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ट्रंप की भारत यात्रा: दोनों तरफ आखिर चल क्या रहा? जानिए पूरी कहानी

ट्रंप की तमाशा की चाहत मेजबान मोदी से बहुत मेल खाती है

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डोनाल्ड ट्रंप के खिलाफ महाभियोग की कोशिशें नाकाम होने के बाद वो 24-25 फरवरी को भारत आ रहे हैं. अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के साल में यहां आ रहे हैं, उन्हें किसी बात की परेशानी नहीं है क्योंकि ना तो उन्हें अपनी पार्टी में कोई चुनौती दे रहा है और ना ही, मौजूदा हालात को देखें तो, डेमोक्रेट्स से उन्हें कोई बड़ी टक्कर मिल रही है.

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ट्रंप की मानें तो इस दौरे से वो अपने ‘दोस्त’ मोदी का अहसान चुका रहे हैं. 

हो सकता है ह्यूस्टन का ‘हाउडी मोदी’ इवेंट, जिसमें 50,000 भारतीय अमेरिकी की भीड़ जुटी, भारत में होने वाले चुनाव को ध्यान में रख कर आयोजित किया गया हो, लेकिन इससे ना सिर्फ अमेरिकी राष्ट्रपति ने खूब वाहवाही लूटी, बल्कि भारतीय अमेरिकी समुदाय से वोट और चुनावी चंदे हासिल करने में भी उन्हें खूब मदद मिली. भारत की इच्छा थी कि ट्रंप जनवरी में गणतंत्र दिवस के मौके पर चीफ गेस्ट बनकर आएं, लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति ने मना कर दिया क्योंकि व्हाइट हाउस के मुताबिक ‘व्यस्तता की मजबूरी’ थी.

ट्रंप की तमाशा की चाहत मेजबान मोदी से बहुत मेल खाती है, इसलिए वो अहमदाबाद में ‘केम छो ट्रंप’ की ऐसी जबरदस्त तैयारी कर रहे हैं कि ये मेगा शो ‘हाउडी मोदी’ इवेंट – जिसके साक्षी ट्रंप रह चुके हैं - से कहीं ज्यादा चकाचौंध वाला साबित होगा.

2017-18 के बाद – जब दोनों के बीच रिश्ते थोड़े ठंडे पड़ गए थे – मोदी और ट्रंप का मिलना जुलना काफी बढ़ गया है, सिर्फ 2019 में दोनों 4 बार मिले, जिसमें ‘हाउडी मोदी’ की मीटिंग भी शामिल थी.

स्नैपशॉट

- ह्यूस्टन के ‘हाउडी मोदी’ इवेंट के बाद ट्रंप के लिए ये दौरा उनके ‘दोस्त’ मोदी का एहसान उतारने जैसा है.

- अमेरिका और भारत इस दौरे के साथ अपने व्यापारिक संबंधों को ठीक और दुरुस्त करना चाहते हैं.

- भारत चाहता है कि GSP स्कीम के तहत अमेरिका से मिलने वाले फायदे जिसे ट्रंप प्रशासन ने वापस ले लिया है फिर से बहाल कर दिए जाएं.

- एक क्षेत्र जिसका इस्तेमाल कर भारत ट्रंप का दिल जीत लेना चाहता है वो है अमेरिका से रक्षा सौदा.

- चीन को टक्कर देने के लिए भारत और अमेरिका दोनों को एक दूसरे की जरूरत है.

भारत-अमेरिकी संबंधों की मजबूती

पिछले चार सालों में दोनों देशों के बीच संबंधों ने, खासकर रक्षा के क्षेत्र में, कई छलांग लगाई हैं. 2016 में भारत ने अमेरिका के साथ आखिरकार लॉजिस्टिक्स एक्सचेंज एग्रीमेंट (LEMOA) पर हस्ताक्षर किया, जिसके तहत दोनों पक्षों ने एक दूसरे के नौसेना पोतों और जवानों को साजो-सामान और ईंधन की सुविधा मुहैया कराने का वादा किया.

दो साल बाद, दोनों देशों ने संचार सुरक्षा संधि (COMCASA) पर हस्ताक्षर किए. जिसके बदले अमेरिका ने 2016 में भारत को प्रमुख रक्षा साथी का ओहदा और स्ट्रैटजिक ट्रेड ऑथराइजेशन-1 (STA-1) का दर्जा दिया ताकि 2018 में अमेरिका से संवेदनशील सामानों के निर्यात बेहद आसान हो जाएं.

