ADVERTISEMENTREMOVE AD

मोदी 1971 की इंदिरा की कहानी दोहराएंगे या 2004 के वाजपेयी की?

मोदी की किस्मत क्या रुख लेगी? जवाब के लिए 1971 और 2004 के आम चुनावों के “कैसे, क्या, क्यों” को जानने की जरूरत है

Published
story-hero-img
छोटा
मध्यम
बड़ा

उनके लिए, जिन्हें ये बात अभी तक नहीं पता, मैं बताना चाहूंगा कि सियासत के गलियारों में ये बहस गर्म है कि क्या 2019 के चुनाव में 1971 का मॉडल दिखेगा, जब इंदिरा गांधी ने हड़बड़ी में बने विपक्षी गठबंधन को जमीन सुंघा दी थी; या फिर 2004 का, जब “अजेय” वाजपेयी कई पार्टियों के एक बेमेल और कमजोर दिख रहे समूह के आगे बिखर गए थे.

2019 में मोदी की ही तरह, वो दोनों चुनाव असमान, लेकिन एकजुट विपक्षियों ने धुरंधर सत्ताधीशों के खिलाफ लड़े थे. अंकगणित के हिसाब से, ज्यादातर लोकसभा क्षेत्रों में मुकाबला सीधा था. लेकिन दोनों के नतीजों में जमीन-आसमान का अंतर था.

1971 में ‘शेरनी’ अजेय रही; 2004 में ‘विराट पुरुष’ को पराजय मिली.

मोदी की किस्मत क्या रुख लेगी? इस सवाल का जवाब देने से पहले आपको 1971 और 2004 के ऐतिहासिक आम चुनावों के “कैसे, क्या, क्यों” को जानने की जरूरत होगी.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

1971ः जब इंदिरा गांधी “गूंगी गुड़िया” से अदम्य नेता बनी

जनवरी 1966 में, उन दर्दनाक पांच सालों के बाद इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं, जिनमें भारत ने दो युद्ध लड़े (1962 में चीन और 1965 में पाकिस्तान के साथ). दो असाधारण प्रधानमंत्री खोए (1964 में जवाहरलाल नेहरू और 1966 में लाल बहादुर शास्त्री) और प्रतिकूल अमेरिकी शासन के खिलाफ दो साल का भयंकर सूखा झेला. एक मायने में, इंदिरा कांग्रेसी दिग्गजों के ताकतवर सिंडीकेट के सामने “गूंगी गुड़िया” थीं, जो सोचते थे कि वो उन्हें अपने हिसाब से काबू में रख लेंगे लेकिन इंदिरा एक चालाक और जोखिम लेने वाली नेता साबित हुईं.

मई 1967 में, उन्होंने अड़ियल कांग्रेस कार्यसमिति को पूरे तौर पर समाजवादी एजेंडा अपनाने के लिए मना लिया: निजी बैंकों और सामान्य बीमा कंपनियों का राष्ट्रीयकरण, विदेशी व्यापार पर सरकारी नियंत्रण, शहरी जायदाद और आमदनी की सीमा तय करना, अनाज का सार्वजनिक वितरण, बिजनेस एकाधिकार पर अंकुश, और राजसी विशेषाधिकारों का खात्मा.

कट्टर प्रतिद्वंद्वी मोरारजी देसाई की अगुवाई में कंजर्वेटिव नेता इससे नाराज थे. इंदिरा के बढ़ते हुए राजनीतिक दबदबे पर लगाम लगाने के मकसद से उन्होंने भारत के राष्ट्रपति के चुनाव में नीलम संजीव रेड्डी को उतार दिया. इंदिरा ने इसके जवाब में स्वतंत्र उम्मीदवार और ट्रेड यूनियन लीडर वीवी गिरी के पक्ष में प्रचार किया, जो जीत गए.

आखिरकार, सिंडीकेट ने इंदिरा को पार्टी से निकाल दिया, जिसका नतीजा हुआ 1969 में कांग्रेस का विभाजन. 31 सिंडीकेट सांसदों (जिन्हें कांग्रेस (ओ) कहा गया) को छोड़कर ज्यादातर कांग्रेस सदस्यों ने इंदिरा गांधी का समर्थन किया (जो कांग्रेस (आर) कहलाई) और वो कम्युनिस्ट सांसदों के समर्थन से प्रधानमंत्री बनी रहीं.

