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प्रदर्शन करने का अधिकार तो है, लेकिन इसके खतरे बहुत हैं

संविधान विरोध करने के अधिकार की गारंटी देता है, लेकिन शांतिपूर्ण प्रदर्शनों की राह में रोड़े बढ़ते जा रहे हैं.

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हमारे संविधान का अनुच्छेद 19 (1) (a) बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी के मूलभूत अधिकार की गारंटी देता है. लेकिन इस गारंटी के बावजूद कई लोगों को इस बात की आशंका है कि यह मूलभूत अधिकार किस हद तक उनकी रक्षा करेगा.

जैसे, पिछले साल जब एक पत्रकार ने एक राज्य के नेतृत्व में संभावित बदलाव का कयास लगाया तो उस पर राजद्रोह का मामला दर्ज कर दिया गया. बेशक, उसने कभी इसकी उम्मीद नहीं की होगी.

बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी पर अतार्किक पाबंदियों के ऐसे कितने ही मामले हैं. उनमें से हरेक का उल्लेख यहां जरूरी नहीं है.

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चूंकि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर आज लगातार हमले हो रहे हैं. आप मानें या न मानें, लेकिन एक राज्य में तो अपनी इंटरफेथ शादी की रस्में भी अदा नहीं की जा सकतीं. ऐसा करने पर जेल की हवा खानी पड़ सकती है. ऐसे में अपनी बात कह सकने के हक के क्या मायने हैं.

हमारे संविधान में मूलभूत अधिकारों की फेहरिस्त में अनुच्छेद 19 (1)का अगला उपखंड ख है जोकि बिना हथियारों के शांतिपूर्ण एकत्र होने के अधिकार की गारंटी देता है. बदकिस्मती से इस अधिकार पर भी वार किया जा रहा है.

प्रदर्शन कहां करें- खुली जेल में या फिर बंद जेल में?

सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में यह कहा था कि “एक कानून के खिलाफ शांतिपूर्ण विरोध के अधिकार की सराहना करने के बावजूद... हम यह स्पष्ट करते हैं कि इस तरह सार्वजनिक रास्तों और सार्वजनिक स्थानों पर कब्जा नहीं किया जा सकता, और वह भी अनिश्चित काल के लिए.”

क्या इसका मतलब यह है कि सार्वजनिक रास्तों और सार्वजनिक स्थानों पर सरकार के किसी नीतिगत फैसले के खिलाफ या किसी अन्य गंभीर कारण (कानून के अतिरिक्त) से विरोध करने की अनुमति है, और वह भी अनिश्चित काल के लिए? मेरे ख्याल से सुप्रीम कोर्ट यह नहीं चाहता होगा कि उसके फैसले की इतनी बारीक व्याख्या की जाए.

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मान लीजिए कि सुप्रीम कोर्ट का मायने विस्तृत था. लेकिन दिल्ली में कोई कहां प्रदर्शन कर सकता है? बोट क्लब बंद हो चुका है. जंतर-मंतर किसी सार्थक प्रदर्शन के लिए बहुत छोटी जगह है. रामलीला मैदान में आप घुस नहीं सकते. इंडिया गेट के लॉन्स में प्रदर्शन सुरक्षा के लिहाज से नहीं किया जा सकता. आप जवाब दे पाएं, इससे पहले प्रशासन धारा 144 लगा देगा.

दूसरे शब्दों में दिल्ली में ऐसा कोई तरीका नहीं कि आप सार्वजनिक रूप से प्रदर्शन कर सकें. आजाद भारत में आप न तो आजादी के पहले के तरीकों से और न ही आजादी के बाद के तरीकों से विरोध प्रदर्शन कर सकते हैं. राज्य आजादी के पहले के कानूनों के जरिए उन्हें बेअसर कर सकता है. कभी कथित रूप से सार्वजनिक व्यवस्था कायम रखने के नाम पर तो कभी संविधान की रक्षा की दुहाई देकर.

लेकिन फिर भी एक जगह है (जिसे लगभग घोषित किया गया है), जहां प्रदर्शन किए जा सकते हैं. दिल्ली के बाहर बुराड़ी में. इस जगह आसानी से नहीं पहुंचा जा सकता और हाल ही इसे “खुली जेल” कहा गया है.

इसलिए दिल्ली में भविष्य में प्रदर्शन करने वालों को एक सलाह है. अगर वे प्रदर्शन करना चाहते हैं तो इसके लिए खुली जेल मौजूद है. अब लोग बुराड़ी कैसे पहुंचेंगे, यह उनकी समस्या है. हां, वे कानून को तोड़कर बंद जेल जैसे तिहाड़ जा सकते हैं.

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प्रदर्शन की चुनौतियां

इजाजत

तब क्या हो, अगर लोग दिल्ली के बीचोंबीच किसी स्थान पर विरोध प्रदर्शन करना चाहें?

सबसे पहले उन्हें प्रशासन को बताना पड़ेगा कि वे किस वजह से प्रदर्शन कर रहे हैं. हो सकता है कि प्रशासन उस कारण से विरोध करने की इजाज़त न दे. जैसे पुलिस की बर्बरता प्रदर्शन करने का उचित कारण नहीं हो सकता. शायद यह बहुत सेंसिटिव भी है और प्रदर्शनकारियों को अदालत में इसे साबित भी करना होगा कि यह मामला इतना सेंसिटिव नहीं, जितना बताया जा रहा है. अब अदालत इस पर कितने दिनों में फैसला सुनाएगी, यह भी देखना होगा.

