राजस्थान (Rajasthan) की पूर्व सीएम वसुंधरा राजे (Vasundhara Raje) का पूजा-पाठ के प्रति समर्पण उनके राजनीतिक जीवन का खुला अध्याय रहा है. राजस्थान के मुख्यमंत्री के रूप में अपने पहले कार्यकाल में, वो खुद तो नियमति अंतराल पर मंदिरों में मत्था टेकते तो नजर आती ही थीं, वसुंधरा राजे के समर्थकों ने उन्हें भगवान का दर्जा देने के लिए जोधपुर में एक मंदिर बनाने और यहां तक कि उनकी मूर्ति स्थापित करने की भी योजना बना ली थी. अब कि जब वसुंधरा राजे अपने गिरते राजनीतिक भाग्य को फिर से जगाने के लिए दैवीय चमत्कार की तलाश कर रही हैं, उनके धार्मिक दौरों ने एक बार फिर राजस्थान में राजनीतिक सरगर्मी तेज कर दी है. वसुंधरा राजे ने बीकानेर के प्रसिद्ध जूनागढ़ और देशनोक में करणी माता मंदिर सहित दो दिन में पांच बड़ी सभाएं कर डाली हैं.
दौरों को 'देव-दर्शन यात्रा’ नाम दिया गया और उनकी इस यात्रा के राजनीतिक संकेत को नजरअंदाज करना मुश्किल था. क्योंकि वसुंधरा राजे ने इस दौरान विभिन्न मंदिरों का दौरा किया और कई सार्वजनिक सभाओं को संबोधित किया. हालांकि राज्य का बीजेपी नेतृत्व और बीकानेर इकाई में कई नेता इससे दूर रहे. बावजूद इसके हर मौके पर भारी भीड़ देखने को मिली.
राजस्थान के पूर्व मंत्री कालीचरण सराफ, राजपाल सिंह शेखावत, यूनुस खान और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अशोक परनामी जैसे कट्टर वफादारों ने भीड़ को जुटाने का काम किया. साथ ही कई वर्तमान और पूर्व बीजेपी सांसद और विधायक भी यहां पहुंचे, जो वसुंधरा राजे की सार्वजनिक पहुंच को बढ़ा रहे थे.
गौरतलब है कि इस यात्रा के दौरान हुईं सभाओं में वसुंधरा राजे की कुछ टिप्पणियों से काफी हलचल मच गई है. वसुंधरा राजे ने कहा कि "उतार-चढ़ाव जीवन का हिस्सा हैं. मुझे कुछ भी आसानी से नहीं मिलता है और मुझे कड़ी मेहनत और संघर्ष करना पड़ा है. लेकिन करणी माता के आशीर्वाद के बाद अब मुझे कोई नहीं रोक सकता. जरूरत पड़ी तो हम फिर से लड़ेंगे"
वसुंधरा राजे के इस दावे को बीजेपी आलाकमान के लिए एक आक्रामक संदेश के रूप में देखा जा रहा है, जिसने 2018 के विधानसभा चुनावों में पार्टी की हार के बाद उन्हें किनारे कर दिया था. भले ही उनकी यह टिप्पणी वफादारों को सक्रिय करने के लिए हो, वसुंधरा राजे का यह अंदाज राजस्थान में बीजेपी की राजनीति के केंद्र में लौटने के उनके दृढ़ संकल्प को दर्शाता है.
बीजेपी आलाकमान को वसुंधरा राजे के वफादारों का संदेश साफ है
बीकानेर यात्रा कोई पहला मौका नहीं है जब राजे की किसी यात्रा को उनके वफादारों ने अपनी राजनीतिक शक्ति प्रदर्शन में बदल दिया हो. पिछले विधानसभा चुनावों में मिली हार के बाद कुछ वर्षों तक चुप रहने के बाद, राजे ने अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को आगे बढ़ाने के लिए धार्मिक दौरों को एक रणनीति के रूप में इस्तेमाल किया है.
इसकी शुरुआत पिछले साल भरतपुर डिवीजन में उनके जन्मदिन समारोह के साथ हुई, जहां वसुंधरा राजे ने बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व को पार्टी में अपने परिवार के योगदान के बारे में याद दिलाया था. अपनी मां के बारे में बात करते हुए, राजे ने दावा किया कि "राजमाता विजया राजे सिंधिया ने बीजेपी के कमल के फूल को मुरझाने नहीं देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. वह हमेशा राष्ट्रवाद से भरी थीं और उनके शरीर के रोम-रोम में बीजेपी थी. और मैं उसी मां की बेटी हूं”
इसके बाद 2021 के आखिर में, वसुंधरा राजे दक्षिण और मध्य राजस्थान के छह जिलों में गईं, जहां इसके 'गैर-राजनीतिक' दौरे होने के बावजूद, उन्होंने अपनी सभी सार्वजनिक सभाओं में राजनीतिक संदेश दिया. न केवल उनके आलोचकों ने, बल्कि तटस्थ पर्यवेक्षकों ने भी इसे राजनीतिक शक्ति प्रदर्शन के रूप में देखा. यहां तक कि इस साल 2022 में अपने 69वें जन्मदिन के मौके पर जब राजे ने एक मंदिर का दौरा किया और बूंदी जिले में एक विशाल जनसभा को संबोधित किया- उनका संदेश स्पष्ट था कि यह एक सुनियोजित राजनीतिक पहल थी.