जब उनकी घनघोर वामपंथी राजनीति ने लोगों का ध्यान खींचना शुरू कर दिया, तो इंदिरा ने एक मशहूर वाक्य में अपनी कैबिनेट से पूछा, “कब तक हम बैसाखी के सहारे चल सकते हैं?” उन्होंने चौथी लोकसभा को उसकी अवधि पूरी होने के एक साल पहले भंग कर दिया और भारत के पहले मध्यावधि आम चुनावों का शंखनाद हो गया (संसद और विधानसभा के चुनाव साथ-साथ होने इसके बाद से ही बंद हो गए).

1971 के चुनावों की पांच बातें हैं जिनकी झलक आपको 2019 के आगामी चुनावों में दिखेगी:

  • विपक्षी दलों ने “एक क्षेत्र, एक उम्मीदवार” का सिद्धांत स्थापित किया. कांग्रेस (ओ), जनसंघ, स्वतंत्र पार्टी और एसएसपी का गठबंधन नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट (एनडीएफ) के नाम से बना. चौथी लोकसभा में 150 सदस्यों के रूप में इसकी मजबूत उपस्थिति थी.
  • पूरा चुनाव इंदिरा गांधी के इर्द-गिर्द घूमता रहा, क्योंकि एनडीएफ ने उन्हें हटाने को “लोकतंत्र की रक्षा” से मिलाकर प्रचारित किया. या तो आप इंदिरा के साथ थे या उनके खिलाफ लेकिन इंदिरा ने बड़ी चालाकी से नारा गढ़ा “वो कहते हैं इंदिरा हटाओ, जबकि मैं कहती हूं गरीबी हटाओ” और चुनावों में बड़ी जीत दर्ज करने के साथ 5वीं लोकसभा में एनडीएफ को महज 49 सीटों पर समेट दिया.
  • मोदी की तरह, इंदिरा भी कभी ना थकने वाली प्रचारक थीं. माना जाता है कि उन्होंने पूरे देश में 252 नियमित और 57 नुक्कड़ सभाओं को संबोधित किया और हवाई और सड़क मार्ग से 33,000 मील की यात्रा की. अनुमानित 2 करोड़ लोगों ने उनकी रैलियों में भाग लिया.
  • इंदिरा की नई कांग्रेस (आर) ने क्षेत्रीय दिग्गजों जैसे तमिलनाडु में डीएमके और केरल में सीपीआई के साथ रणनीतिक गठबंधन किए. राष्ट्रीय दलों का क्षेत्रीय ताकतों के साथ हाथ मिलाने की चुनावी चाल यहीं से शुरू हुई.
  • और, अंत में गुजरात महत्वपूर्ण साबित हुआ. तत्कालीन कांग्रेस (ओ) ने एक ताकतवर सिंडीकेट नेता हितेंद्र देसाई की अगुवाई में गुजरात की राज्य सरकार बनाए रखने में कामयाबी हासिल की थी. इंदिरा कांग्रेस की मौजूदगी कांतिलाल घिया की अगुवाई में केवल पांच विधायकों की थी लेकिन इंदिरा ने तेजी से लोकप्रियता हासिल की और 1971 में गुजरात की 24 लोकसभा सीटों में से 11 पर कब्जा कर लिया.
ADVERTISEMENTREMOVE AD

तो क्या आपको लगता है कि 1971 में इंदिरा और 2019 में मोदी की लड़ाई में रहस्यमयी समानता है? अभी रुकिए और देखिए कि 2004 में एक और राजनीतिक दिग्गज अटल बिहारी वाजपेयी के साथ क्या हुआ था.

2004: जब वाजपेयी “चमकदार” से परास्त नेता बन गए

इंदिरा गांधी की ही तरह, प्रधानमंत्री वाजपेयी की ताजपोशी भी मुश्किलों में हुई थी. वो पहले 1996 में 13 दिनों के लिए प्रधानमंत्री बने, फिर उन्हें पद छोड़ना पड़ा क्योंकि उनकी पार्टी संभावित गठबंधन दलों के लिए अछूत थी. फिर वो 1998 में सत्ता में आए, लेकिन सदन में एक वोट से बहुमत गंवाकर 13 महीनों में सत्ता से बाहर भी हो गए. आखिरकार, उन्हें 1999 से 2004 के दौरान 5 साल तक पूर्ण बहुमत वाली स्थिर सरकार चलाने का मौका मिला.

उनके कार्यकाल की खासियत थी तब तक अपरीक्षित और साहसी मुक्त-व्यापार नीतियां, जिनमें वीएसएनएल और बाल्को जैसी सरकारी कंपनियों का निजीकरण भी शामिल था.

