महाराष्ट्र (Maharashtra) में मुख्यमंत्री एकनाथराव शिन्दे (Eknath Shinde) की नयी सरकार संभवत: अगले दो दिनों में विश्वास मत हासिल कर राजनीतिक मान्यता प्राप्त कर लेगी. शिवसेना का राजनीतिक भविष्य भी इस विश्वास मत के साथ जुड़ा है यानी उद्धव ठाकरे (Uddhav Thackeray) वाली शिवसेना असली है या शिन्दे वाली सेना असली है यह भी तय हो जाएगा. इसमें कोई शक नहीं है कि दस दिनों तक चले राजनीतिक खेल में शिन्दे, भारतीय जनता पार्टी के कंधों पर चढ़ कर बढ़त पर हैं और वे इस बढ़त को कायम रखेंगे.
पिछले दिनों लगे राजनीतिक सदमे से ठाकरे अभी उबरे नहीं हैं और उसी सिलसिले में उन्होंने शुक्रवार को अपने निवास पर मीडिया से बातचीत की और लोकतंत्र के भविष्य पर चिंता जाहिर की. जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों की मनमानी पर वे खासे नाराज हैं और वे चाहते हैं कि मतदाताओं को अपने निर्वाचित प्रतिनिधि को वापस बुलाने का अधिकार मिलना चाहिए.
मतदाता और लोकतंत्र की दुहाई देते हुए ठाकरे कहते है कि देश में गुप्त मतदान प्रणाली है लेकिन मतदाता ने जिस प्रतिनिधि को चुनकर दिया है वह गुप्त रूप से कहां फिर रहा है यह मतदाता को मालूम नहीं होता है.इसलिए मतदाता को अपने प्रतिनिधि को वापस बुलाने का अधिकार मिलना चाहिए.
उनका सवाल है कि यदि माहिम (विधानसभा क्षेत्र) के मतदाता का मत (जनप्रतिनिधि) सूरत,गुवाहाटी,गोवा में घूम रहा हो और मतदाता को ही यह मालूम न हो वह मत (जनप्रतिनिधि) कहां से कहां घूमता फिर रहा है तो फिर देश में लोकतंत्र कहां है? उनका कहना है कि देश को आजाद होकर 75 साल पूरे हो गये हैं लेकिन लोकतंत्र की धज्जियां उड़ रही हैं. इसे रोका जाना चाहिए.
मतदाताओं के वोट को बाजार में बेचा जा रहा हो तो यह लोकतंत्र के लिए घातक है. जिन्होंने मत दिया है उसे बाजार में बेचा जाना गलत है. वे कहते हैं कि यदि इसे रोका नहीं गया तो मतदाताओं का लोकतंत्र से विश्वास उठ जाएगा.
लेकिन उद्धव ने भी तो पाला बदला था
लोकतंत्र की रक्षा के लिए ठाकरे की चिंता को इस समय दिखावे का विलाप से ज्यादा कुछ माना नहीं जाएगा क्योंकि 2019 में भारतीय जनता पार्टी के साथ चुनावपूर्व गठबंधन करने के बाद राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस के साथ महा विकास आघाड़ी बना कर सरकार गठित करने का उनका फैसला भी इसी विश्वासघात की श्रेणी में आता है.
आज पत्रकारों से बातचीत में वे महाविकास आघाड़ी बनाने के अपने फैसले को यह कह कर उचित बताते हैं कि मेरी और अमित शाह के बीच हुई चर्चा में यह निश्चित हुआ था कि शिवसेना और भारतीय जनता पार्टी मुख्यमंत्री पद का कार्यकाल बांट लेंगे. यदि ऐसा हुआ होता तो जो आज हुआ है वह सम्मान के साथ होता और ये ढाई साल भी गुजर जाते.
ठाकरे के अरण्यरोदन को एक तरफ रख भी दें तो भी यह सवाल वाजिब है कि मतदाताओं के साथ यह धोखाधड़ी करने वाले जनप्रतिनिधि किसी भी सजा से क्यों बच जाते हैं ? आखिर मताधिकार का प्रयोग करने के बाद मतदाता के हाथ में क्यों कुछ बचा नहीं रहता? वह बेबसी और लाचारी से क्यों यह सारा तमाशा देखने को मजबूर हो जाता है? उसे अपने जनप्रतिनिधि से यह सवाल पूछने का मौका क्यों नहीं मिलता कि वह क्यों अपना विचार बदल रहा है या क्यों खुद को बेच रहा है? मतदाता को यह हक मिलना ही चाहिए.
पार्टी में नया गुट बनाने वाले या दलबदल करने वाले जनप्रतिनिधि अपने फैसले को कथित वैचारिक और सैद्धांतिक आधार दे कर सही ठहराने का प्रयत्न करते हैं पर उनके दावे खोखले ही होते हैं. जब उन्हें उनके फैसले का मुआवजा या पारिश्रमिक मंत्री पद या अन्य किसी पुरस्कार के रूप में मिल जाता है उसी समय उनकी पोल खुल जाती है.
