ADVERTISEMENTREMOVE AD

दुबई में ब्लैक लाइव्स मैटर पर घुटने टेकने वाली टीम देश में कट्टरता पर क्यों चुप?

अक्सर हमारे चहेते खिलाड़ी इन मामलों में चुप्पी साधे रहते हैं.

Published
story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा

रविवार को दुबई में एक अनोखा दृश्य था. भारत(India) की टी20 क्रिकेट टीम(T20 cricket team) घुटनों के बल बैठ गई... ब्लैक लाइव्स मैटर (BLM) के समर्थन में. इन लम्हों ने भारत के भीतर अन्याय और सामाजिक बुराइयों की तरफ लोगों का ध्यान खींचा. अक्सर हमारे चहेते खिलाड़ी इन मामलों में चुप्पी साधे रहते हैं.

जब अमेरिका के फुटबॉलर कोलिन केपर्निक ने अपने देश के राष्ट्रीय गान के दौरान घुटने टेके थे, तो उनके पेशेवर करियर के संकट में पड़ने की पूरी आशंका थी. वह मुसीबत में फंस सकते थे. यह हिम्मत और पक्के इरादे का मामला था. पर भारतीय क्रिकेटरों का घुटने के बल बैठना, एक अलग ही मिसाल कायम करता है. सामाजिक मुद्दों पर वे ज्यादातर खामोश रहते हैं. यह ठीक ऐसा ही है, कि अमेरिका के खिलाड़ी ब्लैक लाइव्स मैटर पर तो बयान देने से परहेज करें और ईरान में गैर बराबरी पर बहस-मुबाहिसा करें.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

लोकतंत्र की वकालत करना खिलाड़ियों के लिए नई बात नहीं

18 ग्रैंड स्लैम टाइटिल हासिल कर चुकी टेनिस स्टार मार्टिना नवरातिलोवा ने कोर्ट टूर्नामेंट्स के बाहर भी अपनी आक्रामकता नहीं छोड़ी है. दुनिया भर में मानवाधिकारों और सामाजिक न्याय की हिमायती मार्टिना अक्टूबर में दो बार भारत सरकार पर टिप्पणी कर चुकी हैं.

उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी से पूछा है कि क्या वह श्री राम सेना के उन सार्वजनिक भाषणों के खिलाफ बोलेंगे जिसमें मुसलमानों के साथ हिंसा करने के लिए लोगों को उकसाया गया है. यह संगठन संघ परिवार से जुड़ा हुआ माना जाता है. मार्टिना ने कहा, “क्या यह लोकतंत्र है, सच में? ट्रंप से बराबरी करने की कोशिश है, मुझे लगता है. लेकिन मोदी और ट्रंप काफी कुछ एक जैसे हैं, जैसा कि मैं देख सकती हूं... क्या मोदी इस शख्स और उसके भाषण के बारे में कुछ कहेंगे? मुझे इस बात पर शक है...”

मार्टिना ने साफ किया कि खेल के साथ उनका रिश्ता विकसित होता रहा है. उन्होंने कहा कि टेनिस “लोकतंत्र का विशुद्ध रूप है. मेरे लिए लोकतंत्र और टेनिस के बीच का रिश्ता सिंबायोटिक है, यानी दोनों एक दूसरे पर निर्भर हैं, जैसे मुर्गी और अंडे के बीच का रिश्ता.”

लेकिन खिलाड़ी किसी मुद्दे का समर्थन करें, यह कोई नई बात नहीं है. असली सितारे तो हमेशा चमकते हैं. वेस्ट इंडीज़ के तेज गेंदबाज माइकल होल्डिंग ने 2020 में स्काई न्यूज पर नस्लवाद पर तीखा बयान दिया था. उस समय बारिश ने खेल को धो दिया था लेकिन होल्डिंग की टिप्पणी से मानो पूरे आयोजन में बिजली कौंध गई थी. वैसे, इसके बाद स्काई न्यूज ने बाफ्टा पुरस्कार जीता था.

बॉक्सर मोहम्मद अली भी अमेरिकी-वियनतनाम युद्ध, नस्लवाद और पूर्वाग्रहों पर जब-तब टिप्पणियां किया करते थे और एक पूरी पीढ़ी में जोश भर जाता था. रंगभेद के दौरान खेल की दुनिया ने जिस तरह दक्षिण अफ्रीका का बहिष्कार किया, उससे यह एहसास मजबूत हुआ कि क्या स्वीकार किया जाना चाहिए और क्या नहीं.

