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जब मंदी की चपेट में है इकनॉमी तो शेयर बाजार कैसे बना रहा रिकॉर्ड

बाजार की चुस्ती, अर्थव्यवस्था की सुस्ती और भ्रामक कॉरपोरेट नीतियों को समझा रहे हैं राघव बहल  

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कोयले का उत्पादन 20 फीसदी कम हो गया; रिफाइनरी उत्पाद, कच्चा तेल और प्राकृतिक गैस का उत्पादन 5-6 फीसदी कम हुआ; बिजली उत्पादन में भी करीब 4 फीसदी की कमी आई; कुल मिलाकर सितंबर 2018 के मुकाबले सितंबर 2019 में 8 प्रमुख क्षेत्रों के उत्पादन में 5.2 फीसदी की गिरावट आई. इतनी गिरावट पिछले 8 सालों में कभी नहीं देखी गई थी.

उद्योग जगत ने पिछले साल के मुकाबले एक लाख करोड़ और सर्विस सेक्टर ने 50 हजार करोड़ कम कर्ज लिया.

फिर भी शेयर बाजार ऊंचाई का रिकॉर्ड बनाते हैं!

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ये सारी विसंगतियां एक ही रोज देखने को मिलीं. 31 अक्टूबर, 2019, यानी गुरुवार के दिन. आप पूछेंगे, भला ये कैसे हो सकता है?

लेकिन ये हो गया. कैसे हुआ, ये समझने के लिए आपको कुछेक महीने पीछे का रुख करना होगा. इस साल की पहली तिमाही में प्रधानमंत्री मोदी ने अपना चुनाव प्रचार शुरू किया. चुनाव मई 2019 में होना था. जैसा अक्सर चुनाव प्रचार में होता है, प्रधानमंत्री ने अर्थव्यवस्था पर बढ़-चढ़ कर बातें कीं. उनके पहले कार्यकाल में कुछ हिचकोलों को छोड़कर अर्थव्यवस्था ने गति पकड़ी है, ऐसा मान चुके लोगों का भरोसा और बढ़ा. लेकिन गहरे में जाकर देखते तो पता चलता कि हालात ठीक नहीं थे. एक नजर डालते हैं:

रियल इंटरेस्ट रेट
यूपीए के पूरे एक दशक के शासनकाल में रियल इंटरेस्ट रेट 5 फीसदी से कम रहा, जिसे अच्छा माना जा सकता है. लेकिन अब इसकी दर 9 से 11 फीसदी या उससे भी ज्यादा पहुंच गई थी. ये तब था जब महंगाई ठीकठाक लेवल पर थी. ये सबूत था कि सरकार ने पहले से ही घटती बचत के ब्याज दर को ऊपर रखकर और नुकसान पहुंचाया है और जिससे निजी निवेश में भी कमी आई
कंज्यूमर डिमांड में कमी
कार, FMCG और निर्यात....हर सेक्टर नीचे जाता नजर आ रहा था. 
कोर सेक्टर्स में सुस्ती
8 अहम कोर सेक्टर–बिजली, स्टील, रिफाइनरी उत्पाद, कच्चा तेल, कोयला, सीमेंट, प्राकृतिक गैस और खाद-18 महीनों के न्यूनतम स्तर पर थे. (जो अब 8 साल के न्यूनतम स्तर पर हैं)
पिछली 5 तिमाहियों में सबसे कम कॉरपोरेट मुनाफा
इसे विस्तार से बताने की जरूरत नहीं.
संघर्ष करते बैंक
3.4 लाख करोड़ का खराब लोन राइट ऑफ किए जाने के बावजूद बैंकों का ग्रॉस NPA 10.3 फीसदी हो गया था. नॉन-फूड क्रेडिट 2015 की तुलना में कम था. सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को पूंजी उपलब्ध कराने में उदासीनता दिखाई. किश्तों में मदद दी, जिससे उनकी परेशानियां कभी कम नहीं हुईं.  
उजड़ी हुईं पब्लिक सेक्टर कंपनियां
पिछले दो सालों में लिस्टेड CPSEs की बाजार कीमत 17 फीसदी गिरी थी, जबकि शेयर बाजार 17 फीसदी चढ़ा था. सरकार ने इनके कैश सरप्लस हड़प लिए थे. इन कंपनियों के सरप्लस में 2014 से करीब 40% की गिरावट दर्ज की गई, जो लगभग 1 लाख करोड़ से ज्यादा रकम होती थी. 
बदहाल खेती
कृषि क्षेत्र में विकास दर 2.7 फीसदी रह गई थी, जो पिछली 11 तिमाहियों में सबसे कम थी. इससे भी बुरा ये कि चूंकि अनाज और खाने-पीने के सामान के भाव गिरते रहे, किसानों की असल आमदनी सिर्फ 2.04 फीसदी की दर से बढ़ी, जो पिछले 14 सालों में सबसे खराब दर थी. 
और अंत में रोजगार!
बेरोजगारी दर बढ़कर 6.1 फीसदी पर पहुंच गई, जो पिछले 45 सालों में सबसे ज्यादा थी.
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लोगों ने सोचा कि प्रधानमंत्री मोदी की राजनीतिक प्रतिष्ठा गिरती अर्थव्यवस्था से प्रभावित होगी. चुनाव में बेशक किसी को उनके हारने की उम्मीद नहीं थी, लेकिन 2014 की तुलना में आंकड़ा कम होने का अंदेशा था. लेकिन पूरी दुनिया ये देखकर हैरान रह गई, जब लोकसभा चुनाव में बीजेपी 300 सीटों का आंकड़ा पार कर गई. इसके साथ बाजार की उम्मीदें भी परवान चढ़ने लगीं. उम्मीद की गई कि इस राजनीतिक ताकत के बूते सरकार कुछ बड़े आर्थिक सुधार करेगी, जिससे अर्थव्यवस्था की बेड़ियां हमेशा के लिए खुल जाएंगी.

