हाल में प्रियंका गांधी (Priyanka Gandhi) कि कार्यक्षमता और प्रदर्शन को देखते हुए कहा जा सकता है कि वो अपनी दादी इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) के पदचिह्नों पर चल रही हैं. हाथरस में दलित बच्ची की बलात्कार और हत्या मामले में प्रियंका ने जो कुछ किया उसमें कहीं न कहीं इंदिरा गांधी वाली झलक थी.
इंदिरा गांधी बिहार के बेल्छी में हुए नरसंहार के बाद मारे गए दलितों को विषम परिस्थितियों में देखने गई थीं जो राष्ट्रीय मुद्दा बना. हाल में लखीमपुर खीरी में कुचले गए किसान और आगरा में पुलिस कस्टडी में दलित की हत्या के मुद्दे को प्रियंका गांधी ने भी कुछ इसी तरह उठाया.
हाथरस जाते हुए प्रियंका ने जब देखा कि कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को पुलिस लाठियों से पीट रही थी तो बिना समय गंवाए दौड़कर पुलिस के लाठी-डंडों के सामने खड़ी हो गईं. ये साहसिक कदम था.
एक घटना मुझे और याद आ रही है कि जब प्रियंका ने सपेरे के साथ बैठकर सांप को काफी सहजता से देखा और छुआ, जबकि आमतौर पर लोग ऐसा करने से कतराते हैं.
अंग्रेजों से लड़ी कांग्रेस, लेकिन तब जाति-धर्म नहीं
सफलता व्यक्ति के दृढ़ता, बौद्धिक क्षमता और दूरदर्शिता पर निर्भर करती ही है लेकिन कई बार परिस्थितियों की भूमिका कहीं ज्यादा होती है. प्रियंका गांधी जिन परिस्थितियों में लड़ रही हैं. वो उनके पक्ष में नहीं दिखती.
यहां पर कांग्रेस पार्टी के प्रादुर्भाव , सफलता और वर्तमान पर चर्चा किए बगैर मूल्यांकन नहीं किया जा सा सकता है. कांग्रेस पार्टी की स्थापना विदेशी ताकत- अंग्रेजों के खिलाफ थी और उस समय जाति-धर्म और क्षेत्रवाद आड़े नहीं आया. स्वतंत्रता आंदोलन में कमोवेश सबकी भागीदारी थी
इस तरह से अपनों से लड़ने की इतनी बड़ी चुनौती नहीं थी. अंग्रेज क्रूर और तानाशाह जरूर थे जो सामने दिखता था, उनके खिलाफ कांग्रेस पार्टी लड़ती गई और जीतती गई.
सबसे ज्यादा चुभने वाली वो बात है कि जो आज कुछ लोग कहते हैं कि कांग्रेस ने क्या किया? लेकिन बलिदान का इतिहास काफी पुराना है.
अंग्रेजी साम्राज्यवाद के बारे में कहा जाता था कि उनके राज में सूरज कभी अस्त नहीं होता था. जब भविष्य के नतीजे के बारे में ना पता हो तो ऐसे में अपनी जिंदगी जेल या मौत के हवाले कर देना कोई साधारण बात नहीं है. नेहरू जी लगभग नौ साल जेल में थे और गांधी जी सात साल... क्या इनको पता था कि कभी जेल से छूटेंगे? उस समय किसी को भी भविष्य का अनुमान नहीं था.
प्रियंका गांधी की बड़ी ताकतों से लड़ाई
प्रियंका गांधी ऐसी वारिस की उपज हैं. वर्तमान में जिनके खिलाफ लड़ाई है, उन्होंने झूठ, दुष्प्रचार, धनशक्ति , मीडिया नियंत्रण , धोखेबाजी और जासूसी का सहारा लिया है. अंग्रेज संसाधनों का शोषण करने आये थे वो दिख रहा था और उनको रोकने जो आता था बल प्रयोग और विभाजन कि नीति अपनाते थे. कुछ मायनों में वो लड़ाई सीधी थी. लेकिन अब तो आंतरिक कुटिल - कमीन शक्तियों से लड़ना पड़ रहा है.