1952 में भारत में पहले आमचुनाव हुए थे.उस समय तत्कालीन मद्रास राज्य(आज का तमिलनाडु) में किसी को बहुमत नहीं मिला था. उस समय जोड़-तोड़कर सी. राजगोपालाचारी के नेतृत्व में सरकार बनायी गयी थी. राजाजी के नाम से लोकप्रिय इस नेता ने सामूहिक दलबदल को लोकतंत्र का सार बताते हुए कहा था कि यदि हम दलबदल करने की आजादी छीन लेंगे तो इसके गंभीर नतीजे हो सकते हैं.
उनका कहना था कि दलों के प्रति आस्था को कट्टर जाति प्रथा में बदलने नहीं देना चाहिए और इसका लचीलापन कायम रहना चाहिए नहीं तो परिवर्तन के लिए कोई स्थान नहीं बचेगा. इसी तरह केन्द्रीय विधि मंत्रालय का कहना था कि पार्टी बदलने के कारण किसी विधायक को अपात्र घोषित किया जाता है या उसका इस्तीफा अनिवार्य किया जाता है तो यह संविधान द्वारा दिये गये मूल अधिकारों के अनुच्छेद 19 के तहत संघ निर्माण और विचार की स्वतंत्रता के खिलाफ होगा.
इस कदम को संविधान के अनुच्छेद 105 और 109 के साथ भी जोड़ा गया जिसके अंतर्गत विधायकों और सांसदों को विधानसभा और संसद में भाषण और अभिव्यक्ति की आजादी के साथ ही अपनी मर्जी के मुताबिक मतदान करने की स्वत्रंतता दी गयी है. सिद्धांत के तौर पर यह बात ठीक है लेकिन व्यवहार में ऐसा हो नहीं रहा है.
1967 में दलबदल का नया और विकृत रूप सामने आया जिसने लोकतांत्रिक सिद्धांतों और परंपराओं को ध्वस्त कर दिया. 1967 से 1969 के दौर में विचारों और सिद्धांतों का वास्ता देकर दलबदलुओं ने इतने बार पाले बदले कि गिरगिट भी शर्मा जाता.
'आया राम-गया राम' का किस्सा
अधिकतर दलबदल सैद्धांतिक या जनहित के मुद्दों पर नहीं बल्कि मंत्रीपद या किसी अन्य प्रकार के प्रलोभन,नाते- रिश्तेदारों को कई तरह के लाभ दिलाने के लिए किए गए थे. हरियाणा के एक दलबदलू गया लाल की हिन्दी की सबसे बड़ी देन एक नया मुहावरा ‘गया राम,आया राम’ है. गया लाल हरियाणा की हसनपुर विधानसभा (सुरक्षित) क्षेत्र से निर्दलीय विधायक के रूप में चुने गए थे. बाद में वे सबसे पहले कांग्रेस में शामिल हुए.उसके बाद वे विशाल हरियाणा पार्टी में चले गए जिसका गठन राव बिरेन्द्र सिंह ने किया था. बिरेन्द्र सिंह ने खुद कांग्रेस छोड़कर अपनी पार्टी बनायी थी.
गया लाल ने एक ही दिन में 3 बार पार्टी बदली और तीसरी बार जब वे विशाल हरियाणा पार्टी में शामिल हुए तो बिरेन्द्र सिंह ने उन्हें पत्रकारों के सामने पेश करते हुए कहा था कि ‘गया राम अब आया राम हैं’.उस दिन से दलबदलुओं के लिए यह बात कही जाती है.
हरियाणा में एक और कारनामा मुख्यमंत्री भजनलाल ने किया था. वे जून 1979 में जनता पार्टी की सरकार के मुख्यमंत्री थे पर जब जनवरी 1980 में श्रीमती इंदिरा गांधी फिर प्रधानमंत्री बनीं तो भजनलाल रातोंरात अपने विधायकों और पूरी सरकार के साथ कांग्रेस में शामिल हो गए. सरकार भी बची रही और उनका मुख्यमंत्री पद भी कायम रहा. उस समय हरियाणा के अलावा मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश में बड़े पैमाने पर दलबदल के जरिए सरकारें बनायी गयीं.
आज विधायकों को भगाने, छिपाने, घुमाने-फिराने की जो बात उद्धव ठाकरे कह रहे हैं, उसकी शुरूआत 1984 में आन्ध्र प्रदेश से शुरू हुई.उस समय एन.टी. रामाराव (एनटीआर) मुख्यमंत्री थे. जब वे इलाज के लिए अमेरिका गए तो केंद्र में सत्तारुढ़ कांग्रेस ने उनके सहयोगी तथा वित्तमंत्री भास्कर राव को तोड़ लिया और उनकी सरकार बनवा दी. एनटीआर के दामाद चन्द्रबाबू नायडू ने तेलुगु देशम पार्टी के 163 विधायकों को एनटीआर के बेटे के फिल्म स्टूडियो में बंद कर दिया और मुख्यमंत्री भास्कर राव सहित सभी लोगों से उनका बाहरी संपर्क पूरी तरह तोड़ दिया. वे बाद में अपने विधायकों को दिल्ली ले गए और तत्कालीन राष्ट्रपति जैल सिंग के सामने उनकी परेड करायी. विपक्ष ने भी भारी हायतौबा की.नतीजा यह हुआ कि भास्कर राव की सरकार को बरखास्त कर एनटीआर सरकार की बहाली की गयी.
