पश्चिमी देश खास करके अमेरिका (America) सभी मिलकर भारत पर ये दबाव डाल रहे हैं कि वो यूक्रेन पर रूस (Russia-Ukrain War) के आक्रमण के खिलाफ खुलकर सामने आए और सीधी आलोचना करे. इस उद्देश्य को लेकर इन देशों के मंत्रियों और वरिष्ठ अधिकारियों ने दिल्ली के कई उच्च स्तरीय दौरे किए हैं. पिछले ही कुछ दिनों में ब्रिटिश विदेश सचिव एलिजाबेथ ट्रस, जर्मन चांसलर के सिक्योरिटी और फॉरेन पॉलिसी एडवाइजर Jens Plotner और यूएस डिप्टी नेशनल सिक्योरिटी एडवाइजर फॉर इंटरनेशनल इकोनॉमिक्स दलीप सिंह दिल्ली में थे.
इसके साथ ही दूसरे महत्वपूर्ण पश्चिमी नेता और अधिकारी अपने भारतीय समकक्षों के साथ फोन पर भी कॉन्टैक्ट में थे.
जहां ट्रस और Plotner ने यूक्रेन पर भारतीय स्थिति को लेकर अपने सार्वजनिक बयानों को लेकर सावधानी बरती, वहीं दलीप सिंह भोंडेपन की हद तक मुंहफट नजर आए. सिंह के इन बयानों ने ठीक वैसे ही मीडिया का ध्यान खींचा, जैसा होना चाहिए था.
दलित सिंह के बयान पाखंड से भरे
यूक्रेन पर रूस के आक्रमण को लेकर पश्चिमी नैरेटिव इससे शुरू होता है कि ये लोकतांत्रिक देशों की जरूरत है कि वो इसके खिलाफ साथ आकर खड़े हों. इस युद्ध को डेमोक्रेटिक—ऑटोक्रेटिक बाइनरी में दिखाया गया. इन तर्कों में खास तौर से इस बात पर जोर डाला गया कि तानाशाह पुतिन ने यूक्रेन की संप्रभुता का उल्लंघन किया.
ये संदर्भ उन सभी मूल सिद्धांतों से जुड़े हुए हैं, जो अंतरराष्ट्रीय सिस्टम का आधार हैं. जैसा कि सिंह ने दिल्ली में चुनिंदा पत्रकारों के एक समूह को बताया, यहां सबसे महत्वपूर्ण मूल सिद्धांत दांव पर हैं. वो मूल सिद्धांत जो दुनियाभर में शांति और सुरक्षा का आधार हैं, इसे मजबूती देते हैं. वो सिद्धांत जिसके तहत आप ताकत के जरिए सीमाओं में बदलाव नहीं कर सकते, उन्हें दोबारा नहीं खींच सकते. वो मूल सिद्धांत जिनके जरिए आप उन देशों के नागरिकों को अधीन नहीं बना सकते, जिन्हें अपने नियम बनाने का और अपनी नियति चुनने का अधिकार है.
रूस का यूक्रेन पर आक्रमण गलत है और इसे किसी भी तरह से सही नहीं ठहराया जा सकता. चाहे किसी भी तरह का उकसावा रहा हो जिसकी वजह से पुतिन ने ये कदम उठाया. लेकिन फिर इस तरह की प्रकृति वाले शब्द भी असहनीय रूप से पाखंडी और दिखावटी हैं.
खास तौर से पूर्व औपनिवेशिक ताकतों और उनके द्वारा जो सक्रिय रूप से अलग-अलग देशों के आंतरिक मामलों में अपने हितों की रक्षा के लिए दखल देते रहे हैं और ये द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से ही होता आया है.
इनमें से कुछ देशों जैसे कि अमेरिका और ब्रिटेन ने दूसरे देशों पर आक्रमण भी किया. लेकिन ये अपेक्षा करना कुछ ज्यादा होगा कि रूस पर सख्त प्रतिबंध लगाने वाले और उसकी आलोचना करने वाले देश इस बात को स्वीकार कर सकें कि वो रूस के खिलाफ स्टैंड अपने हितों की रक्षा के लिए ले रहे हैं.
चलिए दलित सिंह के बयान का मतलब समझते हैं
दलीप सिंह जिन्होंने रूस के खिलाफ प्रतिबंधों को तैयार करने में अहम भूमिका निभाई है. रूस पर अमेरिकी प्रतिबंधों को पांच हिस्सों में समझ सकते हैं. जिसमें पहले प्रतिबंध ने रूसी बैंकिंग सिस्टम पर तुरंत और तेजी से अत्यधिक लागत लागू कर दी. दूसरा है, रूसी टेक्नोलॉजी पर रोक जो मिलिट्री के आधुनिकीकरण और इसकी इकोनॉमी को विविधता देने के लिए जरूरी थी.
तीसरा रूस को इंटरनेशनल वर्ल्ड ऑर्डर से बाहर करने की कोशिश की गई. वहीं चौथे का लक्ष्य रूसी “Kleptocracy” गर्वमेंट सिस्टम को जवाबदेह ठहराना था. पांचवां उद्देश्य था, एनर्जी सप्लायर के तौर पर रूस के दर्जे को घटाना.
इन उद्देश्यों का विश्लेषण विरोधाभासों और ढोंग को दिखाता है, जो रूस के साथ पश्चिम के व्यवहार में हमेशा से ही रहा है. रूस को कैसे इंटरनेशनल वर्ल्ड ऑर्डर से हटाया जा सकता है जबकि वो संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) का स्थायी सदस्य है. दरअसल, ये संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को कमजोर कर सकता है जो कई वैश्विक राजनीतिक और स्ट्रैटजिक मुद्दों के लिए उलझाने वाला होगा.
