आज से 50 साल पहले भारतीय उपमहाद्वीप के दूसरे बंटवारे के परिणामस्वरूप उस समय के दुनिया के सबसे बड़े मुस्लिम देश पाकिस्तान का विभाजन हुआ और उसके नक्शे पर एक नया देश बांग्लादेश (Bangladesh) आजाद हुआ. ये कहने की जरूरत नहीं कि इस घटना से जो राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक तनाव पैदा हुआ वो आज भी कायम है.
ब्रिटिश इंडिया के विभाजन की ही तरह पाकिस्तान के विभाजन और बांग्लादेश की आजादी ने भी उपमहाद्वीप के दो बड़े देशों के कवियों और लेखकों को गहराई तक प्रभावित किया. इनमें साहिर लुधियानवी (1921-1980), जौन एलिया (1931-2002) विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इस साल साहिर लुधियानवी के जन्म के 100 साल हुए हैं जबकि 14 दिसंबर को जौन एलिया का 90वां जन्मदिन था.
दोनों ने ऐसी कविताएं भी लिखीं जो ज्यादा लोकप्रिय नहीं हुईं और आश्चर्यजनक रूप से उनके काम पर उनके जीवन के अन्य पहलुओं, रंगीन, स्वच्छंद जीवन की तुलना में कम ध्यान दिया गया है. लेकिन उस पर बाद में चर्चा करेंगे.
साहिर और जौन का जीवन और समय
साहिर और जौन, जो 1947 के उपमहाद्वीप के विभाजन में अलग-अलग देशों में चले गए थे, की जिंदगी में दिलचस्प समानताएं और अंतर हैं. दोनों कम्युनिस्ट, आजाद ख्यालों के और उत्साही लेकिन असफल प्रेमी थे.
दोनों अपनी जिंदगी में कुछ हद तक ही सफल हुए और लेकिन बड़े स्तर पर बुद्धिजीवियों और साहित्यिक आलोचकों की ओर से उनकी उपेक्षा की गई, उनकी जिंदगी और मौत के बाद का मूल्यांकन उनकी साहित्यिक क्षमता के बजाए उनके निजी जीवन और व्यक्तित्व के गुणों पर किया गया. दोनों का निधन भी युवावस्था में हो गया.
साहिर का जन्म 100 साल पहले लुधियाना में एक पंजाबी सामंती परिवेश वाले परिवार में हुआ था. उनके जमींदार पिता ने उनकी मां को तलाक दे दिया था और इकलौता बेटा कोर्ट में चल रहे कस्टडी के मामले में अपनी मां का पक्ष लेता था. इस घटना ने उन्हें एक विद्रोही युवा बना दिया था जो आगे चलकर उर्दू के सबसे लोकप्रिय कवियों में एक बन गया.
उर्दू की उन्होंने मामूली औपचारिक तालीम ही ली थी क्योंकि उस समय के रूढ़िवादी रीति-रिवाजों को नहीं मानने, एक सहपाठी के साथ खुलेआम रोमांस करने के बाद उन्हें लुधियाना में कॉलेज छोड़ना पड़ा था, बाद में लाहौर में उन्हें ब्रिटिश विरोधी गतिविधियों के कारण कॉलेज से निकाल दिया गया था.
प्यार में साहिर का दिल दो बार टूटा- उनकी पहली प्रेमिका की मौत टीबी से हो गई थी और दूसरी ने पारिवारिक परंपरा के नाम पर पैर खींच लिया था-जब वो 1943 में लाहौर पहुंचे थे. विभाजन के बाद 1949 तक वो इसी बड़े शहर में रहे.
लाहौर ने उन्हें पहला बड़ा मौका दिया क्योंकि 1945 में उनका पहला कविता संग्रह तल्खियां प्रकाशित हुआ जिसमें उनकी कई शुरुआती कविताएं थीं. इस कविता संग्रह ने उन्हें मुशायरों का स्टार बना दिया. लाहौर ही वो शहर था जहां उनके कई प्रेम संबंध हुए जिनमें से सबसे ज्यादा प्रसिद्ध साथी पंजाब की महान कवयित्री अमृता प्रीतम के साथ था.
