मोदी मैजिक टूटेगा या टूटेगी कांग्रेस
आसिम अमला ने टेलीग्राफ में लिखा है कि केंद्र में एनडीए की जगह इंडिया के आने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता. हालांकि, इस तरह के चौंकाने वाले चुनावी उलटफेर की संभावना अभी कम लगती है. क्या बीजेपी 272 सीटों के बहुमत का आंकड़ा पार कर पाएगी? क्या कांग्रेस अपने दम पर 100 सीटें हासिल कर पाएंगी? इन दो सवालों के आईने में हम यथार्थवादी होकर चर्चा कर सकते हैं.
अगर बीजेपी को बहुमत मिलता है और कांग्रेस तीन अंकों की सीमा से नीचे आ जाती है तो यह लोकतांत्रिक संस्थानों के लिए विनाशकारी साबित हो सकता है. चुनाव के दौरान हम देख चुके हैं कि सत्तारूढ़ दल ने प्रधानमंत्री के नेतृत्व में न केवल अत्यधिक सांप्रदायिक बयानबाजी का सहारा लिया बल्कि गुप्त युद्धाभ्यास (गुजरात के सूरत से उत्तर प्रदेश के संभल तक) का भी सहारा लिया. स्थानीय पुलिस और नौकरशाही को सत्तारूढ़ दल के उकरण के रूप में उपयोग करने की इच्छा और भारत के चुनाव आयोग जैसी संस्थाओं की अपनी संवैधानिक भूमिका निभाने में असमर्थता ने खतरे की घंटी बजा दी है.
आसिम अमला लिखते हैं कि हमने बीजेपी के कॉरपोरेट और उच्च वर्ग के समर्थकों के बीच शासन के फासीवादीकरण की बढ़ती भूख भी देखी है, जो सामाजिक न्याय और समतावाद की दिशा में विपक्षी राजनीति से डरी हुई है.
केंद्रीय राजनीति में कांग्रेस की लगातार तीसरी हार इसके विघटन का मार्ग प्रशस्त करेगी, इसकी पूरी संभावना है. ऐसी स्थिति में इजरायल की तरह की राजनीति का पुनर्गठन देखने को मिल सकता है.
केंद्र में दक्षिणपंथी गुट और चारों ओर घूमती छोटी मध्यमार्गी पार्टियां. अगर बीजेपी पूर्ण बहुमत से नीचे आ जाए और कांग्रेस तीन अंकों की सीमा पार कर जाए तो एनडीए की सरकार बनने के बावजूद नतीजे को बीजेपी के पक्ष में मानने की भूल नहीं करनी चाहिए. मोदी की करिश्माई आभा को नुकसान होगा. उनकी शाही कार्यशैली पर रोक लगेगी. यह केंद्र में सत्ता परिवर्तन के अभाव में भी राष्ट्रीय राजनीति में आदर्श बदलाव का प्रतिनिधित्व करेगा.
तीन अंकों की सीमा पार कर कांग्रेस अपने पुनरोद्धार का संकेत देती दिखेगी. जनता दल सेक्युलर, जनता दल यूनाइटेड और बीजू जनता दल जैसी पार्टियों का भविष्य अनिश्चित होता दिख रहा है. तेलंगाना में भारत राष्ट्र समिति, दिल्ली में आम आदमी पार्टी और यूपी में बहुजन समाज पार्टी को भी इसी कतार में आने वाले समय में देख सकेंगे.
नई सरकार में महाराष्ट्र की भूमिका अहम
आदिति फडणीस ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि इसमे शायद ही मतभेद हो कि महाराष्ट्र 4 जून को आम चुनाव के नतीजे आने के बाद भावी सरकार में संतुलन बनाने की भूमिका निभाएगा. बीते दो लोकसभा चुनावों में बीजेपी ने 48 में से 42 और 41 सीटें हासिल की थी. 2019 में प्रधानमंत्री ने प्रदेश में 9 जनसभाओं को संबोधित किया था. इस बार यह संख्या 17 रही. इसके अलावा कई रोड शो भी किए. दो बार रात में यहां आकर रुके भी.
2019 में हुए विधानसभा चुनाव के बाद उद्धव ठाकरे ने बीजेपी का साथ छोड़ दिया और विपक्षी कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के साथ जा मिले. माना जाता है कि इस अलगाव की पटकथा शरद पवार ने लिखी.
फडणीस लिखती हैं कि अपमानित बीजेपी ने अंदर ही अंदर शरद पवार से हिसाब बराबर करने की टानी. उसने ऐसा ही किया और शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को दो फाड़ करके एकनाथ शिंदे को नया मुख्यमंत्री बनने में मदद की. अजित पवार भी अपने अंकल की छाया से निकलकर बीजेपी के साथ चले गये. इसका नतीजा महाराष्ट्र की राजनीति में उथलपुथल के रूप में सामने आया.
