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OPINION: लिंगायतों की अलग धर्म की मांग क्यों जोर पकड़ती रही है?

हिंदू धर्म को किसी एक ढांचे में नहीं बांधा जा सकता

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8 नवंबर, 1936. मुंबई में समता सैनिक दल की बैठक. बाबा साहेब आंबेडकर का उद्बोधन. बाबासाहेब ने कहा- “इंडिया अभी तक राष्ट्र नहीं बना है. इस देश में तकरीबन 4000 जातियां हैं. इसके अलावा जातिवाद, प्रांतवाद, धार्मिक मतभेद और दूसरे तरह के टकराव और झगड़े हैं जो देश को बांटते हैं. इन विभाजनकारी ताकतों के मद्देनजर ये कहना मुश्किल है कि इंडिया कभी भी एकजुट होगा.”

आज जब ये खबर आई है कि कर्नाटक राज्य सरकार ने लिंगायत को हिंदू धर्म से अलग नया धर्म बनाने की मान्यता दे दी है, तो बाबासाहेब का ये वक्तव्य बरबस याद हो आया. ये भी सोचने लगा कि आखिर इस की नौबत क्यों आई.

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बड़े आराम से कहा जा सकता है कि कांग्रेस की ओछी राजनीति इसके लिये जिम्मेदार है. कर्नाटक में कांग्रेस की सरकार है. वहां जल्द ही विधानसभा के चुनाव होने है. ये चुनाव कांग्रेस के लिए निहायत जरूरी है. 2019 की लड़ाई को जीतने के लिये, बीजेपी और मोदी को हराने के लिए.

लिंगायत कर्नाटक में 17% है और लगभग 100 सीटों को प्रभावित करते हैं. लिंगायत बीजेपी का सॉलिड वोटबैंक हैं. बीजेपी के नेता येदुरप्पा लिंगायतों के नेता माने जाते हैं. उनकी मौजूदगी कांग्रेस को थोड़ा अस्थिर करती हैं.  

सिद्दरमैया ने चाल चली

एक समय था जब लिंगायत कांग्रेस के साथ थे. तब बीजेपी का कर्नाटक में कोई अस्तित्व नही था. लेकिन 1990 में कर्नाटक के मुख्यमंत्री वीरेंद्र पाटिल को असमय बर्खास्त करने को लिंगायत कभी माफ नहीं कर पाए.

वीरेंद्र पाटिल लिंगायत थे.लिंगायतों को लगा कि राजीव गांधी ने जानबूझकर उनके नेता और समाज का अपमान किया. इस समाज ने बीजेपी में अपना राजनीतिक आशियाना तलाश लिया. अब अगर कांग्रेस को चुनाव जीतना है, तो बीजेपी से लिंगायतों के प्रेम पर डांका डालना होगा. लिहाजा सिद्दरमैया ने ये चाल चली.

हिंदू धर्म को किसी एक ढांचे में नहीं बांधा जा सकता
रविवार को मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने लिंगायत समुदाय के प्रतिनिधियों से मुलाकात की थी
(फोटो: PTI)
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लंबे समय से हिंदू धर्म से अलग अपनी पहचान की मांग

ये इस मुद्दे का अतिसरलीकरण है. तात्कालिक विश्लेषण. मुद्दा कहीं ज्यादा गहरा है. इस विभाजन के बीज कही और हैं. ये सच है कि लिंगायत समाज लंबे समय से हिंदू धर्म से अलग अपनी पहचान को तड़प रहा था.

12वीं शताब्दी में ब्राह्मण परिवार में पैदा हुये बासवन्ना ने लिंगायत समाज की स्थापना की थी. उनका परिवार भगवान शिव का उपासक था. पर बासवन्ना के शिव निराकार निर्गुण थे. साकार नहीं. वो पद्य के माध्यम से अपनी बातें कहते थे. जिन्हें लिंगायत “वचन” कहते हैं.

