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राहुल गांधी को लेकर मैंने गलत नहीं कहा, भगवान राम के जीवन से मिसाल लेना गलत कैसे

भगवान राम से कथित तौर पर राहुल गांधी की तुलना के बाद आलोचना पर सलमान खुर्शीद का आलेख

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मीडिया लगातार मेरी खिल्ली उड़ा रहा है, क्योंकि उसे महसूस हो रहा है कि मैं राहुल गांधी में भगवान राम को देखता हूं. हैरानी की बात है कि मैं जिन लोगों को समझदार समझता था, वे भी इसे ‘चाटुकारिता’ मान रहे हैं. मैंने तो सिर्फ इतना कहा था कि राहुल गांधी उत्तर प्रदेश के हर हिस्से में नहीं जा सकते, इसलिए हम उनका संदेश पहुंचाने के लिए उनकी खड़ाऊं लेकर चल रहे हैं.

राहुल गांधी की भगवान राम से तुलना किए जाने पर हिंदी मीडिया जैसे पगला गया. मेरा मानना है कि भगवान राम के जीवन से उपमा लेना, हमारी भारतीय विरासत का हिस्सा है. क्या हम अपनी रोजमर्रा की बातचीत में लक्ष्मण रेखा नहीं खींचते? और अगर मैं कहूं कि वह भगवान थे, तो यह पक्की तौर पर एक उपमा ही होगी.
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रेटिंग का है सारा खेल

अगर हम किसी के मुरीद हैं, तो उसकी तारीफ में उपमाएं गढ़ते हैं. किसी अवतार के जीवन के प्रेरक प्रसंगों का उल्लेख करते हैं. ऐसे में क्या उस पुण्यात्मा का अपमान होता है? लेकिन टीआरपी से कौन लड़ सकता है?

अज्ञानियों को यह बताना जरूरी है कि उपमा, प्रसंग, आभास, रूपक, मुहावरे, कहावतें, रूपांतर, रूपक, भगवान के गुण तलाशने की कोशिश, इन सबका इस्तेमाल करना मुनासिब होता है. दुनिया वैसी नहीं हो सकती, जैसी आप सोचते हैं और सिर्फ न कहके, आप उसे वैसा नहीं बना सकते.

हो सकता है कि किसी नेता में ईश्वरीय गुणों को ढूंढना, चाहे असली हो या काल्पनिक, वाजिब बात न लगे. लेकिन ज्यादातर सभी महजब इनसान और भगवान के बीच के फर्क को कम से कम करने की कोशिश करते हैं. हिंदू धर्म में ‘कण कण में भगवान’ मौजूद हैं.

भक्ति आंदोलन की नींव में यह भाव है कि खुद को ईश्वर में डुबो लेना है. ऐसा ही सूफी भी कहते हैं. सूफीवाद कहता है कि ईश्वर में एकाकार होने के लिए व्यक्ति को अपनी पहचान को मिटा देना होगा.

सूफीवाद ईश्वर से एकात्मकता की बात कहता है

सूफी तत्व मीमांसा में वहादत या ईश्वर के साथ एक होने की बात मुख्य रूप से कही गई है.

वहादत-उल-वुजूद (अस्तित्व की एकता) में माना गया है कि ब्रह्मांड में एकमात्र सत्य ईश्वर है, और इस प्रकार, सभी चीजें ईश्वर के भीतर ही मौजूद हैं. दूसरी ओर वहादत-उल-शुहुद (प्रत्यक्षवाद, या प्रमाण की एकता), यह मानता है कि ईश्वर और दुनिया के बीच एकता का कोई भी तजुर्बा सिर्फ खुदापरस्त यानी आस्तिक के दिमाग में है. वरना ईश्वर और उसकी रचना अलग हैं. उस स्थिति में जब भगवान और उस इनसान के बीच कोई फर्क न हो, जो इस समझ को हासिल करना चाहता है तो ‘भगवान को छोड़कर कोई होता ही नहीं.’

इब्न अरबी ने फुसुस-अल-हिकम में सूफी तत्व मीमांसा के बारे में लिखा है. वह एकात्मकता को आइने के रूपक से समझाते हैं. वह कहते हैं कि खुदा और उसके बंदों के बीच का रिश्ता ठीक वैसे ही है, जैस अनगिनत आइनों में झलकने वाली चीजें. खुदा मरकज यानी सेंटर में है और उसके बंदे वे आइने जिनमें खुदा की अजमत यानी महानता दिखाई देती है. एक बार जब कोई इनसान यह मान लेता है कि उसके और भगवान के बीच कोई अलहदगी नहीं तो एकात्मकता की राह खुल जाती है.

सूफीवाद के मुताबिक, लतीफ-ए-सित्ता (छह बारीकियां) में नफ्स, कल्ब, सिर्र, रूह, खफी और अखफा शामिल हैं. ये लताइफ (एकवचन: लतीफा) अलग-अलग मनो-आध्यात्मिक "अंगों" या संवेदी और अति-संवेदी अवधारणाओं का हिस्सा होते हैं.

