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वित्त मंत्री जी, PSU पर नियंत्रण छोड़िए मालिकाना हक नहीं

आजादी के 70 साल बाद आखिरकार हमारी ब्यूरोक्रेसी को समझ आया कि मालिकाना हक और नियंत्रण को मिलाना ठीक नहीं है

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5 जुलाई 2019 के लंबे बजट भाषण के 97वें पैरा में जब मैंने वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण को यह कहते सुना तो कुर्सी पर तनकर बैठ गया. क्या! मोदी 2.O देश के अक्षम पब्लिक सेक्टर अंडरटेकिंग्स (पीएसयू) के निजीकरण के लिए मान गई है और उसने अब तक के सबसे बड़े स्ट्रक्चरल रिफॉर्म का ऐलान कर दिया है?

टेलीविजन सिग्नल में गड़बड़ी की वजह से मैं जो शब्द नहीं सुन पाया था, जब मैंने उन्हें पढ़ा तो मेरा उत्साह ठंडा पड़ गया: ‘लेकिन इन कंपनियों पर सरकार अपना कंट्रोल बनाए रखेगी.’ सरकार के सचिव का यह बयान सुनने के बाद तो इस मामले में बचा-खुचा जोश भी हवा हो गया.

मेरा सिर भन्ना रहा था और मैं फिर से कुर्सी पर धंस गया था.

मारुति: सरकारी कंट्रोल हटते ही कंपनी चल पड़ी

आजादी के 70 साल बाद आखिरकार हमारी ब्यूरोक्रेसी को समझ आया कि मालिकाना हक और नियंत्रण को मिलाना ठीक नहीं है. मैडम, सच कहूं तो मुझे इस बात की खुशी है. अगर यह आजादी पहली पीढ़ी के उद्यमियों को दी जाए तो उनमें कुछ करने दिखाने का जज्बा काफी बढ़ जाएगा, लेकिन मैडम अभी तो आपने डंडे का गलत सिरा पकड़ रखा है. आप चाहें तो सरकारी कंपनियों का मालिकाना हक अपने पास रखिए, लेकिन प्लीज, प्लीज कंट्रोल छोड़ दीजिए.

अगर आपको मेरी बात पर भरोसा नहीं है तो मारुति उद्योग लिमिटेड का इतिहास देखिए, जो शायद देश का सबसे सफल विनिवेश है.

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इसलिए मैडम, प्लीज आप मारुति के तजुर्बे से सीखिए (पहले की सरकारें भी अक्लमंद थीं, सारी समझदारी सिर्फ मोदी 2.0 के पास ही नहीं है). आप अपनी कंपनियों का नियंत्रण छोड़िए और मालिक बने रहिए.

लेकिन आपने तो ठीक इसका उलटा प्रस्ताव रखा है

सरकारी कंपनियों का नियंत्रण छोड़ना राजनीतिक तौर पर संवेदनशील मामला है, मैं इसके लिए यहां एक रास्ता सूझा रहा हूं.

सरकारी कंपनियों के निजीकरण में राजनीति आड़े नहीं आएगी, लेकिन उसके लिए ‘कुछ गलतियों से बचना’ होगा

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इसकी शुरुआत इससे करनी होगी कि क्या नहीं करना है यानी प्लान मस्ट नॉटः

  • ऐसा नहीं लगना चाहिए कि आप इन बेशकीमती कंपनियों को विदेशी निवेशकों या देश के उद्योगपतियों (क्रोनी कैपिटलिज्म से हर कीमत पर बचना जरूरी है) को बेच रही हैं
  • अभी सरकारी कंपनियों की कीमत कम है. इसलिए इस कीमत पर इन्हें नहीं बेचा जाना चाहिए. आखिर टैक्सपेयर्स का जो पैसा इन कंपनियों में लगाया गया है, शेयर की कीमत बढ़ने पर उसकी रिकवरी जरूरी है (आप ऊपर मारुति की कहानी से सबक ले सकती हैं)
  • सरकारी कंपनियों में काम करने वालों के हितों की रक्षा करनी होगी. ऐसे उपाय करने होंगे, जिनसे वे निजीकरण में सहयोग करें. कंट्रोलिंग स्टेक बेचने के बाद भी उनका रोजगार सुरक्षित रहेगा, इसकी गारंटी देनी होगी. हां, अगर वे खुद कंपनी छोड़ना चाहें तो और बात है
  • सरकारी कंपनियों में नियंत्रण हिस्सेदारी तेजी से नहीं बेची जानी चाहिए. इसकी शुरुआत छोटी कंपनियों, केस स्टडी से करनी होगी और उसके बाद हर सफलता के साथ इसका आकार बढ़ाना होगा. इस काम को पूरा करने में 5 साल या उससे अधिक समय भी लग सकता है
  • इसमें रायसीना हिल के ब्यूरोक्रेट्स को शामिल न करें. मैडम आपके और प्रधानमंत्री मोदी के राजनीतिक समर्थन के साथ इसमें बाहरी एक्सपर्ट्स की मदद लेनी चाहिए (जैसे कि आईसीआईसीआई के केवी कामत को मारुति के विनिवेश से जोड़ा गया था)
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फिर इस ‘नामुमकिन को मुमकिन’ कैसे किया जाए?

