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नरोत्तम मिश्रा की 'साहसिक तस्वीरें' और लवलीना के गांव में सड़क- सोचकर दें शाबाशी

लवलीना को एक अदद सड़क पाने के लिए टोक्यो जाकर जंग क्यों जीतनी पड़ती है?

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''मध्य प्रदेश के बाढ़ ग्रस्त दतिया जिले से गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा की साहसिक और हैरतअंगेज तस्वीरें.''

''ओलंपिक में मेडल जीतने वाली लवलीना बोरगोहेन के स्वागत में सरकार उनके गांव तक पक्की सड़क बना रही है.''

इन दोनों सुर्खियों को पढ़कर पहली नजर में लगेगा कि कितनी अच्छी बातें हैं. कम से कम मीडिया में तो यही माहौल है. लेकिन नरोत्तम मिश्रा को शाबाशी और हिमंता बिस्वा सरमा को वाहवाही देने से पहले जरा एक दूसरा नजरिया भी पढ़िए.

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पहले हैरतअंगेज रेस्क्यू ऑपरेशन का हैरत में डालने वाला किस्सा

तो किस्सा कुछ यूं है कि मिश्रा जी दतिया में बाढ़ में फंसे कुछ लोगों को बचाने खुद ही चल पड़े. जिस बोट से जा रहे थे उसपर पेड़ गिर गया. एक तार भी फंस गया. नतीजा ये हुआ कि नरोत्तम मिश्रा को खुद ही रेस्क्यू करने की नौबत आ गई. आनन फानन में एयरफोर्स के हेलीकॉप्टर को बुलाया गया और फिर नरोत्तम मिश्रा को रेस्क्यू किया गया. जिस तेजी से मध्य प्रदेश में बाढ़ का पानी फैल रहा है, उसी तेजी से ये खबर फैली कि नरोत्तम मिश्रा ने बड़ा साहसिक काम किया है क्योंकि उन्होंने उन लोगों को पहले एयरलिफ्ट कराया जिन्हें रेस्क्यू करने वो गए थे, उसके बाद खुद एयरलिफ्ट हुए. साधु.

अब एक सवाल

मिश्रा जी खुद क्यों गए थे? बाढ़ राज्य के सात जिलों में आई है. पानी चढ़ता जा रहा है और हजारों लोग अब भी सांस रोके मदद का इंतजार कर रहे हैं. बेहतर न होता कि दतिया के भितरवार के विधायक नहीं, मध्य प्रदेश के गृहमंत्री बनते और पूरे राज्य का मैनेजमेंट करते? जनादेश जान पर खेलने का मिला है कि लोगों की जान बचाने का? प्यादा से मंत्री भयो, टेढ़ो-टेढ़ो जाए?

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नरोत्तम मिश्रा को क्यों खुद उतरना पड़ा? इंतजाम पूरे नहीं हैं? लोग सुन नहीं रहे? रेस्क्यू में लगे लोगों की संख्या कम पड़ गई? कितनी जगह खुद जाएंगे? खुद रेस्क्यूस ऑपरेशन कर प्रदेश के गृहमंत्री ने खतरा क्यों मोल लिया? प्रदेश पर आपदा आई है. गृहमंत्री के मैनेजमेंट और मार्गदर्शन की जरूरत पूरे प्रदेश को है. अनट्रेंड हाथों से रेस्क्यू ऑपरेशन चलाने के चक्कर में एक बोट के कितने घंटे बर्बाद हुए? उतने घंटों में कितने और लोगों को रेस्क्यू किया जा सकता था? हिसाब देना भी साहसिक होगा.

सबको पता है कि ऐसे वक्त में कोई नेता ग्राउंड पर उतरता है तो सरकारी अमला और सुरक्षा या इंतजाम या राहत बचाव में लगे ढेर सारे लोग नेता जी में 'इंगेज' हो जाते हैं. आपदा में स्टंट क्यों? आपदा में अवसर यहां भी? ये सवाल इसलिए भी क्योंकि एक ही शब्द वाली हेडलाइन लगभग हर जगह छपी-''गृहमंत्री की साहसिक और हैरतअंगेज तस्वीर''-महज संयोग है या सेटिंग?