ये वो काल था जब भारत देश में भक्ति परंपरा का आविर्भाव हो चुका था. दक्षिण भारत में बासवन्ना इस परंपरा को तेज़ी से आगे बढ़ा रहे थे. बासवन्ना ब्राह्मणवादी व्यवस्था के खिलाफ थे. वो जाति व्यवस्था को नहीं मानते थे. स्त्रियों को बराबर का दर्जा देने के पक्ष में थे. पुनर्जन्म में यकीन नहीं था. वेदों में उनकी आस्था नहीं थी. कर्म को ही पूजा मानते थे.

उनका कहना था कि हर शख्स को अपने समय का कुछ हिस्सा समाज की सेवा में अर्पित करना चाहिये. उनके अनुयायी शिव की मूर्ति की जगह लिंग की पूजा करते हैं और आजीवन “ईस्टलिंग” की ताबीज पहनते हैं. उपनयन संस्कार की तरह लिंगधारण करने का पूरा विधिविधान है. बच्चा जब गर्भ में सात महीने का होता है तब ही “लिंगधारण” की पूजा संपन्न की जाती है. और पैदा होने के बाद नया ईस्टलिंग पहना दिया जाता है.

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ब्राह्मणवादी व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह

बौद्ध धर्म के भारत से पलायन करने के बाद ब्राह्मणवादी व्यवस्था अति जड़ता का शिकार हो गई. इस व्यवस्था में समानता की कोई गुंजाइश नहीं थी. जाति प्रथा को कड़ाई से लागू किया जाता था जहां दलितों और पिछड़ों को कोई अधिकार नहीं था, उन्हें जानवरों से बदतर करार दिया गया था. स्त्रियों को बराबरी का दर्जा हासिल नहीं था. वेदों को अंतिम सत्य माना जाता था. और जन्म के आधार पर कर्म की व्याख्या की जाती थी.

हिंदू धर्म को किसी एक ढांचे में नहीं बांधा जा सकता
बासवन्ना ने जातिप्रथा का विरोध किया
(फोटोः Twitter)
ऐसे में वासवन्ना का जातिप्रथा को खारिज करना, वेदों को अंतिम सत्य न मानना, स्त्रियों के लिये को बराबरी की बात करना, पुनर्जन्म को खारिज करना और कर्म को ही पूजा बताना पूरी ब्राह्मणवादी व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह था.

पर विजयनगर साम्राज्य के संरक्षण की वजह से लिंगायत समाज फलता फूलता गया. हालांकि बाद में टीपू सुल्तान के समय इन पर काफी अत्याचार भी हुआ. लेकिन हिंदू धर्म से अलग धर्म की मांग ने बीसवीं शताब्दी में ही जोर पकड़ा.

ये अनायास नहीं है कि ये वो वक्त था जब RSS के माध्यम से कट्टरपंथी हिूंदुत्ववादी अपनी पकड़ मजबूत करने में लगे हुये थे, और हैं, और जब केंद्र में RSS सत्ता में है, 22 राज्यों में वो सरकार में है तो लिंगायत हिंदू धर्म से अलग हो रहा है. घोषणा का जश्न मनाया जा रहा है.

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पेरियार पर प्रहार

ये महज इत्तफाक नहीं है कि तमिलनाडु में पिछले दिनों पेरियार की मूर्ति को खंडित करने की कोशिश की गयी और RSS के नेता एच राजा ने लेनिन की मूर्ति तोड़ने के बाद पेरियार की मूर्ति तोड़ने की धमकी दी. तमिलनाडु मे “थाली” यानी मंगलसूत्र पर आधारित एक टीवी कार्यक्रम की आड़ लेकर जो उपद्रव RSS के लोगों ने किया वो देश में अनेकता के समर्थकों के लिये खतरे की घंटी है.

पेरियार को तमिलनाडु में उसी नजर से देखा जाता है, जैसे देश में गांधी जी को. पेरियार ने ब्राह्मणवादी व्यवस्था के खिलाफ “सेल्फ-रेसपेक्ट आंदोलन” चलाया था. पेरियार ने मंदिरों में दलितों और पिछड़ों के प्रवेश की मुहिम बाबासाहेब आंबेडकर से पहले 1924 में छेड़ी थी.