दलबदल कानून की ताकत पर संदेह
राजनीतिक अस्थिरता को दूर करने और दलबदल पर नियंत्रण करने के लिए 1985 में संविधान में 52 वें संशोधन के माध्यम से दलबदल विरोधी कानून लागू किया गया, लेकिन अब इसकी ताकत पर भी संदेह होने लगा है क्योंकि इसकी खामियों का लाभ उठाकर राजनीतिक दल या मौकापरस्त नेता अपना मतलब साध लेते हैं.यह कानून जनप्रतिनिधियों के अधिकारों, विधानसभा और संसद में उनकी कथित भाषण और अभिव्यक्ति की आजादी के साथ ही अपनी मर्जी के मुताबिक मतदान करने की स्वत्रंतता की रक्षा करता है लेकिन मतदाता के विचार, उसकी राय, उसकी निजी और दलीय पसंद के अधिकार के बारे में खामोश रहता है.
संविधानविद सुभाष कश्यप ने एक इंटरव्यू में इस कानून की उपयोगिता पर संदेह व्यक्त करते हुए इसे समाप्त करने की मांग करते हैं.उनका कहना है कि हमें राजनीतिक दलों और निर्वाचन व्यवस्था में सुधार के लिए कानून बनाने की बात सोचना चाहिए. वे कहते हैं-
“कानून के प्रभाव की चर्चा करने के बजाय जरूरी यह है कि महज सत्ता संघर्ष के माध्यम बने सभी राजनीतिक दल अपनी प्रभावी सार्थकता पर विचार करें और सैध्दांतिक प्रतिबद्धता से संचालित हों. कानून की अपनी सीमाएं है,कानून किसी को नैतिक रूप से प्रतिबद्ध नहीं बनाता है”
दलबदल कानून के प्रभावी होने के बारे में वे कहते हैं कि हमें यह देखना होगा कि आप सांसद या विधायक को जनता का प्रतिनिधि मानते हैं या राजनीतिक दल का प्रतिनिधि मानते हैं?
कश्यप का यह सवाल कि आप सांसद या विधायक को जनता का प्रतिनिधि मानते हैं या राजनीतिक दल का प्रतिनिधि मानते हैं, मतदाता के विवेक पर ही सवाल खड़ा करता है. मतदाता किसी राजनीतिक दल के प्रत्याशी को चुनता है तो भी उसके पास कोई विकल्प नहीं है और किसी निर्दलीय प्रत्याशी को चुनता है और वह किसी दल या गुट में चला जाता है तो भी मतदाता विकल्पहीन है.
मतलब यह है कि एक बार मतदान करने के बाद मतदाता का काम खत्म हो जाता है और चुना हुआ जनप्रतिनिधि अपनी मर्जी का मालिक हो जाता है. इस समय लोकतंत्र की यही सबसे बड़ी खामी है. लोकतंत्र पर 16, 32, 36 या दो तिहाई सदस्यों का ‘तंत्र’ हावी है जिसमें ‘लोक’ कहीं खो गया है.
निजी राजनीतिक महत्वाकांक्षा, आर्थिक और व्यापारिक हितों,परिवारवाद की गहराई में डूबे नेताओं और जनप्रतिनिधियों के चंगुल से लोकतंत्र और मतदाता को छुड़ाना समय की जरुरत है.यदि हम लोकतंत्र में ‘लोक’ को सबसे बड़ा मानते हैं तो जनमत के खिलाफ जाने की इच्छा रखने वाले राजनीतिक दलों के सांसदों, विधायकों या जनप्रतिनिधि को ‘तंत्र’ का लाभ न देते हुए उनसे इस्तीफा देने को कहा जाए. वे अपने विचार से चलने या अपने बदले विचार अथवा इरादे के लिए जनता से नया कौल ले.सिर्फ यही एक स्थिति है जहां मतदाता राजा होगा और जनप्रतिनिधि ‘राजा’ न होकर जनसेवक बना रहेगा.
(विष्णु गजानन पांडे महाराष्ट्र की सियासत पर लंबे समय से नजर रखते आए हैं. वे दैनिक हिंदी लोकमत समाचार, जलगांव संस्करण के रेजिडेंट एडिटर रह चुके हैं. आलेख में व्यक्त विचार लेखक के हैं और उनसे क्विंट का सहमत होना जरूरी नहीं है)
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