वाजपेयी ने राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की मेजबानी की जो 1978 में कार्टर के बाद भारत आने वाले पहले अमेरिकी राष्ट्रपति थे, “शांति बस” लेकर लाहौर गए, कारगिल में पाकिस्तान के खिलाफ लघु-युद्ध लड़ा, और पोखरण में पांच भूमिगत परमाणु विस्फोट किए.

कोई आश्चर्य नहीं कि 2004 में 14वीं लोकसभा में उनका जीतना निश्चित माना जा रहा था. लेकिन भाग्य को तो कुछ और ही मंजूर था.

2004 के चुनावों की ये पांच बातें आपको 2019 के आने वाले चुनावों में दिख सकती हैंः

  • शुरुआती ओपीनियन पोल्स ने वाजपेयी को अजेय दिखाया गया. मोदी की ही तरह, उनकी लोकप्रियता बीजेपी से भी कहीं ज्यादा थी. वाजपेयी के संसद में 350 से ज्यादा सीटें जीतने की उम्मीद थी. उनका आत्मविश्वास “इंडिया शाइनिंग” के चुनावी नारे में साफ तौर पर दिखाई देता था.
  • लेकिन तभी हवा का रुख बदलने लगा. कमजोर कांग्रेस ने कई पार्टियों के साथ राज्यस्तरीय गठबंधन किए ताकि वाजपेयी की आंधी को किसी तरह रोका जा सके. अंकगणित के हिसाब से कांग्रेस को 2004 (10.34 करोड़) में उतने ही वोट मिले जितने उसे 1999 (10.31 करोड़) में मिले थे, और बीजेपी को भी (1999 में 8.65 करोड़ के मुकाबले 2004 में 8.63 करोड़). लेकिन कांग्रेस ने 36 कम सीटों पर मुकाबला किया था (जो उसने सहयोगी दलों के लिए छोड़ दी थी). आश्चर्यजनक रूप से, कांग्रेस ने लोकसभा में 31 ज्यादा सीटें (1999 में 114 के मुकाबले) जीतकर अपनी संख्या 145 पहुंचा दी. बीजेपी के आंकड़े में 44 सीटों की कमी आ गई.
  • जब ये साफ हो गया कि जमीनी हकीकत उससे काफी अलग है जो चुनाव प्रचार की शुरुआत में सोचा गया था तो जैसा मोदी अभी कर रहे हैं, वाजपेयी ने भी “इंडिया शाइनिंग” से ज्यादा जोर “स्थिर सरकार” पर देना शुरू कर दिया था.
  • बिलकुल उसी तरह जैसे मोदी अभी सामना कर रहे हैं, वाजपेयी ने भी सहयोगी चुनने में बड़ी भूल की थी. उन्होंने तमिलनाडु में डीएमके को छोड़कर जयललिता से हाथ मिलाकर करीब-करीब खुदकुशी कर ली थी. डीएमके ने सारी 39 सीटें कांग्रेस के गठबंधन में डाल दी थीं! वाजपेयी ने नायडू की टीडीपी के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर को भी नजरअंदाज किया था, और कांग्रेस को आंध्र प्रदेश जीतने दिया था.
  • अंत में फिर गुजरात की बात. वाजपेयी ने 2002 के भयानक दंगों पर पर्दा डालने का विकल्प चुना. कांग्रेस को सांप्रदायिकता से ग्रस्त इस राज्य में 12 सीटें मिलीं, जो 1991 के बाद से सबसे ज्यादा थीं.
ADVERTISEMENTREMOVE AD
और इस तरह भारत के चुनावों की सबसे चौंकाने वाली हार सामने आई. वाजपेयीहार गए. सोनिया गांधी की कांग्रेस जीत गई.

अब करोड़ों वोटों का सवाल….

क्या 2019 का चुनाव ताकतवर सत्ताधीश मोदी के लिए 1971 जैसा होगा या 2004 जैसा?

आपके पास फैसला करने के लिए ऊपर पर्याप्त जानकारी है.

जहां तक मेरा फैसला है, मेरे लिए अहम बात ये है कि 1971 के चुनावों में इंदिरा गांधी के जीतने की उम्मीद काफी कम लोगों को थी.

मोदी के बारे में ऐसा बिलकुल नहीं कहा जा सकता.

तो फिर फैसला कर लीजिए.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

इस आर्टिकल को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कीजिए...

Will Modi Pull Off an Indira (1971) or Tank Like Vajpayee (2004)

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
×
×