देश में तमाम क्षेत्रीय दल और राजनेता हैं, लेकिन प्रमुख मुद्दे पर क्यूं नहीं कुछ करते और बोलते हैं. चीन भारतीय सीमा में घुसपैठ करके बैठा हुआ है. क्या राहुल गांधी की ही चिंता है? ऑक्सीजन, दवा और बेड न मिलने से लाखों लोग मर गए. कांग्रेस पार्टी के अलावा क्षेत्रीय पार्टियों ने इस मुद्दे को ठीक से उठाया भी नहीं. संविधान बचाने की बात, सरकारी संपत्ति की बिक्री, मानवाधिकार का हनन और सरकारी संस्थाओं का अतिक्रमण... क्या ये चिंता केवल कांग्रेस की है?
ऐसा भी नहीं है कि क्षेत्रीय दल या सिविल सोसायटी को बेचैनी नहीं है. लेकिन उनमें हिम्मत नहीं है. एक सवाल बार-बार किया जाता है कि कांग्रेस पार्टी क्या कर रही है? ये बता देना चाहिए कि आजादी से लेकर 2014 कि परिस्थिति में ही सबको राजनीति करने का अनुभव और तरीका था. लेकिन उसके बाद परिस्थितियां इतनी ज्यादा बदल गईं जिसमें विपक्ष डर और सहम गया. जिसने आवाज उठाई, उनके खिलाफ ईडी, इनकम टैक्स, सीबीआई आदि मशीनरी का बर्बरता से इस्तेमाल किया गया.
इसे और बेहतर समझने के लिए 2012-13 के अन्ना आन्दोलन पर नजर डालनी पड़ेगी. रामलीला मैदान के 9 दिन के आंदोलन को लगभग सारे चैनल ने सरकार के खिलाफ लाइव दिखाया. आज हालात ये है कि विपक्ष के नेता राहुल गांधी के प्रेस कॉन्फ्रेंस को भी लाइव नहीं दिखाया जाता.
उस समय के अखबारों को उठाकर देखा जाए तो तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन जी की खबर ना के बराबर होती थी और लगभग 2011 से कोल और 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले के मुद्दे पर उस समय कि सरकार के खिलाफ लिखने के अलावा कोई और खबर शायद ही होती थी.
बाद में दोनों आरोप निराधार साबित हुए. ये जवाब उनके लिए है जो कहते हैं कि कांग्रेस क्या कर रही है? उनको ये बात और जाननी चाहिए कि उस समय की सिविल सोसायटी अन्ना आंदोलन की ताकत थी, जो आज बिल में घुस गयी है.
झूठे सपने दिखाकर किया जा रहा ब्रेन वॉश
शासन-प्रशासन और विकास को लेकर राजनीति होती तो कांग्रेस 2019 में ही सरकार बना लेती और बीजेपी चुनाव न जीत पाती. संघ की विचारधारा की राजनितिक सत्ता सामाजिक और सांस्कृतिक के मुकाबले से तुच्छ है और यहीं पर विपक्ष कमजोर पड़ जाता है
राम मंदिर बनाना, धार्मिक आयोजन, इस्लाम से हिन्दू धर्म की रक्षा, भारत सोने की चिड़िया था और फिर बनाना है आदि के प्रचार के सामने रोजगार, विकास, शिक्षा और स्वास्थ्य आदि महत्वहीन लगते हैं.
आम जनता को स्वर्ग और नर्क का सपना दिखाकर भ्रमित व ब्रेन वाश कर दिया है. इतनी विषम परिस्थितियों से इंदिरा गांधी को भी जूझना नहीं पड़ा होगा, जितना प्रियंका को जूझना पड़ रहा है और आगे भी पड़ेगा. प्रियंका गांधी को इंदिरा से जोड़ना कुछ ज्यादा गलत नहीं है, क्योंकि मौजूदा घटनाओं से इसकी कुछ झलक दिखने लगी है.
(लेखक पूर्व सांसद , कांग्रेस प्लानिंग कमिटी के सदस्य एवं राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं. यह एक ओपिनियन पीस है.यहां लिखे विचार लेखक के अपने हैं और क्विंट का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)
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