मैं यहां एक केस स्टडी दे रहा हूं, जिसमें बताया गया है कि नामुमकिन को मुमकिन कैसे बनाते हैं?

  • पहले एक छोटी सरकारी कंपनी को लीजिए. मान लीजिए कि इसका डिस्ट्रेस्ड मार्केट कैपिटलाइजेशन यानी आज की कम कीमत पर उसकी वैल्यू 25,000 करोड़ रुपये है
  • मान लेते हैं कि इसमें सरकार की हिस्सेदारी 60 पर्सेंट है, अब इसके कैपिटल स्ट्रक्चर को ऐसे बदलिए कि सरकार के पास जो शेयर हैं, वे 10 साल के कंपलसरली कन्वर्टिबल प्रेफरेंस शेयर (सीसीपीएस) में बदल जाएं. उसके बाद इनकी अलग लिस्टिंग कराई जाए. भारत के एकाउंटिंग नियमों के मुताबिक सीपीपीएस को इक्विटी के बराबर माना जाता है. इसलिए कंपनी में सरकार की हिस्सेदारी ऐसे कन्वर्जन के बाद भी बनी रहेगी, लेकिन उसके वोटिंग राइट्स खत्म हो जाएंगे. इससे नए मालिक को सरकारी दखल के बगैर काम करने की आजादी मिलेगी
  • 9 पर्सेंट सीसीपीएस को एक एंप्लॉयी स्टॉक पूल में ट्रांसफर किया जाए और इससे कंपनी के कर्मचारियों को ऑप्शंस दिए जाएं. सरकार के पास बगैर वोटिंग राइट्स के 51 पर्सेंट सीसीपीएस बने रहेंगे
  • जिन भारतीयों का शानदार पेशेवर रिकॉर्ड रहा है, उन्हें अकेले या समूह में ऐसी कंपनी में 30 पर्सेंट हिस्सेदारी लेने की इजाजत मिलनी चाहिए. उन्हें इसके लिए प्राइवेट इक्विटी फंडों से साझेदारी करने की छूट भी दी जानी चाहिए
  • अगर यह मान लें कि कंपनी की मौजूदा स्ट्रेस्ड वैल्यू से दोगुनी कीमत पर ये लोग हिस्सेदारी खरीदते हैं तो 30 पर्सेंट मैनेजमेंट स्टेक बेचने पर 6,000 करोड़ रुपये मिलेंगे. इसमें कंपनी का कुल मार्केट कैप 50,000 करोड़ रुपये माना गया है, लेकिन इसमें से 60 पर्सेंट को पहले ही सीसीपीएस में बदला जा चुका है, इसलिए 30 पर्सेंट वोटिंग स्टेक के लिए 6,000 करोड़ रुपये जुटाने होंगे, जो निवेशकों के लिए ठीक-ठाक रकम होगी.
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देखिए, हो गया न निजीकरण और इसमें ‘नॉट टू डू’ लिस्ट पर पूरी तरह से अमल भी किया गया है:

  • इसमें कंपनी का नियंत्रण भारतीय पेशेवरों के हाथ में गया, न कि विदेशी या किसी भारतीय बिजनेस घराने के पास
  • सरकार को आज की कम कीमत पर हिस्सेदारी नहीं बेचनी पड़ी. अगर अगले 10 साल में कंपनी की वैल्यू में 10 गुना तक की बढ़ोतरी होती है तो सरकार के 51 पर्सेंट सीसीपीएस की वैल्यू 1.25 लाख करोड़ रुपये हो जाएगी (जो अभी की डिस्ट्रेस्ड प्राइस पर सिर्फ 15,000 करोड़ रुपये है)
  • ईसॉप होल्डर्स यानी सरकारी कंपनी के कर्मचारियों की 9 पर्सेंट हिस्सेदारी की वैल्यू भी तब तक बढ़कर 25,000 करोड़ रुपये हो जाएगी.

आखिर में, ऐसे एक निजीकरण के सफल होने के बाद दूसरों की भी दिलचस्पी बढ़ेगी और भारत सबसे मुश्किल आर्थिक मसले को राजनीतिक समर्थन से सुलझा चुका होगा.

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