क्या ऐसा हुआ? नहीं

दूसरे टर्म में मोदी सरकार के पहले बजट में कोई बदलाव नहीं था, लगभग स्थिति पहले जैसी रखी गई. बल्कि ये बजट एक असामान्य टैक्स-एंड-स्पेंड डॉक्यूमेंट था. कई ज्यादतियों में से एक थी विदेशी निवेशकों को लगभग 43 फीसदी के “सुपर रिच टैक्स” के दायरे में लाना. जब इस 'खामी' को उजागर किया गया, तो वित्त मंत्री ने इसे “आप इसे खुद देखें" के लिहाज में दरकिनार कर दिया. उन्होंने कहा, "हमने जो कर दिया, वो कर दिया. अगर आप भारत में कारोबार करना चाहते हैं तो इससे आपको खुद निपटना होगा.”

 बाजार की चुस्ती, अर्थव्यवस्था की सुस्ती और भ्रामक कॉरपोरेट नीतियों को समझा रहे हैं  राघव बहल  
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण
(फोटो: PTI)

नतीजा ये निकला कि भौंचक्के विदेशी निवेशकों ने अपने हाथ खींचने शुरु कर दिये. बाजार में धड़ाम से 10 फीसदी की गिरावट दर्ज हुई, जिसके और गिरने का अंदेशा था. तब जाकर सरकार को अपनी भूल का अहसास हुआ. मोदी का चमत्कार वोटरों को लुभा सकता है, विदेशी नेताओं की वाहवाही बटोर सकता है, लेकिन बाजार की अफरातफरी को नहीं रोक सकता.

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मार्केट का गुस्सा देख किए गए बड़े नीतिगत बदलाव

जो प्रधानमंत्री अपनी जिद से पीछे हटने को तैयार नहीं होते, उन्हें भी बाजार के सामने झुकना पड़ा. अपने कदम पीछे लेने पड़े. एक ही बार में कॉरपोरेट टैक्स में 10 परसेंटेज प्वाइंट की आश्चर्यजनक कटौती कर दी गई. नई मैन्युफेक्चरिंग कंपनियों के लिए टैक्स में 17 फीसदी कमी की गई. भारत जैसी किसी भी अर्थव्यवस्था के लिए शायद पूरी दुनिया में ये सबसे कम और प्रतिस्पर्धी रेट हैं.