रूस से ‘Most Favoured Nation’ (MFN) का दर्जा छीनने के लिए अमेरिका ने जो कार्रवाई की, वो उसके व्यापार को नुकसान पहुंचा सकता है, वहीं इस कार्रवाई से रूस को मुश्किल से ही अलग थलग किया जा सकेगा.
इसमें आगे देखें तो कुछ प्रमुख नाटो देश जिसमें ब्रिटेन भी शामिल है. इन देशों को रूस के ऐसे संदेहपूर्ण बिजनेस करने वाले लोगों से कोई समस्या नहीं थी, जो उनके देश में भरपूर पैसा लगा रहे थे, लेकिन अब वो एकदम पवित्र बन गए हैं.
भारत पर दलीप सिंह के सार्वजनिक बयान बिल्कुल लाइन से हटकर थे. वहीं भारत के लिए जो सबसे महत्वपूर्ण है, वो है रूसी एनर्जी निर्यात के खिलाफ अमेरिकी कार्रवाई. यह अच्छा है कि भारत, रूस से सस्ते दामों पर तेल खरीद रहा है. अमेरिका को इससे शिकायत नहीं होनी चाहिए क्योंकि, यूरोप ने भी रूसी गैस और तेल खरीदना जारी रखा है. ये तर्क कि चूंकि इन देशों ने इन चीजों के आयात को कम करने का प्रस्ताव दिया है, इसलिए भारत को अपनी खरीद को नहीं बढ़ाना चाहिए, ये हल्की बात है और भारत को इसे अनदेखा करना चाहिए.
दलीप सिंह के कुछ कमेंट लाइन से बिल्कुल अलग हटकर थे. उन्होंने कहा कि चीन और रूस के बीच रिश्तों में रूस जूनियर पार्टनर था. सिंह ने कहा, मुझे नहीं लगता कि कोई इस पर यकीन करेगा कि अगर चीन ने एक बार फिर लाइन ऑफ कंट्रोल का उल्लंघन किया तो रूस भारत के बचाव में भागता हुआ आएगा.
सिंह को जानना चाहिए कि भारत ने ऐसी क्षमताएं विकसित कर ली हैं जिससे वह खुद अपनी सुरक्षा कर सकता है और किसी देश से उसकी ये अपेक्षा नहीं है कि वह भागता हुआ आकर उसकी मदद करे.
सिंह ने यह भी कहा कि इसके नतीजे भुगतने होंगे, अगर भारत प्रतिबंधों को नाकाम करने की कोशिश करता है. इसमें कोई शक नहीं होगा कि रुपया, रूबल पेमेंट अरेंजमेंट गतिरोध पैदा करने के लिए तैयार किया गया है.
वहीं जब उनसे ये पूछा गया कि जिन नतीजों की बात वह कर रहे हैं, उनका रूप क्या होगा तो उन्होंने कहा कि ये उनकी प्राइवेट यानी आधिकारिक बातचीत का मामला था.
सवाल ये है कि क्या इन परिणामों की बात उन्होंने अपनी आधिकारिक बैठकों में की थी. ऐसा माना जाता है कि उनकी पब्लिक मैसेजिंग, आधिकारिक अभिव्यक्ति की वास्तविकता और उसके स्वरूप से अलग थी.
दलित सिंह की बातों को अनदेखा करे भारत
व्हाइट हाउस की एक प्रेस रिलीज सामने आई, जिसमें कुछ हद तक वहीं बातें थीं जो दलीप सिंह ने भारत में कही थीं. व्हाइट हाउस की प्रेस रिलीज में कहा गया कि दलीप सिंह ने भारत—अमेरिका के आर्थिक सहयोग को बढ़ाने और फ्री—ओपन इंडो पैसिफिक में अपने साझा हितों को बढ़ाने के तरीकों पर चर्चा की.
इसमें ये भी कहा गया कि उन्होंने वैश्विक खाद्य सुरक्षा और अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा मूल्यों पर रूस—यूक्रेन युद्ध के अस्थिर करने वाले प्रभावों पर भी चर्चा की.
हालांकि ये प्रेस रिलीज सिंह के उन दावों का समर्थन नहीं करती जिसमें कहा गया है कि उन्होंने भारतीय अधिकारियों से बात की और उन्हें रूस के साथ मौजूदा व्यवहार के परिणामों के बारे में बताया. दरअसल, ऐसा कुछ जो अमेरिकी शासन को सिंह के परिणामों वाली मीडिया टिप्पणियों से दूर रखने के लिए किया जा सके.
यहां सवाल ये है कि क्या दलीप सिंह अनुभवहीन हैं, जिन्होंने अपनी संक्षिप्त बातचीत को बढ़ा दिया या फिर अमेरिका ने ही उनका इस्तेमाल इस तरह किया कि वो भारत को एक मैसेज पहुंचा सकें?
इसके संकेत तब मिल सकते हैं अगर अमेरिका भारत के एडवांस्ड रूसी मिलिट्री सिस्टम्स को खरीदने पर प्रतिबंध लगाने की शुरुआत कर दे और वो भी अपने हालिया कानून के तहत, जो कि प्रतिबंधों से अलग है.
हालांकि किसी भी सूरत में भारत को सिंह के बयानों को अनदेखा करना चाहिए और अपने हितों को ध्यान में रखते हुए काम करना चाहिए.
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