क्योंकि खिलाड़ियों का लोगों पर बहुत असर होता है

खिलाड़ियों के अलावा कलाकार और फिल्मी सितारे भी कई मौकों पर सड़कों पर आम लोगों के साथ उतरे हैं. युद्ध के खिलाफ, या बराबरी की लड़ाइयों में अपनी बात पुरजोर तरीके से रखी है. समाज के दबे-कुचले लोगों के साथ खड़े होकर सरकार को, अपने दौर की ताकवतर विचारधारा को ललकारा है.

लेकिन खिलाड़ियों की बात कुछ अलग होती है. उनका जलवा और असर अलग तरीके से काम करता है. कई तानाशाह इससे हिल जाते हैं, जैसे जेसी ओवन्स के सोने के तमगों से हिटलर की आंखें चौंधिया गई थीं. 1936 के बर्लिन ओलंपिक्स में जेसी ने सोने के चार पदक जीतकर हिटलर का गुरूर तोड़ा था. उसके अद्भुत खेल ने पूर्वाग्रहों और प्रोपेगैंडा को मात दे दी थी.

खेल का मकसद, या खुद खेल ही मानव जाति की उत्कृष्टता का नमूना है. इसमें इंसान की कोशिश, संघर्ष करने की काबलियत, प्रतिस्पर्धी से नहीं, खुद से ही जूझने की हिम्मत, खिलाड़ी की शख्सियत को जादुई, करिश्माई बनाती है. वह लोगों के दिलो-दिमाग पर छा जाता है.

कहा जा सकता है कि भले ही स्टेडियम में दीवानी भीड़ खिलाड़ियों की जयजयकार करती है और दो टीमों की भिड़त को जंग की मानिंद लिया जाता है लेकिन असल में लोग खिलाड़ियों की प्रतिभा का ही लोहा मानते हैं- किस तरह उन्होंने अपने खेल को, खुद को बेहतर बनाया. एक खास मुकाम तक पहुंचने के लिए संघर्ष किया. हर हद को पार किया.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

भारतीय खिलाड़ी कट्टरता के खिलाफ क्यों नहीं बोलते

खिलाड़ियों को जो स्टारडम अपने खेल से मिलती है, वह उन्हें अपने प्रशंसकों से जोड़ती है. इसीलिए वे जो भी कहते हैं, उसका बहुत ज्यादा असर होता है. जब मोहम्मद अली युद्ध लड़ने से इनकार करते हैं, माइक बेअर्ली रंगभेद के खिलाफ कदम उठाने की अपील करते हैं, मार्टिना अन्याय के खिलाफ बोलती हैं, संगकारा क्रिकेट में भ्रष्टाचार पर सबका ध्यान खींचते हैं तो बहस को एक नया मोड़ मिलता है. चूंकि उनके पास ऐसा करने की ताकत होती है. वे सही-गलत की गाढ़ी लकीर खींच सकते हैं. जब वे ऐसा करते हैं तो खेल के मैदान में उनका खूबसूरत प्रदर्शन गौरवान्वित हो जाता है. उनके लिए इज्जत और बढ़ जाती है.

भारतीय खिलाड़ियों को बड़े पैमाने पर वाहवाही मिलती है. इसकी वजह सिर्फ उनकी खुद की कोशिशें नहीं होतीं, बल्कि भारतीय जनता भी उन पर प्यार लुटाती है. इसी से वे जानते हैं कि उनका कोई संदेश देना क्या मायने रखता है. वे जिस तरह तेल, कार, टायर और दूसरे प्रॉडक्ट्स बेचते और दर्शकों को ‘प्रभावित करते हैं’, उससे साफ है कि वे अपनी ताकत से पूरी तरह से वाकिफ होते हैं और उससे मुनाफा कमाने में खुशी भी महसूस करते हैं.