तमाम राज्यों के बीच नरेंद्र मोदी ने महाराष्ट्र में संविधान में बदलाव के मुद्दे पर सबसे अधिक बातें कीं. उन्होंने वादा किया कि अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के आरक्षण में कभी कमी नहीं की जाएगी.
उन्होंने विपक्ष पर आरोप लगाया कि वह इस आरक्षण का एक हिस्सा मुस्लिमों को देना चाहता है. परंतु, उनकी बात पर सभी विश्वास नहीं कर रहे. कांग्रेस को उम्मीद है कि गठबंधन के चलते विपक्षी मोर्चे को 32 से लेकर 39 सीटों पर जीत मिलेगी. अमित शाह ने 45 सीट जीतने की इच्छा रख दी है. यूपी की 80 सीट के बाद 48 सीट वाला महाराष्ट्र आम चुनाव की दृष्टि से महत्वपूर्ण है और पश्चिमी मोर्चे पर जीत सभी दलों के लिए बहुत मायने रखती है.
कमजोर हुई दुनिया पर अमेरिकी पकड़
बिजनेस स्टैंडर्ड में टीएन नाइनन लिख रहे हैं कि पश्चिमी देशों और शेष दुनिया के बीच बढ़ती प्रतिस्पर्धा के बीच यह स्पष्ट हो गया है कि अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी देश अब भी ताकतवर अवश्य हैं मगर दुनिया पर उनकी पकड़ कमजोर होने लगी है.
एशिया-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिकी नौसेना का दबदबा हुआ करता था मगर अब उसकी भूमिका चीन को रोकने तक सीमित रह गयी है. आर्थिक मोर्चों पर भी अमेरिका ने आक्रामक रवैया छोड़ दिया है और अब बचाव की मुद्रा में आ गया है. एक और ध्यान देने योग्य बात यह है कि यूक्रेन को पश्चिमी देशों से मिले समर्थन के बावजूद रूस के सैनिक लगातार आगे बढ़ रहे हैं. माओ ने काफी पहले कह दिया था कि पूरब से चलने वाली हवा की गति पश्चिमी दिशा से चलने वाली हवा से अधिक हो गयी है.
नाइनन लिखते हैं कि कई वर्षों तक पश्चिमी देशों के विश्लेषकों और पत्रकारों ने चीन और रूस दोनों को ही समझने में भूल की. रूस को आर्थिक रूप से कमजोर समझा गया और यह धारणा बना ली कि व्लादिमीर पुतिन के लिए राजनीतिक चुनौती उन्हें एक दिन किनारे लगा देगी. पुतिन को गंभीर बीमारी से भी ग्रस्त बता दिया गया. कयास लगाए गये कि एक न एक दिन चीन कमजोर पड़ जाएगा.
रूस ने पश्चिमी देशों के प्रतिबंधों का उम्मीद से कहीं बढ़कर मजबूती से सामना किया है और अब यूक्रेन में उनकी सेना नए इलाकों पर कब्जा कर रही है. पुतिन एक बार फिर राष्ट्रपति चुन लिए गये हैं.
हाल में अमेरिका ने चीन के कुछ उत्पादों पर शुल्क काफी बढ़ा दिया है मगर यह कदम दोनों देशों के बीच पूर्ण व्यापार युद्ध शुरू होने का संकेत नहीं दे रहा है. इसका कारण यह है कि अमेरिका द्वारा शुल्क में बढ़ोतरी उन उत्पादों पर की गयी है, जिन्हें चीन अमेरिका को बहुत अधिक नहीं बेचता है. ऐसी रक्षात्मक नीतियां पूर्व में दिखे आक्रामक अमेरिकी रवैये के विपरीत है.
क्या हो पीएम से इंटरव्यू का तरीके?
करन थापर ने हिन्दुस्तान टाइम्स में बताया है कि प्रधानमंत्री का साक्षात्कार कैसे किया जाना चाहिए. बीबीसी के अध्यक्ष समीर शाह जो करन थापर के पहले बॉस रहे हैं, के हवाले से कई बातें करन थापर बताते हैं जो उन्होंने सीखे थे. सबसे अहम यह है कि आप दर्शकों की ओर से साक्षात्कार कर रहे हैं. इसलिए प्रश्न प्रासंगिक होने चाहिए और आप को तब तक बने रहना चाहिए जब तक आपको उत्तर न मिल जाए या यह स्पष्ट रूप से साफ न हो जाए कि आपका विरोध किया जा रहा है.
लेखक सबसे पहले यह जानना चाहते हैं कि पीएम अपनी उपलब्धियां क्या मानते हैं. लेकिन, मैं यह भी जानना चाहता हूं कि वह चुनौतियों पर कैसे प्रतिक्रिया देता है, अपनी गलतियों को उजागर करता है और छिपाने की कोशिश करता है. चर्चा संवादात्मक हो, एकतरफा एकालाप नहीं हो.