जाति प्रथा खत्म करने की वकालत की. विधवा विवाह और अंतरजातीय विवाह पर जोर दिया. शादियों में ब्राह्मण पुजारियों के बहिष्कार का समर्थन किया. वो गैप हिंदी प्रदेश में हिंदी थोपने का विरोध करते थे. अंधविश्वास और मूर्तिपूजा के घोर विरोधी थे.

हिंदू धर्म को किसी एक ढांचे में नहीं बांधा जा सकता
द्रविड़ आंदोलन के संस्थापक ई. वी. रामासामी‘‘ पेरियार’’
(Picture: Commons/Chinchu.c) 

वो मानते थे कि उत्तरभारत के “आर्य” दक्षिण की “द्रविड़” संस्क्रति पर हावी होना चाहते हैं. इस बात को पुरजोर तरीके से रखने के प्रयास में 1955 में उन्होने भगवान राम की तस्वीर भी जलायी. पर अब बीजेपी के राष्ट्रीय सचिव एच राजा पेरियार को अंग्रेज़ों का पिठ्टू बता उन्हे देशद्रोही साबित कर रहे हैं.

राजा ने कहा - “पेरियार ने सिर्फ झूठ का प्रसार किया है. लार्ड मैकॉले ने उनका इस्तेमाल किया ... वो चाहते थे कि ब्रिटिंश लंदन से मद्रास पर शासन करे, और हिंदुओं पर हमले करते रहे. पेरियार देशद्रोही और अंग्रेजों के पिट्ठू थे .” पेरियार की मूर्ति के अपमान के बाद DMK नेता एम के स्टालिन ने राजा की गिरफ़्तारी की मांग की. राजा ने भी डर कर पेरियार वाला ट्वीट डिलीट कर दिया.

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पेरियार और बासवन्ना में समानता

पेरियार और बासवन्ना में अद्भुत समानता है. दोनों ही ब्राह्मणवाद के धुर विरोधी थे और गैरबराबरी पर आधारित जातिप्रथा को खत्म कर समतामूलक समाज की कल्पना करते थे. स्त्रियों और दलितों को समाज में सम्मान और बराबरी का दर्जा देना चाहते थे. इस बिंदु पर पेरियार बासवन्ना और बाबासाहेब आंबेडकर आ मिलते हैं.

बाबासाहेब कहते थे - “गैरबराबरी हिंदू धर्म का मूल है. इस का नीतिशास्त्र ऐसा है कि दलित कभी भी अपनी पूर्ण मर्दानगी को पा नहीं सकता.” इसलिये उन्होने कहा था कि मैं हिंदू पैदा तो जरूर हुआ हूं पर मरूंगा हिंदू नहीं.
हिंदू धर्म को किसी एक ढांचे में नहीं बांधा जा सकता
डॉ. भीमराव अंबेडकर, सन 1950 में.
(फोटो: विकीपीडिया कॉमंस)

बाबासाहेब के समर्थक आज भयंकर आक्रोश में है. रोहित बेमुला की आत्महत्या, ऊना मे दलितों की पिटाई, सहारनपुर में दंगा और दलित नेता चंद्रशेखर की गिरफ्तारी और भीमा कोरेगांव में दलितों पर हमले ने बीजेपी और RSS के खिलाफ दलितों के गुस्से को तेज कर दिया है. ये महज इत्तेफाक नहीं हो सकता है कि यही वो वक्त है जब हिंदुत्ववादियों की आक्रामकता और अहंकार आसमान छू रहा है और RSS के अलावा सारे प्रतीकों को धीर- धीरे खत्म करने की कोशिश की जी रही है.

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हिंदू धर्म की खूबसूरती उसकी अनेकता में है

दरअसल RSS हिंदू धर्म को एक “कल्ट” में बदलना चाहता है. हिंदू धर्म निर्बाध है, नैसर्गिक है, सतत है, स्वाभाविक है, उसे वो एक सोच में बाँध देना चाहता है. वो चाहता है कि हिंदू एक ऐसा धर्म बने जिसकी एक किताब हो, जिसका एक भगवान हो, जो एक तरह से सोचे और एक तरह से ही व्यवहार करे. खानपान भी एक हो, और वस्त्र आचार भी एक हो. यानी वो एकरूपी हो.