दिसंबर 2019 में, दोनों देशों ने उद्योग सुरक्षा समझौते पर हस्ताक्षर किए जिससे कि भारत और अमेरिका के बीच उद्योग के क्षेत्र में सहयोग बढ़े और एडवांस टेकनॉलोजी का आदान-प्रदान हो.

संक्षेप में कहें तो इससे रक्षा क्षेत्र में अमेरिका के सप्लाई चेन में भारत एक अहम किरदार बन गया. दोनों देशों के बीच लगातार हाई-लेवल बैठकों और सालाना रक्षा और विदेश मंत्रियों के बीच ‘2+2’ बातचीत से संस्थागत रिश्ते भी मजबूत हुए.
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ट्रंप और भारत के बीच सब ठीक-ठाक नहीं है

अतीत इतना आसान भी नहीं था. अमेरिका ने भारत पर दबाव बनाया कि ईरान से तेल की खरीदारी बंद कर दी जाए और रूस से रक्षा संबंधी खरीदारी खत्म करने के लिए CAASTA के तहत पाबंदी लगाने की धमकी दी गई. कश्मीर के मसले पर ट्रंप का बार-बार मध्यस्थता की बात करना भारत को परेशान करता रहा है, खास तौर पर तब जब अमेरिकी कांग्रेस कश्मीर में लगाई गई पाबंदी और वहां के नेताओं की गिरफ्तारी पर जरूरत से ज्यादा ध्यान केन्द्रित कर रही है.

12 फरवरी को अमेरिकी सीनेट की दो पार्टियों के एक दल ने – जिसमें कि ट्रंप के करीबी लिंडसे ग्राहम भी शामिल थे – विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो को चिट्ठी लिखकर कश्मीर में इंटरनेट पर लगी पाबंदी – जो कि लोकतंत्र में लगाई गई सबसे लंबी पाबंदी है - पर चिंता जताते हुए कहा कि इससे 70 लाख कश्मीरी जनता के स्वास्थ्य, कारोबार और शिक्षा पर बुरा असर पड़ा है. चिट्ठी में नागरिकता संशोधन कानून और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) का जिक्र करते हुआ लिखा गया कि मोदी सरकार की नीतियों से अल्पसंख्यकों के अधिकार और देश के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप पर खतरा मंडरा रहा है.

पेचीदा कारोबार समझौता: आगे क्या होगा?

सबसे अहम बात ये है कि ट्रंप जब भारत के बारे में सोचते और बोलते हैं वो कारोबार की बात करने से बचते हैं. हैरानी की बात नहीं है कि अमेरिका के नजरिए से इस दौरे की तैयारी में सबसे ज्यादा ऊर्जा जिस बात पर खर्च हुई है वो है व्यापार संधि. वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल और अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधि रॉबर्ट लाइथिजर के बीच फोन पर पिछले हफ्तों में कई दौर की बातचीत हो चुकी है.

दोनों पक्षों की मौजूदा स्थिति में बड़ी खाई होने की वजह से कई जानकारों को लगता है कि इस दौरे में कारोबार संधि बहुत सीमित रहेगी, लेकिन इस रिपोर्ट के बाद कि अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधि रॉबर्ट लाइथिजर अपना भारत दौरा रद्द करने जा रहे हैं नई दिल्ली में निराशा छा गई है.

नतीजा ये हुआ कि सरकार ने समझौते को पक्का करने के लिए जल्दबाजी में ये जाहिर कर दिया कि भारत मूर्गी पालन और दूध के बाजार को आंशिक तौर पर खोलने के लिए तैयार है. 

राष्ट्रपति ट्रंप खुद बेफिक्री से कह रहे हैं कि ‘अगर हम अच्छी डील कर पाए, तो जरूर करेंगे’.

2017 में, अमेरिका के साथ भारत का अतिरिक्त कारोबार (Trade surplus) 30 बिलियन डॉलर था. जो कि अब 16 बिलियन रह गया है. दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय कारोबार 140 बिलियन डॉलर से ऊपर पहुंच चुका है. ये सरप्लस ट्रंप को नागवार गुजरते हैं, जो कि कई बार ‘टैरिफ किंग’ कह कर भारत की आलोचना कर चुके हैं और जेनरल स्कीम ऑफ प्रेफरेंसेज (GSP) के तहत भारत को मिलने वाली तमाम सुविधाएं भी खत्म कर चुके हैं.

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भारत ट्रंप से क्या चाहता है

हाल ही में USTR ऑफिस ने भारत को विकसित देश मानते हुए GSP के लिए अयोग्य घोषित कर दिया. इसलिए भारत अमेरिका को खुश करने के लिए विशेष कोशिशें कर रहा है. लेकिन कई सारी समस्याएं अब भी मौजूद हैं जैसे कि मेडिकल उपकरणों पर भारत का सेस लगाना या डाटा के स्थानीयकरण के नियम बनाना.