करन थापर बताते हैं कि प्रधानमंत्री का साक्षात्कार उसके आलोचकों पर हमला करने का मंच नहीं होना चाहिए. वैध आलोचनाओं का जवाब मिलना चाहिए. पूरे इंटरव्यू के दौरान दोनों बराबर होते हैं. कोई छोटा या बड़ा नहीं होता. इसलिए ‘सर’ नहीं कहा जाना चाहिए. दर्शकों को यह विश्वास दिलाना होगा कि वह कठिन प्रश्न पूछ सकता है.
प्रधानमंत्री को उन मुद्दों पर बात करने की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए जो उनसे पूछे न गए हों. एक विनम्र लेकिन सशक्त व्यवधान आवश्यक है. साक्षात्कारकर्ता केवल पूछने के लिए सवाल नहीं पूछता. स्पष्ट उद्देश्य होना चाहिए. इस किस्म के प्रश्न कभी नहीं पूछे जाने चाहिए- “निश्चित रूप से आप इस बार जीतेंगे, लेकिन क्या आप 2029 भी जीतेंगे?”
करन थापर बताते हैं कि अगर कोई प्रधानमंत्री दावा करता है कि वह जो कुछ भी करता है देश के लिए करता है तो उन्हें बताएं कि यह सभी प्रधानमंत्रियों के लिए सच है. इससे आप विशेष नहीं हो जाते. अगर प्रधानमंत्री किसी ऐसी बात से इनकार कर रहे हों जो सबको पता है तो साक्षात्कारकर्ता को उद्धरण देने की स्थिति में होना चाहिए. अगर प्रधानमंत्री मानते हैं कि वह भगवान के अवतार हैं या निमित्त हैं तो उनसे पूछना चाहिए कि वह यह कैसे जानते हैं और क्या यह कहना तर्कसंगत बात है?
गरीबों और बहिष्कृतों की धुरी हो नई सरकार
पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि कांग्रेस के लोकसभा 2024 के घोषणापत्र में स्वीकार किया गया है कि पिछले कुछ वर्षों खासकर पिछले तीन दशक में भारत की अर्थव्यवस्था बढ़ी है. यह विकास बढ़ते मध्यवर्ग, उपभोक्ता वस्तुओं की प्रचुरता, हर हाथ में मोबाइल फोन, अच्छी अंतरराज्यीय सड़कें और शानदार मॉल, सिनेमा और शराबघरों में प्रकट हुआ है जो शहरी भारत के ‘टाउन स्क्वॉयर’ बन गए हैं.
दूसरी तरफ संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम यानी यूएनडीपी ने प्रति व्यक्ति प्रति माह 1286 रुपए (शहरी) और 1089 रुपये (ग्रामीण) की कमाई को गरीबी रेखा का पैमाना बनाया. इस आधार पर भारत में गरीबों की संख्या 22.8 करोड़ है. यह आकलन कम है. देश के 71 करोड़ लोगों के पास राष्ट्रीय संपत्ति का तीन फीसदी हिस्सा है और वे राष्ट्रीय आय का 13 फीसदी कमाते हैं. घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण (HCSE) का अनुमान है कि निचले पचास फीसदी लोगों की प्रति माह घरेलू खपत 3094 रुपए (ग्रामीण) और 2001 रुपए (शहरी) हैं. वैश्विक भूख सूचकांक में भारत का स्थान 125 देशों में 111वां है.
चिदंबरम लिखते हैं कि एचसीएसई के अनुसार गरीबों में ओबीसी औसत स्तर के करीब हैं और एससी और एसटी सबसे गरीब हैं. यह कोई हैरानी की बात नहीं कि आर्थिक कदम उस सामाजिक कदम को प्रतिबिंबित करता है जो हजारों वर्षों से देश में चला आ रहा है. सामाजिक कदम जाति पर आधारित है.
अत्यंत गरीब और अत्यंत उत्पीड़ित लोग न्यूनतम मजदूरी पर कड़ी मेहनत करते हैं. 15.4 करोड़ लोग मनरेगा के तहत सक्रिय, पंजीकृत श्रमिक हैं. उन्हें वर्ष में औसतम पचास दिन काम दिया जाता है. लेखक का मानना है कि जब तक राजनीतिक दल यह यह स्वीकार नहीं करते कि भारतीय राजनीति और अर्थव्यवस्था के दो सूचक हैं- जाति और असमानता, तब तक हम गरीबी, भेदभावऔर उत्पीड़न को जड़ पर प्रहार नहीं कर सकते. जून 2024 में चुनी जाने वाली नई सरकार का मार्गदर्शक सिद्धांत ‘गरीबों और बहिष्कृतों’ की धुरी होना चाहिए.
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