हिंदू धर्म की खूबसूरती उसकी अनेकता में है. वो शिव का भी उपासक है, और विष्णु का भी. वो पेड़ की भी पूजा करता है और पशु की भी. वो निराकार भी है और साकार भी. वो सगुण भी है और निर्गुण भी. वो सनातनी तो है ही पर अनन्त भी है और शून्य भी.

वो शंकराचार्य का ज्ञानमार्गी भी है और रामानुजाचार्य का भक्तिमार्गी भी. वो माया भी है और ब्रह्म भी. वो शिव भी है और पार्वती भी. वो क्रष्ण भी है और राधा भी. वो राम भी है और सीता भी. कण कण में है और कहीं नहीं भी.

हिंदू धर्म को किसी एक ढांचे में नहीं बांधा जा सकता
हिंदू शिव का भी उपासक है, और विष्णु का भी. वो पेड़ की भी पूजा करता है और पशु की भी
फोटो:Twitter

वो शाकाहारी भी है और मांसाहारी भी. वो विष भी पीता है और अमृत भी. वो नीलकंठ भी है और नरसिंह भी. वो नर है और नारायण भी और अर्धनारीश्वर भी. वो आकाश में भी है और पाताल में भी. वो लिंगायतों में भी है और वोक्कलिगा में भी.

वो आर्य भी है और द्रविड़ भी. वो एक है और अनेक भी. वो सब में है और किसी में भी नहीं. कश्मीर से कन्याकुमारी तक उसके इतने रूप है कि उसे किसी एक मूर्ति में समाया नहीं जा सकता. जिसकी एक तस्वीर नही हो सकती.

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RSS धर्म को अपनी मुठ्ठी में करना चाहता है

RSS ईश्वर को बांधना चाहता है. वो उसे अपनी मुठ्ठी में करना चाहता है. वो ये मानने को तैयार नहीं है कि हज़ारों साल से हिंदू धर्म में दलितों के साथ क्रूर अत्याचार किया गया, स्त्रियों को बराबरी का नहीं समझा गया. ब्राह्मणवाद ने पूरी व्यवस्था से समानता को बाहर कर दिया और हिंदू धर्म की पूरी इमारत को गैरबराबरी पर खड़ा कर उसे अमानवीय बना दिया.

RSS की क्या मजबूरी है कि वो जाति प्रथा को खत्म करने के लिये आंदोलन नहीं चलाता? वो राममंदिर आंदोलन तो करता है पर दलितों को बराबरी का हक दिलाने के लिये सड़क पर नहीं उतरता? वो ब्राह्मणवाद की आलोचना की कोशिश नहीं करता? वो ऐसा नहीं करता इसलिये जब बासवन्ना और लिंगायत बराबरीवाद की बात करेंगे तो RSS को कैसे बर्दाश्त होगा?
हिंदू धर्म को किसी एक ढांचे में नहीं बांधा जा सकता
RSS की क्या मजबूरी है कि वो जाति प्रथा को खत्म करने के लिये आंदोलन नहीं चलाता?
(फोटो: नीरज गुप्ता, द क्विंट)

राजनीतिक मजबूरी भले ही कुछ समय तक के लिये इन्हें शांत रखे. पर RSS की दिन पर दिन तीक्ष्ण होती आक्रामकता अनेकता में घर्षण पैदा करेगी. चिंगारी निकलेगी. विभिन्न समाजों में असुरक्षाभाव जगेगा. वो चाहे पेरियार के समर्थक हो या फिर बासवन्ना के या बाबासाहेब के, वे हिंदुत्ववाद के बरक्स नयी रणनीति बनाने के लिये विवश होगे.

हिंदू धर्म दुनिया का सबसे खूबसूरत धर्म है. लेकिन हर खूबसूरती में भी कुछ समय के बाद झाइयां पड़ जाती है. आज जरूरत इस खूबसूरती को संभालने की है. उसे बचाने की है. वक्त मुश्किल है पर बाबासाहेब के रास्ते पर चल कर ही रास्ता निकलेगा और उसी रास्ते पर असली राष्ट्र निर्माण होगा.

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