भारत चाहता है कि GSP योजना के तहत उसे मिलने वाली सुविधाएं फिर से बहाल हों, इसके अलावा स्टील और अलम्यूनियम के सामान पर अमेरिका ने जो बड़े कर लगाए हैं उससे मुक्ति मिले, और कृषि और उत्पादन के क्षेत्र में (ऑटो और ऑटो पूर्जा समेत) अमेरिकी बाजार में और जगह मिले.

एक मात्र रास्ता जिसके जरिए भारत ट्रंप का दिल जीतने की उम्मीद लगा रहा है वो है अमेरिका से रक्षा सौदा. इस रास्ते एक तीर से तीन शिकार हो सकते हैं. एक तरफ, हिंदुस्तान अमेरिका से खरीदारी कर अपनी रक्षा प्रणाली को आधुनिक बना सकता है, दूसरी तरफ इस भारत इस सौदे को दोनों देशों के बीच व्यापारिक असंतुलन को कम करने की कोशिश और अमेरिका से सामरिक नजदीकियों के सबूत के तहत पेश कर सकता है.

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भारत और अमेरिका को करीब लाने वाले रक्षा और सामरिक समझौते

भारत ने अमेरिका के साथ 3.5 बिलियन डॉलर की दो बड़ी डील की है. इनमें सेना के लिए 6 अपाचे हेलीकॉप्टर (930 मिलियन डॉलर) और नौ सेना के लिए 24 एमएच-60आर मल्टी मिशन हेलीकॉप्टर (2.6 बिलियन डॉलर) शामिल है. 2007 से लेकर अब तक अमेरिका के साथ भारत ने 20 बिलियन डॉलर के समझौते किए हैं. इससे पहले भारतीय वायुसेना ने 22 अपाचे हेलीकॉप्टर खरीदे थे.

इसके अलावा भारत कई और समझौते करने की कोशिश में है – जैसे कि समुद्री पहरेदारी के लिए लंबी रेंज वाले छह P-8I एयरक्राफ्ट (1.8 बिलियन डॉलर), दिल्ली को शॉर्ट रेंज मिसाइल से बचाने के लिए इंटीग्रेटेड एयर डिफेंस वेपन्स सिस्टम (1.86 बिलियन डॉलर), 30 समुद्री ड्रोन (2.5 बिलियन डॉलर से ज्यादा) और नौ सेना के लिए 13 एमके-45 गन सिस्टम (1.02 बिलियन) - लेकिन मौजूदा वक्त में भारत के पास इन हथियारों को खरीदने का फंड मौजूद नहीं है.

इसके अलावा अमेरिका भारत पर 114-फाइटर एयरक्राफ्ट की विशाल डील का दबाव बना रहा है. जिसके तहत अमेरिका भारतीय वायुसेना को अपग्रेडेड FA-18, F-15S और F-16S मुहैया कराने की बात कर रहा है. 

भारत का रक्षा बजट 47.34 बिलियन डॉलर है (रक्षा पेंशन को छोड़कर) और इसमें से करीब 16.2 बिलियन डॉलर नए वेपन्स सिस्टम और उपकरण पर खर्च किए जाएंगे. हालांकि इसका 90 फीसदी हिस्सा पहले की गई खरीदारी में भुगतान किया जा चुका है.

कारोबार से जुड़े तनाव और ‘केम छो’ की चकाचौंध से ऊपर इस दौरे का एक सामरिक पहलू भी है. चीन के आकार, उसकी अर्थव्यवस्था और जगह को देखते हुए अमेरिका भारत को एक संतुलित करने वाली ताकत के तौर पर देखता है. इसके बावजूद कि भारत ऐसी किसी भी सूरत से बचना चाहता है जहां उसे चीन का सीधा सामना करना पड़े.

अर्थव्यवस्था और सैन्य ताकत के मामले में भारत चीन से पीछे है, इसलिए चीन को टक्कर देने के लिए भारत को अमेरिका की जरूरत है. अमेरिका इससे अनभिज्ञ नहीं है, लेकिन उसके पास विकल्पों की कमी है और वो इस बात से संतुष्ट है कि संबंधों में उम्मीद से कम रफ्तार में ही सही लेकिन मजबूती तो आ रही है.

(लेखक Observer Research Foundation, New Delhi में एक Distinguished Fellow हैं. आर्टिकल में दिए गए विचार उनके निजी विचार हैं और इनसे द क्विंट की सहमति जरूरी नहीं है.)

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