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लवलीना को पदक के बाद सड़क

''ओलंपिक में मेडल जीतने वाली लवलीना बोरगोहेन के स्वागत में सरकार उनके गांव तक पक्की सड़क बना रही है.'' लवलीना बोरगोहेन के गांव बारो मुखिया में जेसीबी मशीन लगी है, रोड रोलर का चक्का हलकान हो रहा है. आप कहेंगे अच्छी बात तो है कि असम की सरकार चाहती है कि लवलीना जब मेडल लेकर गांव लौटें तो उन्हें पक्की सड़क मिले. एक सरकार अपनी स्टार खिलाड़ी का आभार जताने के लिए आनन फानन में सड़क बनवा रही तो क्या गलत है?

अब एक सवाल

क्या ऊपर की हेडलाइन में ये बात भी नहीं छिपी है कि लवलीना के गांव में आजतक पक्की सड़क तक नहीं? क्विंट की टीम जब लवलीना के गांव पहुंची तो किसी चैंपियन का गांव नहीं, अभाव ग्रस्त गांव दिखा.

लवलीना के पड़ोसियों ने बताया कि गांव में खेल की कोई सुविधा नहीं. सड़क पर कीचड़ रहता है. मोबाइल नेटवर्क नहीं मिलता. इंटरनेट कमजोर है-ऑनलाइन पढ़ाई मुश्किल है. एक अच्छा जिम तक नहीं है. गांव की ही महिला बेदांगा सैकिया कहती हैं कि बहुत पिछड़ा गांव है. यहां कोई विधायक या मंत्री कभी नहीं आता. लवलीना को एक अदद सड़क पाने के लिए टोक्यो तक का सफर करना पड़ा.
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जब हम गर्व से ये कहानियां सुनाते हैं कि सेमिफाइनल तक पहुंची महिला हॉकी टीम की वंदना पेड़ की टहनियों से प्रैक्टिस करती थीं या जैवलीन थ्रो के फाइनल में पहुंचे नीरज चोपड़ा के गांव खंडरा, हरियाणा में पर्याप्त सुविधाएं नहीं हैं फिर भी ये खिलाड़ी ओलंपिक में कामयाब हुए तो दरअसल इसमें एक के बाद एक सरकारों की धोखेबाजियों, नाकामियों की भी कहानियां छिपी होती हैं.

नीरज के गांव में सुविधाएं होतीं तो शायद वहां से और नीरज आते. लवलीना के गांव में सड़क होती तो शायद टोक्यो पहुंचना आसान होता. सवाल ये है कि लवलीना के गांव में आनन फानन में सड़क बनाना मेडल लाने के लिए उनके प्रति आभार है, भूल सुधार है या सिर्फ प्रचार है. हिमंता के इस पोस्टर में लवलीना को खोजिए, शायद जवाब भी मिल ढूंढ लेंगे.

गौर कीजिए तो पाएंगे कि ये एक पैटर्न है. ऐसा लगता है नेता हरदम हेडलाइन की तलाश में रहते हैं. काम करो नहीं. कचरा हो जाए तो हेडलाइन फेंक दो. कुछ हेडलाइन याद कीजिए

  • ''भारत विदेश से मंगवाएगा ऑक्सीजन''- शाबाशी देने से पहले पूछिए, कमी क्यों हुई? मरते लोगों को ऑक्सीजन की जगह ये हेडलाइन मिली और बाद में अपमान....ऑक्सीजन की कमी से कोई मौत ही नहीं हुई.

  • ''21 जून को भारत ने कोरोना वैक्सीन देने में बनाया रिकॉर्ड''- पूछिए तो जरा उसके पहले, बाद और अब कितने लोगों को वैक्सीन मिल रही है?

  • ''विदेशी वैक्सीन कंपनियों को फास्ट ट्रैक मंजूरी देंगे''-पूछिए कितनी कंपनियां आईं, पहले क्यों लौटीं?

तीसरी लहर आ रही है. युद्ध स्तर पर होता क्या दिख रहा है? भगवान न करे स्थिति बिगड़ी तो दतिया वाला रेस्क्यू ऑपरेशन चलाने को मजबूर होना पड़ेगा?

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