है. लेकिन शहरी बाढ़ और जलवायु परिवर्तन से उबरने के वाकयों से पहले संरचनात्मक और प्रशासनिक स्तर पर निपटने की जरूरत होगी.

(आदित्य अजित एक अर्बन रिसर्चर और कॉरर्बन फाउंडेशन के को-फाउंडर हैं. यह दिल्ली-एनसीआर का एक सोशल इंपैक्ट ऑर्गनाइजेशन है, जोकि ग्रामीण और शहरी निम्न आय वाले समुदायों के साथ काम करता है. यह एक ओपिनियन पीस है. इसमें व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी न तो उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.)

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