कुछ रहस्यवादियों का मानना है कि रूह या कल्ब "बातिन" (यानी अंदरूनी) या "गूढ़ आत्मा" होते हैं. उनका मानना है कि एक मजबूत रूह उन्हें खुदा के करीब लाती है. किसी रूहानी रहनुमा से मिलने वाली रूहानी तालीम से रूह मजबूत बनती है.
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वजूद की अलग-अलग अवस्था

हाल चेतना की एक अवस्था है जो एक आध्यात्मिक यात्रा यानी सुलुक के दौरान हासिल होती है- या तो भीतर से या फिर सुमिरन यानी धिक्र करने से. इनमें आनंद की अवस्थाएं (वज्द), हैरत (हैराह) भी शामिल हैं. लेकिन इनकी प्रकृति अस्थायी है, ज्यादा मायने रखता है मक़ाम या मंजिल- यानी आध्यात्मिक मार्ग की अवस्थाएं. सूफीवाद में मंजिल का शाब्दिक अर्थ अंतिम लक्ष्य है जोकि चेतना का स्तर है. अल्लाह की राह में सात मंजिले हैं. 

एक मकाम किसी की आध्यात्मिक अवस्था या विकास का स्तर है जो किसी के हाल या चेतना की अवस्था से अलग है. इसे ऐसे देखा जाता है कि कोई शख्स खुद को बदलने की कोशिश कर रहा है, जबकि हाल एक तोहफा है.

फना सूफी का एक अहम शब्द है जिसका मतलब है, विलुप्त हो जाना. इसके मायने है कि भौतिक रूप से जीवित रहने के बावजूद परमात्मा को महसूस करने के लिए खुद को मिटा देना. फना में गुनाह से बचना है और दिल में सिर्फ परमात्मा का प्रेम बसाना है- तब दिल में किसी दूसरे के प्यार के लिए जगह नहीं होती. इसका यह मतलब भी है कि लालच, वासना, इच्छा, घमंड, दिखावा कुछ भी न हो. फना की अवस्था में सच्चे और एकमात्र रिश्ते की सच्चाई बार-बार, अपने सच्चे होने का एहसास करती है और कहती है कि हमारा असली रिश्ता सिर्फ अल्लाह के साथ है.  

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फना के बाद बका आता है. बका का शाब्दिक अर्थ है, स्थायित्व या ठहराव. सूफीवाद में जब अल्लाह के साथ अंतिम जीवन को बका की अवस्था कहा जाता है. यह वह मंजिल है जो फना के बाद मिलती है. यह पूर्णता की अवस्था है, जिसे सूफी लोग बका कहते हैं. इस्लाम में इसे 'नजत', बौद्ध धर्म में 'निर्वाण', ईसाई धर्म में 'मोक्ष' और हिंदू धर्म में 'मुक्ति' कहा जाता है. यह सबसे ऊंची अवस्था है. सभी प्राचीन पैगम्बरों और संतों ने इसका अनुभव किया है और दुनिया को सिखाया है. बका परमात्मा के साथ संवाद की मूल अवस्था है.

यहां हम संत कबीर के भजन को याद कर सकते हैं जोकि सूफीवाद से कुछ अलग नहीं लगता.

मोको कहां ढूंढे रे बंदे,

मैं तो तेरे पास में.

ना तीरथ में ना मूरत में,

ना एकांत निवास में.

ना मंदिर में, ना मस्जिद में,

ना काबे कैलाश में.

ना मैं जप में, ना मैं तप में,

ना मैं व्रत उपवास में.

ना मैं क्रिया क्रम में रहता,

ना ही योग संन्यास में .

नहीं प्राण में नहीं पिंड में,

ना ब्रह्माण्ड आकाश में.

ना मैं त्रिकुटी भवर में,

सब स्वांसो के स्वास में.

खोजी होए तुरंत मिल जाऊं,

इक पल की ही तलाश में.

कहे कबीर सुनो भाई साधो,

मैं तो हूं विश्वास में.

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जब मीडिया या सियासी हस्तियां उन व्यंजनाओं को नहीं समझतीं, या समझने से इनकार करती हैं जो मैं सार्वजनिक भाषणों में अपने शब्दों से रचता हूं तो मैं हैरान होता हूं कि क्या हमें इतनी आसानी से इन लोगों के आगे हार मान लेनी चाहिए. हमारा धर्म उदात्त और दार्शनिक है और तुच्छ, स्वार्थी, संकीर्ण और अर्थहीन राजनैतिक फायदों के चलते उस पर खतरा मंडरा रहा है. क्या ईश्वर कभी हमें माफ करेगा.

(सलमान खुर्शीद एक सीनियर एडवोकेट, कांग्रेस पार्टी के नेता और पूर्व विदेश मंत्री रहे हैं. उनका ट्विटर हैंडिल @salman7khurshid. है. यह एक ओपिनियन पीस है और व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.)

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