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अमृतसर: जवाबदेह भागने की फिराक में, पर कौन देगा इन सवालों के जवाब?

रेलवे जिम्मेदारी से मुकर चुका है, प्रशासन कह रहा है आयोजक ने परमीशन नहीं ली. आखिर कौन है इन मौतों का जिम्मेदार

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अमृतसर की घटना को हादसा, सामूहिक हत्या या नरसंहार किस नाम से पहचाना जाए- ये मुश्किल सवाल है. हादसा कह देना आसान है क्योंकि इसमें किसी की आपराधिक जिम्मेदारी नहीं बनती. सबकुछ रफा-दफा हो जाता है.

सामूहिक हत्या या नरसंहार कहने से हत्यारे की पहचान करनी होगी. रेलवे, आयोजक, ड्राइवर, फाटकमैन, जनप्रतिनिधि, प्रशासन या सरकार किसे हत्यारा कहा जाए, यह तय करना होगा. इससे बात बढ़ती है. बात से बात निकलती है, जो दूर तलक जाती है. इसलिए इससे भी बचने की प्रवृत्ति दिख रही है. सबसे आसान है घटना का ज़िम्मेदार उन्हें ही ठहरा दो जो इस दुनिया में नहीं हैं. मरने वाले ही अपनी मौत के ज़िम्मेदार हैं.

जब गरीब की मौत होती है तो गरीब ही उसके जिम्मेदार होते हैं. सड़कों पर सोते लोगों को गाड़ी कुचल दे तो सवाल उनसे ही पूछा जाता है कि वे सड़क पर सो क्यों रहे थे? रावण दहन देखने को जुटे 5 हज़ार की भीड़ उस छोटी जगह में नहीं समा सकती थी जहां आयोजन हो रहा था. रामलीला और म्यूजिक पार्टी का आनन्द लेने बड़ी संख्या में भीड़ वहां जमा थी.

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मरने वाले चूकि बिहारी थे, यानी बिहार और यूपी के रहने वाले लोग, तो आप समझ सकते हैं कि पंजाब में यह वर्ग वर्किंग क्लास कहलाता है. ये मनोरंजन सड़क पर ही ढूंढ़ते हैं. पर्व-त्योहार पर जहां हज़ारों लोग इकट्ठे हों, वहां खुद को सुरक्षित भी महसूस करते हैं. वह वीडियो भी इस बात की गवाही देता है जिसमें आयोजक की ओर से दावा किया गया है कि पटरियों पर 5 हजार लोग खड़े हैं और उन्हें इस बात की परवाह नहीं कि 500 गाड़ियां भी गुजर जाए तो क्या हो. वे मरने के लिए भी तैयार हैं.

यह बात सच है कि मारे गये गरीब लोग और उस हादसे में जिन्दा बच गए बाकी लोग भी, जान जोखिम में डालकर ही रावण वध का नज़ारा देख रहे थे. मगर, जान जोखिम में डालना और अपनी मौत के लिए जिम्मेदार होना, दोनों में बड़ा फर्क होता है.

क्या ट्रेन में चल रहे मुसाफिर जान जोखिम में डालकर यात्रा नहीं करते? क्या बढ़ते सड़क हादसे ये नहीं कह रहे हैं कि सड़क पर हम जान जोखिम में ही डालकर चल रहे होते हैं? मगर, क्या सड़क हादसे में मरने वाले को ही दोषी ठहरा दिया जाएगा?

रेलवे बोर्ड के चेयरमेन अश्विन लोहानी और रेल राज्य मंत्री मनोज सिन्हा जब तुरंत घटनास्थल की ओर निकल पड़े थे, तब एक उम्मीद बंधी थी. संवेदनशीलता के स्तर पर यह उम्मीद थी. मगर, अब यह उम्मीद धराशायी हो चुकी है. क्योंकि उनके बयानों में कहीं संवेदनशीलता है ही नहीं. ऐसा लगता है मानो रेलवे को क्लीन चिट देने के लिए ही ये उतावले थे और घटनास्थल पर सबसे पहले पहुंच गये. मुख्यमंत्री अमरिन्दर सिंह तक अगले दिन घटनास्थल पर पहुंचे.

रेलवे बोर्ड के अश्विन लोहानी ने रेलवे को क्लीन चिट देने के जो आधार बताए हैं उन पर गौर कीजिए-

  • रेलवे को आयोजन के बारे में कोई जानकारी नहीं दी गयी.
  • हादसे से 2 मिनट पहले भी एक ट्रेन गुजरी थी. तब कोई हादसा नहीं हुआ.
  • दो फाटक वहां हैं. दोनों घटना के वक्त बंद थे.
  • पटरी का अतिक्रमण हुआ था. लोगों को ऐसा नहीं करना चाहिए था.