दोनों का कई बार दिल टूटा
1947 के लगभग जब धर्मनिरपेक्ष जीवन, प्यार और वफादारी पर सांप्रदायिक भावना हावी हो गई, प्रीतम के जाने के बावजूद साहिर लाहौर में ही रहे.
आखिरकार 1949 की चिलचिलाती गर्मी में अपनी राजविद्रोही कविता आवाज-ए-आदम, जिसमें पाकिस्तान में एक वामपंथी क्रांति की उम्मीद जताई गई थी, का पाठ करने के बाद उन्हें अपना प्रिय शहर को छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा. इस कविता ने उन्हें पाकिस्तान की कुख्यात सीआईडी के निशाने पर ला दिया था और उनसे जलने वाले साहित्यिक जमात के कुछ लोगों ने ही उनके खिलाफ प्रचार अभियान छेड़ दिया था.
वो भाग कर दिल्ली आ गए और कुछ हफ्ते यहां रहने के बाद वो बॉम्बे चले गए. बॉम्बे में वो एक सफल और लोकप्रिय फिल्मी गीतकार बन गए जहां पूरी जिंदगी उनके काम की काफी मांग बनी रही. अपनी ऐतिहासिक युद्ध विरोधी लंबी कविता परछाइयां के अलावा उन्होंने लाहौर से आने के बाद बहुत ज्यादा कविताएं प्रकाशित नहीं की. हालांकि उनका जन्म एक मुस्लिम परिवार में हुआ था पर वो पाकिस्तान में कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे और पूरी जिंदगी नास्तिक और आजाद विचारों वाले बने रहे.
उपमहाद्वीप के विभाजन ने उन्हें निजी तौर पर ज्यादा गहराई तक प्रभावित नहीं किया जैसा कि उस दौरान की उनकी कविताओं में भी पढ़ा जा सकता है. 1980 में उनका निधन हो गया, आजाद भारत में प्लेबैक सिंगर्स सुधा मल्होत्रा और स्पष्ट तौर पर लता मंगेशकर के साथ-साथ उर्दू की लघु-कथा लेखिका वाजिदा तबस्सुम के साथ उनके प्रेम संबंधों के बावजूद सिगरेट और अल्कोहल के बेहिसाब सेवन से अकेलेपन में उनकी मौत हो गई.
साहिर के समकालीन, जौन का जन्म साहिर के जन्म के एक दशक बाद हुआ था और उनकी ही तरह अमरोहा के एक विशिष्ट (शिया) सामंती परिवार में हुआ था. जौन एक काफी शिक्षित और विद्वान परिवार से थे. युवावस्था में जौन को न सिर्फ नाटकों में अभिनय करने का बल्कि कुश्ती का भी शौक था और उन्हें अपनी जन्मभूमि से काफी लगाव भी था, जिसका एक इशारा उनकी बाद की हृदय-विदारक कविताओं में भी देखने को मिलता है. अमरोहा में ही उनका फारेहा निगारिना के साथ पहला रोमांस भी हुआ जिनके लिए उन्होंने कुछ बहुत ही दिल को छू लेने वाली और गीतात्मक कविताएं भी लिखीं. फारेहा बाद में कराची चली गईं और वहां उनकी शादी हो गई, ये विभाजन की त्रासदी के अलावा कवि के लिए एक और दिल तोड़ने वाली बात थी.
इंडियन टेनेंसी ऐक्ट के तहत उनकी जमीनों को जब्त किए जाने से आर्थिक रूप से कमजोर हो जाने के बाद 1957 के वसंत में जौन का परिवार कराची चला गया. 1970 में उन्होंने साथी लेखिका जाहिदा हिना से निकाह किया.
ये निकाह दो दशकों से कुछ ज्यादा समय तक चला, इस दौरान उनकी दो बेटियां और एक बेटा हुए. शादी का अंत जौन के लिए एक और दिल तोड़ने वाली बात थी लेकिन अपनी कविता पाठ की शैली के साथ गैर पारंपरिक जीवनशैली के लिए वो मुशायरों में लोकप्रिय बने रहे.