इन धार्मिक दौरों पर वसुंधरा राजे का सीधा संवाद चाहे कितनी भी धीमी आवाज में हो, राजे की जनसभाएं उनकी लोकप्रिय अपील और राजनीतिक दबदबे के सबूत हैं. उनके समर्थकों और उनके संगठन 'वसुंधरा राजे समर्थ मंच' ने आलकमान के सामने अपना सन्देश रखने में कोई संदेह नहीं छोड़ा क्योंकि वे चाहते हैं कि राजे को 2023 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी के सीएम चेहरे के रूप में घोषित किया जाए. यही कारण है कि उनके आलोचकों ने राजे के वफादारों पर पार्टी के भीतर 'समानांतर सिस्टम' चलने और राज्य इकाई में गहरी दरार पैदा करने का आरोप लगाया है.
पार्टी के अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि वसुंधरा राजे के वफादारों और RSS गुट के बीच की दरार को पाटना शायद ही संभव हो. पिछले विधानसभा चुनावों में हार के बाद, बीजेपी के शीर्ष नेताओं ने न केवल वसुंधरा राजे को किनारे कर दिया था, बल्कि राज्य के सभी प्रमुख पदों को उनके प्रतिद्वंद्वियों के हाथों में सौंप दिया था.
'वसुंधरा राजे की बेजोड़ लोकप्रियता ही उनका राजनीतिक ट्रंप कार्ड है'
पिछले विधानसभा चुनावों में हार के बाद वसुंधरा राजे के RSS समर्थित विरोधियों- गुलाब चंद कटारिया और सतीश पूनिया को क्रमशः विधानसभा में विपक्ष का नेता और राज्य बीजेपी अध्यक्ष बनाया गया. जबकि उनके अन्य आलोचकों जैसे जोधपुर के सांसद गजेंद्र सिंह शेखावत और कोटा के सांसद ओम बिरला को मोदी कैबिनेट में जगह और लोकसभा अध्यक्ष की कुर्सी दी गयी थी.
यह सही है कि अब ये सभी नेता मुख्यमंत्री बनने के सपने देख रहे हैं और राज्य बीजेपी में मुख्यमंत्री पद के दावेदारों की सूची बढ़ गई है, लेकिन इनमें से कोई भी दावेदार राजे के विकल्प के रूप में नहीं उभरा है. इसका कारण है कि इसमें से कोई भी राजे की लोकप्रिय अपील या राजनीतिक कद को टक्कर नहीं देता है. इसका सबूत उन हारों से मिलता है जब विधानसभा उपचुनाव वसुंधरा राजे अलग रही थीं.
राजनीतिक पंडितों का मानना है कि राजस्थान में मोदी-शाह के समर्थन वाले किसी भी नेता में राजे के स्तर की लोकप्रियता नहीं है और आखिर में यही उनका तुरुप का पत्ता साबित हो सकता है.
क्या बीजेपी आलाकमान वसुंधरा राजे को रिप्लेस कर सकता हैं?
वसुंधरा राजे अपनी इन यात्राओं को धार्मिक दायरे में कर रही हैं ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि बीजेपी आलाकमान तक उनका इसपर विरोध न कर सके, क्योंकि खुद बीजेपी के लिए हिंदुत्व की राजनीति अहम रणनीति है. राजे को इसमें लाभ यह है कि उनके धार्मिक दौरों ने उन्हें राजनीतिक रूप से प्रासंगिक बने रहने, अपना लोकप्रिय आधार को जनता के साथ-साथ आलाकमान को दिखाने और सीएम के रूप में उनकी वापसी के अवसरों को बढ़ाया है.
उनकी यात्रा में एक लगा एक नया पोस्टर- "कहो दिल से, वसुंधरा फिर से" - यह स्पष्ट करता है कि राजे बीजेपी का सीएम चेहरा बनने के लिए अपनी दावेदारी पेश करने के लिए तैयार हैं, चाहे पार्टी के शीर्ष नेताओं को यह पसंद आए या नहीं.
सीएम के रूप में वसुंधरा राजे की वापसी के लिए उनके वफादारों की वकालत के बावजूद, बीजेपी नेतृत्व 2023 का चुनाव बिना सीएम चेहरे के और पीएम मोदी के नाम पर लड़ने के लिए दृढ़ दिख रहा है. मोदी और अमित शाह के साथ राजे के खराब रिश्ते को उनके हाशिए पर जाने के प्रमुख कारक के रूप में देखा जाता है, लेकिन बीजेपी के अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि मोदी-शाह की जोड़ी को भी अब एहसास हो गया है कि वे राजे के धैर्य की परीक्षा नहीं ले सकते.
ऐसे में लाख टके का सवाल यह है कि क्या बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व राजे की महत्वाकांक्षाओं के सामने झुकेगा या अगर राजे की नहीं चली तो क्या वे एक अलग गुट बनाएंगी?
जहां अशोक गहलोत-सचिन पायलट की नोकझोक अक्सर सुर्खियों में रही है, वहीं राजस्थान बीजेपी की अंदरूनी कलह भी कम गंभीर नहीं है. लेकिन अगर वसुंधरा राजे के धार्मिक-राजनीतिक दौरों से आते संकेत को देखें, तो राजे मैदान छोड़ने के मूड में नहीं हैं और लड़ाई के लिए पूरी तरह तैयार हैं. बीजेपी के भीतर की यह लड़ाई दिलचस्प है और अगले साल राजस्थान के चुनाव कैसे होंगे, इस पर इसका निर्णायक असर हो सकता है.
(लेखक अनुभवी पत्रकार और राजस्थान की राजनीति के एक्सपर्ट हैं. वे जयपुर में राजस्थान विश्वविद्यालय में पत्रकारिता के प्रोफेसर भी रहे हैं. उनका ट्विटर हैंडल @rajanmahan है. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)
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