दावा ये भी किया जा रहा है कि ट्रेन के ड्राइवर ने स्पीड कम कर दी थी. 82 किमी प्रति घंटे की रफ्तार कम होकर 67 किमी प्रति घंटे की रफ्तार तक पहुंच गयी थी. मगर, इन कुतर्कों से रेलवे बोर्ड अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकता. रेलवे बोर्ड अगर चंद सवालों का जवाब मात्र दे दे, तो उसे यह बात अच्छी तरह से समझ में आ जाएगी कि उसका गुनाह कितना बड़ा है-

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सवाल नम्बर 1

पटरी पर बेमौत मरने वाले इंसान के बजाए अगर ज़िन्दा बम रखे गये होते, तो जो अंजाम होता उसके लिए रेलवे किसे ज़िम्मेदार ठहराता? वे बम को ज़िम्मेदार ठहराते, या फिर बम रखने वाले को! या फिर खुद को, जिसके पास निगरानी की कोई व्यवस्था ही नहीं है!

सवाल नम्बर 2

हादसे से 2 मिनट पहले ट्रेन सकुशल गुजरी थी. यह बात रेलवे की लापरवाही का सबूत है न कि उसे क्लीन चिट देने का आधार?

लोगों का कहना है कि उस ट्रेन की स्पीड कम थी लिहाजा लोग वक्त रहते पटरी से इधर-उधर हो गये. दूसरी बात ये भी है कि रावण दहन और उसके बाद उठती लपटों और पटाखों की आवाज़ या फिर मोबाइल में कैद करने की सनक जैसी बातें तब नहीं हो रही थीं. अमृतसर जैसे शहर के बीचो बीच 5 हजार की भीड़ पटरी पर हो और रेलवे बोर्ड कहे कि उसे पता नहीं था? अक्षम्य है ऐसे सूचना तंत्र का अस्तित्व.

सवाल नम्बर 3

ट्रेन के गुजरते समय फाटकों का बन्द होना क्या चौकस होने का उदाहरण भर है? क्या यह पटरी पर हजारों लोगों की मौजूदगी की अनदेखी जैसी लापरवाही का सबूत नहीं है?

दो फाटक थे और ट्रेन के गुजरते समय दोनों बंद थे. इसका मतलब साफ है कि फाटक बंद करने वाले लोग चौकस थे. मगर, ये कैसी चौकसी है जो 5 हज़ार लोगों के पटरी पर होने और दुर्घटना की आशंका के प्रति बिल्कुल लापरवाह रही!

सवाल नम्बर 4

पटरी पर लोगों की मौजूदगी को रेलवे बोर्ड ने अतिक्रमण बताया है. क्या अतिक्रमण की सजा रेलवे बोर्ड देगा? जानवर भी पटरियों पर आ जाते हैं. उनकी जान से भी सस्ती हो गयी इंसानों की जान? ट्रेन के गुजरने से पहले क्या यहां निगरानी की कोई जरूरत नहीं थी? सूचनाएं हासिल करते रहने का कोई सिस्टम जरूरी नहीं था?

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रेलवे बोर्ड और उनकी हां में हां मिला रहे रेल राज्यमंत्री मनोज सिन्हा ने शुरुआत कर दी है. यह शुरुआत जिम्मेदारी की टोपी ट्रांसफर को लेकर है. विपक्ष आयोजक को गलत ठहरा रहा है, आयोजन में पहुंची मुख्य अतिथि नवजोत कौर सिद्धू पर इल्जाम लगा रहा है कि उनके सामने माइक पर एलान किया गया था, कि पटरी पर 5000 से ज्यादा लोग मौजूद हैं.

यानी ये लापरवाही आयोजक की है. प्रशासन कह रहा है कि उससे आयोजन की अनुमति नहीं ली गयी. अगर इन सारे आरोपों का कोलाज बना लिया जाए तो समझते देर नहीं लगती कि गलती किसकी है?

लेकिन इन सबको गुनहगार साबित करेगा कौन? क्योंकि सरकार की अनिच्छा है, विपक्ष राजनीति में उलझा है, प्रशासन खुद को बचाने में लगा है, दूसरे संलग्न लोग भी अपने आपको बचाने में लगे हैं? लोग पंजाब के हों या बाहर से,लेकिन इनके लिए लड़ेगा कौन?

खासकर उन लोगों के लिए जो अब इस दुनिया में नहीं हैं. शायद इसलिए रेलवे बोर्ड ने साफ-साफ कह दिया है कि गलती उन्हीं की है जो पटरी पर खड़े थे. यानी जिनकी मौत हुई वही हैं असली गुनहगार. गुनहगारों की पर्देदारी के लिए इससे बड़ा कुतर्क कुछ नहीं हो सकता.

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