अवधि

दूसरा, प्रदर्शन अनिश्चित काल के लिए नहीं हो सकता. प्रदर्शनकारियों को प्रशासन को बताना होगा कि वे कितने समय तक प्रदर्शन करेंगे- आधे घंटे, एक घंटे, कई दिन या फिर और कुछ. शायद प्रशासन दयालु हो जाए और उन्हें प्रदर्शन के लिए दस या पंद्रह मिनट दे दे- चूंकि उनके बाद दूसरे प्रदर्शनकारियों को भी समय देना है. अगर वे कुछ लंबे समय तक प्रदर्शन करना चाहते हैं तो अदालत का दरवाजा खटखटा सकते हैं.

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कानूनी बाधाएं, लोगों की नफरत और परेशानी

अगर प्रदर्शनकारी अदालत गए और अपने अनुकूल आदेश लेकर लौटे तो उन्हें तकलीफ पहुंचाने वाले अपशब्दों और तानों के लिए तैयार रहना होगा. उन्हें खालिस्तानी या फिर अर्बन नक्सल कहा जा सकता है. खान मार्केट या टुकड़े टुकड़े गैंग या लुटियंस लॉबी का मेंबर पुकारा जा सकता है. दूसरे बुरे से बुरे, अपमानजनक शब्द भी कहे जा सकते हैं. इसके अलावा उन्हें राजद्रोह या गैरकानूनी गतिविधि (निवारण) एक्ट (यूएपीए) के तहत गिरफ्तार किया जा सकता है- भले ही ऐसा कोई अपराध न किया गया हो.

“कानून को अपना काम करने दीजिए”, यह सामान्य दावा किया जाएगा. कानून पेचीदा तरीके से काम करेगा और प्रदर्शनकारी जेल में अपने दिन काटेंगे.

इसके अलावा ट्रैफिक को धीमा करने के लिए बैरियर्स लगाए जा सकते हैं और आने-जाने वाले लोग परेशान हो सकते हैं. ऐसा लगता है कि शाहीन बाग में प्रदर्शन के दौरान ट्रैफिक को जानबूझकर डायवर्ट किया गया ताकि ट्रैफिक जाम हो और लोग प्रदर्शनकारियों पर आग बबूला हों.

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हाल ही में खाई खोदने, और सड़कों को रोकने जैसे उपाय भी किए गए. प्रदर्शनकारी आने-जाने वाले लोगों को परेशान नहीं कर सकते, लेकिन राज्य ऐसा कर सकता है- उसे किसी बात का डर नहीं होता. राज्य के पास बड़े जमावड़ों को रोकने के लिए कानूनन दूसरे तरीके अख्तियार करने का भी विकल्प है. वह कुछ मेट्रो स्टेशन बंद कर सकता है या इंटरनेट कनेक्टिविटी को रोक सकता है.

पांचवा, उन्हें सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने (डैमेज टू पब्लिक प्रॉपर्टी) के लिए लंबा चौड़ा बिल थमाया जा सकता है और अगर वे बिल न चुका पाएं तो पब्लिक होर्डिंग्स के जरिए सार्वजनिक तौर पर नामजद करके, शर्मिंदा किया जा सकता है.
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मूलभूत अधिकार

किसी व्यक्ति के सिर्फ इतना कहने से काम नहीं चलने वाला कि उसने सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान नहीं पहुंचाया है- उसे इसे साबित भी करना होगा. लेकिन अगर पुलिस सार्वजनिक या निजी संपत्ति को नुकसान पहुंचाए, इनसानी शरीर को चोट पहुंचाए तो कोई बात नहीं- यह उसका कर्तव्य है कि कानून व्यवस्था कायम रहे. महंगे सीसीटीवी कैमरे पुलिस तोड़ चुकी है... तो क्या?

मैं हिंसा या सार्वजनिक या निजी संपत्ति को नुकसान पहुंचाने को जायज नहीं ठहराता. लेकिन फिर भी मानता हूं कि अगर राज्य के नुमाइंदे सार्वजनिक या निजी संपत्ति को क्षति या इनसानी शरीर को चोट पहुंचाते हैं, तो उन्हें इसका नतीजा भुगतना चाहिए, जिसमें आर्थिक नतीजे भी शामिल हैं. कानून सब पर एक बराबर लागू होना चाहिए- उसमें देरी नहीं होनी चाहिए. उसे कुछ चुनींदा लोगों पर लागू नहीं किया जाना चाहिए.

अब इसी बात को किसानों के प्रदर्शनों पर लागू कीजिए. दिल्ली ने इस बार जो ठिठुरन महसूस की है, वह बीते दस सालों में महसूस नहीं की. लेकिन इस बुरे मौसम में भी किसानों के खिलाफ सारे पैंतरे चले गए. किसान भी पूरी दिलेरी से दिल्ली की सीमाओं पर अनिश्चित काल के लिए जमे बैठे हैं. अघोषित सार्वजनिक स्थलों पर- एक नहीं, तीन-तीन कानूनों के खिलाफ.

उनके खिलाफ फिलहाल कोई कार्रवाई नहीं की गई है. शायद अब आप हथियारों के बिना शांतिपूर्ण तरीके से इकट्ठा होने के मूलभूत अधिकार के इस्तेमाल की ताकत को समझ पाएं.

(जस्टिस मदन बी लोकुर भारतीय सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज हैं. यह एक ओपिनियन लेख है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)

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