देश की आजादी के पहले 70 साल की सबसे हैरान करने वाली बात राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की गैर-मौजूदगी रही है. 15 अगस्त 1947 की आधी रात को जवाहरलाल नेहरू ने कभी न भुलाए जाने वाले भाषण ‘नियति से मुलाकात’ में कहा था कि महात्मा ‘देश की मूल भावनाओं के प्रतीक हैं’, जिनकी बातों को ‘आने वाली पीढ़ियां’ याद रखेंगी. इसके पांच महीने बाद ही 30 जनवरी 1948 को इस भावनाओं की मशाल को राजधानी दिल्ली में एक हिंदू कट्टरपंथी ने बुझा दिया.
आज हमें यह सवाल करना चाहिए कि गांधी जिस भावना के प्रतीक थे, वह देश में कितनी बची है. गांधीजी अहिंसा और सत्य के सिद्धांतों से काफी प्रभावित थे. उन्होंने इनका इस्तेमाल देश को आजादी दिलवाने में किया. 1982 में ऑस्कर से अवॉर्ड जीतने वाली फिल्म गांधी के पोस्टर पर लिखा था, ‘गांधी की जीत ने दुनिया को हमेशा के लिए बदल दिया’, लेकिन मुझे नहीं लगता है कि ऐसा हुआ है.
अंग्रेजों से आजादी के लिए दुनिया के पहले सफल अहिंसक आंदोलन के महात्मा असामान्य नेता थे. वह दार्शनिक भी थे, जो अपने आदर्शों पर चलने की कोशिश करते थे. इन आदर्शों में आत्मसुधार से लेकर सामाजिक बदलाव जैसी बातें शामिल थीं. उनकी आत्मकथा का नाम भी ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग की कहानी’ है.
सत्य के मर्म को गांधी जैसे समझते थे, वह कोई डिक्शनरी नहीं समझा सकती. उनका सच उनके आत्मविश्वास से निकला था. यह सच न्यायसंगत था. आप झूठे या गलत तरीकों से सत्य तक नहीं पहुंच सकते. आप अपने विरोधी के खिलाफ हिंसा करके इसके मर्म को नहीं समझ सकते.
अपने दर्शन को गांधी ने सत्याग्रह का नाम दिया. इसका शाब्दिक अर्थ है, ‘सच पर टिके रहना’ या जैसा कि उन्होंने समझाया था कि यह सचाई की ताकत, प्रेम की ताकत या आत्मबल है. वह इसके लिए अंग्रेजी के शब्द पैसिव रेजिस्टेंस को पसंद नहीं करते थे.
उनका मानना था कि सत्याग्रह के लिए गतिशील होना चाहिए, न कि निष्क्रिय. गांधी का मानना था कि अगर आप सच पर यकीन करते हैं और उसे हासिल करना चाहते हैं, तो आप जड़ नहीं रह सकते. आपको सच्चाई की खातिर तकलीफ सहने के लिए तैयार रहना होगा.
इसलिए असहयोग से लेकर गुटनिरपेक्षता जैसे कॉन्सेप्ट की तरह अहिंसा को एक नकारात्मक लेबल दे दिया गया. हालांकि इनमें सिर्फ विरोधी का प्रतिरोध शामिल नहीं है. इसमें सच की खातिर आप खुद को पीड़ा का अहसास करते हैं. इसमें आप अपने विश्वास के लिए स्वेच्छा से तकलीफ बर्दाश्त करते हैं.
आजादी के आंदोलन में गांधीजी इस सोच को लेकर आए और यह सफल रहा. उन्होंने जनता को आजादी का मतलब सही और गलत के संदर्भ में समझाया, जिसका अंग्रेजों के पास कोई जवाब नहीं था.
अहिंसा के जरिये गांधीजी को नैतिक बढ़त मिली. अहिंसक तरीके से कानून तोड़कर उन्होंने दिखाया कि वे कानून गलत थे. उनके जरिये अन्याय हो रहा था. अंग्रेजों की दी गई सजा को स्वीकार करके उन्होंने विरोधियों को उनकी बर्बरता का अहसास कराया. भूख हड़ताल से उन्होंने साबित किया कि सच की खातिर वह किस हद तक पीड़ा बर्दाश्त करने को तैयार हैं. आखिर में उन्होंने अंग्रेजों का देश में टिके रहना मुश्किल कर दिया.