तो आला दर्जे के बड़बोले और शब्दों के महारथी खिलाड़ी सामाजिक बुराइयों, कट्टरता पर क्यों नहीं बोलते जो आज के दौर की सच्चाई है और जिसके चलते लोगों की जिंदगियां दांव पर लगी हुई हैं? यहां तक कि सामाजिक सौहार्द और भारत के सामाजिक ताने-बाने की हिफाजत करने की, उसे खेल की भावना से जोड़ने की कोशिश करने वाला एक छोटा सा संदेश भी नहीं दिया जाता. खेल की भावना ने ही उन्हें सितारों सा चमकीला बनाया है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

रिहाना के खिलाफ ‘इंडिया टुगैदर’, लेकिन सरकारी ज्यादतियों पर खामोश

खेल की दुनिया में बिशन सिंह बेदी जैसे अपवाद कम ही हैं जो सामाजिक मसलों पर अपनी राय देने से पीछे नहीं हटते. एक वाकया अनिल कुंबले की भलमनसाहत भी दिखलाता है, जब उन्होंने पूर्व सलामी बल्लेबाज वसीम जाफर का साथ दिया था. जाफर पर उत्तराखंड क्रिकेट एसोसिएशन ने ‘धार्मिक आधार पर खिलाड़ियों को चुनने’ का आरोप लगाया था. तब कुंबले उनके पक्ष में खड़े हो गए थे. वैसे ज्यादातर बड़े खिलाड़ी घरेलू मामलात पर बोलने से कतराते हैं और इस बात को अनदेखा नहीं किया जा सकता. ओलंपिक में सोना जीतने वाले नीरज चोपड़ा ने नफरत फैलाने वालों पर निशाना साधा था जब वे पाकिस्तान के साथी खिलाड़ी अरशद नदीम पर तंज कस रहे थे. तब अच्छा लगा था, लेकिन वह पाकिस्तान की बात थी. हां, जब भारतीय खिलाड़ी पर जुबानी हमले किए जाते हैं, तब हमारे लोग मुंह सिल लेते हैं.

यह भी खेल भावना ही कहलाएगा, अगर जनता के बीच लोकप्रिय और भरोसेमंद खिलाड़ी देश के सौहार्द और एकजुटता का पैगाम भी उसी मुस्तैदी से देंगे जैसे वे विज्ञापनों में माल बेचने के समय दिखाते हैं. अगर खिलाड़ी सत्तासीन सरकार की राजनीति को चुनौती देते हुए शांति और भाईचारे की बात करेंगे तो सरकार भड़क जाएगी और खिलाड़ियों की शामत आ जाएगी.

आखिरकार, हमने देखा है कि पॉप स्टार रिहाना ने जब किसान प्रदर्शनों के साथ एकजुटता दिखाई थी तब कितने ही खिलाड़ियों ने उसी समय हैशटैग इंडिया टुगैदर को टैग करते हुए मूखर्तापूर्ण पोस्ट किए थे. साफ था कि सरकार ने करोड़पति-अरबपति खिलाड़ियों को कोहनियां मार-मारकर ‘बोलने’ के लिए मजबूर किया था.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

‘टीम इंडिया’ के लिए खड़े होने का वक्त आ गया है

ऐसी बहुत सी संस्था जिनका काम यह है कि वे सभी भारतीयों के बुनियादी अधिकारों की रक्षा करें. बुनियादी अधिकार, कि उन्हें एक बराबर समझा जाए. लेकिन इन संस्थाओं से इतर, आइकन्स- लोगों के लिए आदर्श माने जाने वाले चेहरों की भी कुछ जिम्मेदारी बनती है. वे आदर्श इसीलिए माने जाते क्योंकि खेल भारतीय जन मानस की नब्ज हैं. जैसा कि माइकल होल्डिंग ने अपनी नई किताब वाई वी नील, हाउ वी राइज में कहा है- ‘अगर आप घुटनों के बल नहीं बैठते, तो मैं जानता हूं कि आप किस तरफ खड़े हैं.’

भारत के लोगों ने खिलाड़ियों को सितारा बनाया है. अब समय आ गया है कि खेल की दुनिया के आइकन्स, सुपरस्टार्स इस सवाल का जवाब दें कि क्या वे 1.3 करोड़ लोगों की असली ‘टीम इंडिया’ की तरफ से खड़े हो सकते हैं? क्या अब वे दिलेरी से देश की आवाम, भारत की असली आत्मा की जयजयकार करेंगे? क्या उनमें सीना ठोंककर यह कहने का हौसला है?

ADVERTISEMENTREMOVE AD

(लेखिका दिल्ली में रहने वाली पत्रकार हैं। उन्होंने बीबीसी और द इंडियन एक्सप्रेस सहित कई मीडिया संगठनों में काम किया है। वह @seemay पर ट्विट करती हैं। यह एक ओपिनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है)

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
अधिक पढ़ें
×
×