'द इकनॉमिस्ट' ने पीएम मोदी को 'छोटे मोटे कदम उठाने वाला कहा था लेकिन आखिरकर उन्होंने उन्हें दिखा दिया कि वो बड़े फैसले भी ले सकते हैं.’ जैसा कि अनुमान था, दुनिया ने इस सब पर ध्यान दिया. सरकार ने विदेशी निवेशकों पर 'सुपर टैक्स' लगाने की अपनी गलती भी मानी. एक 'अति उत्साही' सरकार देखकर मार्केट ने भी अचानक रफ्तार पकड़ी और कुछ ही हफ्तों में रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया.

 बाजार की चुस्ती, अर्थव्यवस्था की सुस्ती और भ्रामक कॉरपोरेट नीतियों को समझा रहे हैं  राघव बहल  
पीएम नरेंद्र मोदी
(फोटो: PTI)

यू-टर्न लेने के बाद सरकार उल्टी दिशा में ही रफ्तार पकड़े जा रही है. ऐसे कदमों की बात हो रही है, जो लोगों की सोच से परे हैं, मसलन:

  • BPCL को निजी हाथों में करीब 10 बिलियन डॉलर में बेचने का कथित फैसला.
  • डिविडेंड और लॉन्ग टर्म कैपिटल गेंस टैक्स खत्म कर इक्विटी कैपिटल पर गलत टैक्स वापस लेने पर विचार.
  • सरकार ने माना है कि एयर इंडिया को बेचने के लिए पिछली बार उसने जिद्दी रवैया अपनाया था. अब वो 100 फीसदी इक्विटी बेचने को तैयार है. एयर इंडिया की बैलेंस शीट से वो कर्ज को बाहर रखने को राजी है. इतना ही नहीं सरकार कर्मचारियों की छंटनी, ब्रांड बदलने खरीदार कम्पनी से इसके विलय की अनुमति देने को भी तैयार है. किसी जमाने में ये रियायतें नामुमकिन लगती थीं.
  • जिस टेलीकॉम मंत्रालय तक पहुंचना मुश्किल था वो अब सुप्रीम कोर्ट के AGR ( एडजस्टेट ग्रॉस रेवेन्यू) पर लगने वाले टैक्स से परेशान टेलीकॉम कंपनियों को थोड़ी राहत देने के लिए तैयार है. ये पहले नामुमकिन माना जाता था.
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तो क्या सरकार ने अपनी दकियानूसी नीतियां बदल दी हैं?

और पूरी तरह प्रतिस्पर्धी, बाजार के अनुरूप नीतियां लागू कर रही है? अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि ऐसा नहीं है:

  • जरा देखिये,वही टेलीकॉम मंत्रालय BSNL और MTNL जैसी बदहाल सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों के साथ क्या कर रही है? मरती हुईं दो कम्पनियों का 70 हजार करोड़ की पूंजी के साथ विलय किया जा रहा है, जिससे आखिर में एक विशालकाय शव बनेगा.
  • सरकार समझ ही नहीं रही कि अहम फाइनेंशियल कंपिनियों के फेल होने से (पिछले साल ILFS और शायद इस साल DHFL) आम आदमी को सदमा पहुंचता है. अगर इन कम्पनियों को बचा लें और इनके घोटालेबाज मालिकों और प्रबंधकों को ही सजा दी जाए, तो आम आदमी को राहत मिल जाएगी, उन्हें भुगतना नहीं पड़ेगा.
  • सरकार सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की बुनियादी समस्या को ठीक करने के बजाय सिर्फ उन्हें बदलने, कटौती करने और घाटे के बैलेंस शीट का विलय कर “सुधार” करने का भ्रम पैदा कर रही है. ये कदम ऐसे ही हैं, जैसे एक मरीज को वेंटिलेटर से हटाकर ICU में डालना.

सरकार की इन्हीं बेसुरी/भ्रामक नीतियों (BPCL बनाम BSNL/MTNL के उदाहरण में साफ देखी जा सकती हैं) के कारण अर्थव्यवस्था में बड़े पैमाने पर विसंगतियां दिख रही हैं. यही कारण है कि बाजार में तो तेजी है, लेकिन प्रमुख सेक्टर्स में भारी मंदी.
समय आ गया है कि तमाम विसंगतियां दूर की जाएं और बड़े आर्थिक सुधारों की दिशा पकड़ी जाए.

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