‘नफरत से नफरत पैदा होती है, हिंसा से हिंसा’
अमेरिका में सिविल राइट्स लीडर मार्टिन लूथर किंग जूनियर गांधीजी पर एक लेक्चर में शामिल हुए. उन्होंने महात्मा पर लिखी गई आधा दर्जन किताबें खरीदीं और सत्याग्रह को अपनाया. भारत से बाहर उन्होंने अहिंसा का सबसे कारगर इस्तेमाल किया.
किंग ने कहा था, ‘नफरत से नफरत पैदा होती है. हिंसा से हिंसा.’ उन्होंने कहा था कि हमें नफरत की ताकत का मुकाबला आत्मबल से करना चाहिए. किंग ने यह भी कहा था, ‘अहिंसक प्रतिरोध का गांधीवादी तरीका हमारे आंदोलन की मशाल बना.’
2011 में अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत यात्रा पर आए थे. उन्होंने यहां संसद में कहा कि अगर गांधी नहीं होते, तो वह राष्ट्रपति नहीं बन पाते. गांधी ने अमेरिका को हमेशा के लिए बदल दिया.
हालांकि दुनिया में कहीं भी आज गांधीवाद की सफलता की मिसाल नहीं दिखती. आजादी के साथ भारत में औपनिवेशिक युग का सूरज अस्त हुआ, लेकिन इसके बाद कई देशों को खूनी और हिंसक संघर्ष से आजादी हासिल करनी पड़ी. लोग हमलावर सेना के जूते तले रौंदे गए. उनसे उनकी जमीन छीन ली गई या वे अपना घर छोड़ने को मजबूर हुए. अहिंसा उनके लिए हथियार नहीं बन पाई.
इसका असर सिर्फ वहीं हो सकता है, जहां विरोधी को नैतिक अधिकार गंवाने का भय हो. मिसाल के लिए, ऐसे विरोधी जो स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय बिरादरी की राय की परवाह करते हों. अहिंसा के जरिये उन्हें शर्मसार करके हार मानने को मजबूर किया जा सकता है. गांधी के ही युग में हिटलर के जर्मनी में अहिंसा यहूदियों के किसी काम नहीं आती.
खुद को तकलीफ देते हैं, तो उनके लिए यह आसान जीत होगी. नेल्सन मंडेला ने मुझे बताया था कि गांधी उनके लिए हमेशा प्रेरणास्रोत रहे हैं. उन्होंने यह भी कहा था कि दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के खिलाफ लड़ाई में अहिंसा असरदार साबित नहीं हुई. दुखद सच यह है कि संगठित हिंसा के अहिंसा के मुकाबले टिके रहने की आशंका हमेशा अधिक रहती है. गांधीजी के जाने के बाद युद्ध और विद्रोह में करीब 2 करोड़ लोगों की जान जा चुकी है.
हमारे देश सहित दुनिया में कई सरकारें शिक्षा और स्वास्थ्य से कहीं अधिक पैसा सैन्य तैयारियों पर खर्च कर रही हैं. जिस एटम बम ने हिरोशिमा को तबाह किया था, आज उससे 10 लाख गुना अधिक ताकत के एटमी हथियार का भंडार कई देशों के पास है.
मुंबई में 26/11 के हमले ने दिखाया कि भारत के सामने सीमापार आतंकवाद की कितनी बड़ी चुनौती है. ऐसे मामलों के विरोध में महात्मा के पास सिर्फ भूख हड़ताल का हथियार था, जिसका आतंकवादियों पर कोई असर नहीं होता.
इसके बावजूद गांधी की महानता कम नहीं होती. जब दुनिया फासीवाद, हिंसा और युद्ध से बिखर रही थी, तब महात्मा ने सचाई की ताकत, अहिंसा और शांति का संदेश दिया. उन्होंने जो साहस दिखाया, कुछ ही लोग उसकी बराबरी कर पाएंगे. वह ऐसे विलक्षण नेता थे, जो अपने अनुयायियों की कमजोरियों से मजबूर नहीं हुए.
इसके बावजूद गांधी का सच उनका अपना था. उन्होंने एक अपनी चीज बनाई और उसका खास ऐतिहासिक संदर्भ में इस्तेमाल किया. गांधी की महानता की बराबरी दुनिया में कम ही लोग कर सकते हैं. उनकी जिंदगी आज कई लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत है, लेकिन गांधी की जीत से ‘दुनिया हमेशा के लिए नहीं बदली’.
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