साहिर की तरह एक कम्युनिस्ट, नास्तिक और आजाद खयालों वाले होने के बावजूद, वो कभी कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल नहीं हुए. ये आश्चर्य की बात थी कि उनकी राजविद्रोही कविता सरजमीन-ए-ख्वाब-ओ-खयाल, के लिए उन पर केस क्यों नहीं चलाया गया जो उन्होंने 23 मार्च को पाकिस्तान के स्थापना दिवस के दिन देश को संबोधित करते हुए सुनाई और जिसमें वो पाकिस्तान में एक कम्युनिस्ट क्रांति की कामना करते हैं. शायद पाकिस्तान की खुफिया एजेंसियां साहिर लुधियानवी के समय में ज्यादा भेदभाव करती थीं.
हालांकि साहिर के विपरीत जौन अपने जीवन में, 1990 में केवल एक ही कविता संग्रह शायद प्रकाशित कर सके. बाकी के पांच कविता संग्रह और गजल के दो वॉल्यूम उनकी मौत के बाद संकलित और प्रकाशित किए गए थे.
साहिर और जौन दोनों को समीक्षकों ने युवा और मुशायरों का कवि बताते हुए खारिज कर दिया था और इसलिए उन्हें गंभीरता से लेने लायक नहीं बताया था. हालांकि दोनों कुछ यादगार कविताएं हमारे लिए छोड़ गए हैं. इसमें आधी सदी पहले 16 दिसंबर 1971 की घटनाओं पर भी कविता शामिल है.
पीटीवी की कविता
दोनों कविताओं का संदेश और सार अलग है, जो भारत और पाकिस्तान दोनों देशों में उस समय की स्थिति को दर्शाती हैं. 1971 की घटनाएं जौन एलिया की जिंदगी में शोहरत का दूसरा दौर लेकर आई. उनके लिए पूर्वी पाकिस्तान के अलग होने की दुखद त्रासदी 16 दिसंबर 1971 को हुई. उस रात, आंसूओं से भींगे, उर्दू कवि औबैदुल्ला अलीम ने जौन से पाकिस्तान टेलीविजन (PTV), सरकारी चैनल के लिए एक कविता लिखवाई. कविता का शीर्षक था इस्तिफ्सार. इसका मुखड़ा था: क्या इस कदर हकीर था इस कौम का वकार.
हर शहर तुम से पूछ रहा है, जवाब दो
इस कविता ने लोगों के दिलों को छुआ और उनकी भावनाओं को आवाज दी. PTV संचार का सबसे लोकप्रिय और सबसे अच्छा साधन था. जौन की प्रसिद्धी लोगों के बीच तेजी से बढ़ने लगी और अभिजात वर्ग के घेरे से बाहर निकल गई. ‘हमने शिकस्त दी है, हमेशा शिकस्त को’
और इसलिए देश की रक्षा करने में असफल रहने वाली पाकिस्तानी सेना की कठोर जांच से सवाल एक उम्मीद के साथ खत्म होती है जहां सेना और जनता के बीच मौजूदा मतभेद एक लोकतांत्रिक या समाजवादी क्रांति के जरिए नहीं बल्कि हार मान कर देश की जनता का भरोसा तोड़ने वालों की जिम्मेदारी तय कर हल की जाएगी. जैसा कि वो अंतिम दो पंक्तियों में कहते हैं:
माना नहीं है हम ने गलत बंदोबस्त को
हम ने शिकस्त दी है, हमेशा शिकस्त को
साहिर की अलग-अलग कविता जिनके शीर्षक मगर जुल्म के खिलाफ और हम सर-बा-कफ उठे हैं, स्पष्ट कविताएं हैं जिसमें वो अन्याय के अंत के लिए युद्ध को जरूरी बताते हुए उसका समर्थन करते हैं. कविता की शुरुआती पंक्तियां हैं:
हम अमन चाहते हैं मगर जुल्म के खिलाफ
गर जंग लाजमी है तो फिर जंग ही सही
ये कविता दिसंबर 1971 में लिखी गई थी, इसका संदर्भ दिए बिना कि कवि किस जंग की बात कर रहे हैं. लेकिन उपमहाद्वीप के इतिहास में इस तारीख का महत्व जानने और साहिर की कविताओं में छुपा अर्थ निकालने पर ये साफ हो जाता है कि साहिर किस तरफ हैं.
इसी कविता की अंतिम पंक्तियों में साहिर बताते हैं कि युद्ध क्यों जरूरी है:
ये जर की जंग है न जमीन की जंग है
ये जंग है बका के असूलों के वास्ते
साहिर के हृदय परिवर्तन का कारण क्या था?
दिलचस्प बात ये है कि ये कविता लिखने के सिर्फ छह साल पहले, पाकिस्तान और भारत ने 1965 में एक और विनाशकारी युद्ध लड़ा था जिसके परिणामस्वरूप एक साल बाद ताशकंद में शांति समझौता हुआ था. साहिर ने 1965 के युद्ध पर एक कविता, ऐ शरीफ इंसानों लिखी थी जिसमें युद्ध को लेकर उनकी प्रतिक्रिया 1971 के युद्ध की प्रतिक्रिया के एकदम विपरीत है.
पहले की कविता में साहिर स्पष्ट तौर पर सभी रूपों में युद्ध को खारिज करते हैं, उसे रक्तपात और शांति की हत्या बताते हैं. तो छह साल बाद साहिर के हृदय परिवर्तन का कारण क्या था? शायद हम कभी न जान सकें. हम सर-बा-कफ उठे कविता के बोल हैं:
हम अमन चाहते हैं मगर जुल्म के खिलाफ
गर जंग लाजमी है तो फिर जंग ही सही
जालिम को जो न रोके वो शामिल है जुल्म में
कातिल को जो न टोके वो कातिल के साथ है
हम सर-बा-कफ उठे हैं कि हक फतह-याब हो
कह तो उसे जो लश्कर-ए-बातिल के साथ है
इस ढंग पर है जोर तो ये ढंग ही सही
जालिम की कोई जात न मजहब न कोई कौम
जालिम के लब पर जिक्र भी इन का गुनाह है
फलती नहीं है शख-ए-सितम इस जमीन पर
तारीख जानती है जमाना गवाह है
कुछ कोर-बतिनों की नजर तंग ही सही
ये जर की जंग है न जमीनों की जंग है
ये जंग है बका के असूलों के वास्ते
जो खून हम ने नज्र दिया जमीनों को
वो खून है गुलाब के फूलों के वास्ते
और इस तरह से साहिर अपनी कविता का अंत करते हैं:
फूटेगी सुबह-ए-अमन लहू-रंग ही सही
गर जंग लाजमी है तो फिर जंग ही सही
खून में सनी कलमें
लेकिन जौन की फरियाद बेकार ही चली गई क्योंकि पाकिस्तान में दो बार और सेना ने तख्तापलट किया जिसे देखने के लिए जौन जिंदा थे. जहां तक भारत और पाकिस्तान की बात है साहिर की उम्मीद भी दूर की कौड़ी ही लगती है क्योंकि इस बीच दोनों देश कई बार युद्ध के मुहाने पर आए.
आज एक देश को विभाजित करने वाले और एक नए देश को जन्म देने के एक खूनी युद्ध के संकल्प के 50 साल से ज्यादा बीतने के बाद देशों को अपने कवियों की बात सुननी चाहिए, जो वहां की जनता की आवाज हैं और पंथ, विचारधारा जाति या नस्ल के आधार पर अपने नागरिकों के सैन्यकरण और क्रूरता से बचना चाहिए.
फासीवाद और युद्ध को आखिरकार लोकतंत्र और शांति की जगह लेनी चाहिए. और यह तभी होगा कि जिन परिस्थितियों ने अपनी पीढ़ी के दो सर्वश्रेष्ठ कवियों को ऐसी कविताएं लिखने के लिए प्रेरित किया-रक्त में डूबी हुई कलम-हमेशा के लिए समाप्त हो जाएगी.
रजा नईम एक पाकिस्तानी सोशल साइंटिस्ट, बुक क्रिटीक, अवार्ड विजेता ट्रांसलेटर और ड्रामेटिक रीडर हैं जो लाहौर के हैं. नईम वहां प्रोग्रेसिव राइटर्स असोसिएशन के अध्यक्ष भी हैं. उनसे razanaeem@hotmail.com पर संपर्क किया जा सकता है. यह एक ओपिनियन पीस है और इसमें व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट ना इसका समर्थन करता है, ना ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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