ADVERTISEMENTREMOVE AD

जॉर्ज फर्नांडिस: पादरी बनने से लेकर राजनीति छोड़ने तक के किस्से

जॉर्ज फर्नांडिस ने बतौर रक्षा मंत्री रक्षा क्षेत्र की पारंपरिक परिभाषा को बदल दिया

story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा

कर्नाटक के मेंगलुरू में 3 जुलाई 1930 को एक ईसाई परिवार में पैदा हुए जॉर्ज फर्नांडिस सही मायनों में एक राष्ट्रीय नेता थे जो पहचान की राजनीति से काफी ऊपर उठ गए थे. 16 साल की उम्र में जॉर्ज फर्नांडिस को क्रिश्चियन मिशनरी में पादरी बनने की ट्रेनिंग लेने के लिए भेज दिया गया था.

लेकिन ये देखकर उनका खून खौल गया कि एजुकेशन इंस्टीट्यूट में छात्रों के मुकाबले पादरियों को बेहतर खाना मिलता है. यहीं से अन्याय के खिलाफ खड़े होकर फर्नांडिस ने जो आवाज बुलंद की तो वही ताउम्र के लिए उनकी पहचान बन गयी. गरीबों के हक के लिए लड़ने वाले फर्नांडिस को उनके इसी जज्बे के लिए ‘‘गरीबों का मसीहा '' कहा जाने लगा.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

19 साल की उम्र में उन्होंने क्रिश्चियन मिशनरी में पादरी बनने की पढ़ाई छोड़ दी और मुंबई में जाकर यूनियन नेता बन गए. वो साउथ बांबे से संसद के सदस्य रहे और कई सालों तक बिहार के मुजफ्फरपुर और नालंदा से कई बार संसद सदस्य के रूप में चुने गए.

रेल हड़ताल ने उन्हें घर-घर तक पहुंचाया

जॉर्ज फर्नांडिस भारत के उन तेजतर्रार यूनियन नेताओं में से एक थे जो सड़कों से लेकर सत्ता के गलियारों तक पहुंचने के बावजूद अपनी विचारधारा से अलग नहीं हुए और ताउम्र समाजवादी कार्यकर्ता बने रहे. तमाम मुश्किलात के बावजूद सच का दामन नहीं छोड़ने वाले नेता फर्नांडिस ने 1970 के दशक में यूनियन लीडर के तौर पर देश में रेलवे की पहली हड़ताल बुलाई, लेकिन बाद में उन्होंने खुद रेल मंत्री की कमान संभाली. रेलवे की हड़ताल ने फर्नांडिस का नाम घर-घर तक पहुंचा दिया था.

फर्नांडिस को सबसे पहले एक यूनियन लीडर के रूप में पहचान 1974 की रेलवे की हड़ताल ने दी. इस हड़ताल से पूरा देश ठहर गया था. इतना ही नहीं, उद्योग मंत्री के नाते उन्होंने 1977 में कोका कोला और आईबीएम जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को हिंदुस्तान से अपना बोरिया बिस्तर समेटने पर मजबूर कर दिया था. 

जिसे भ्रष्टाचार छू तक नहीं पाया..

अपनी समाजवादी विचारधारा के बावजूद, फर्नांडिस उद्योग मंत्री बने. इतना ही नहीं राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के प्रति गहरा अविश्वास और छत्तीस का आंकड़ा होने के बावजूद उन्होंने बीजेपी के साथ गठबंधन किया. उम्र भर उनकी छवि एक ऐसे नेता की रही जिन्हें भ्रष्टाचार छू तक नहीं गया था लेकिन इसे विधि की विडंबना ही कहा जाएगा कि अपने एक करीबी सहयोगी के खिलाफ लगे भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते उन्हें रक्षा मंत्री के पद से इस्तीफा देना पड़ा था.

फर्नांडिस के पाक साफ दामन पर तहलका रक्षा घोटाले का दाग ऐसा लगा कि वो हिल गए. इसमें उनकी करीबी सहयोगी जया जेटली पर आरोप लगा था कि उन्होंने रक्षा बिचौलिये से रिश्वत का लेनदेन किया. हालांकि ये रक्षा बिचौलिया असल में तहलका पत्रिका का खुफिया रिपोर्टर था. इस कांड के चलते फर्नांडिस को रक्षा मंत्री के पद से इस्तीफा देने को मजबूर होना पड़ा.

मंत्री बनने के बावजूद कुर्ते पायजामे नहीं छोड़ा

जॉर्ज फर्नांडिस ने बतौर रक्षा मंत्री रक्षा क्षेत्र की पारंपरिक परिभाषा को बदल दिया
फर्नांडिस ने बतौर रक्षा मंत्री 30 से ज्यादा बार सियाचिन का दौरा किया था.
(फोटो: ट्विटर)

आमतौर पर फर्नांडिस बिना इस्त्री के कुर्ते पायजामे और चप्पल पहने नजर आते थे. उनका व्यक्तित्व बनावट से कितनी दूर था, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सत्ता में रहने और महत्वपूर्ण मंत्री पद संभालने के बावजूद उन्होंने अपनी पहचान बन चुके कुर्ते पायजामे को नहीं छोड़ा. सैनिकों के लिए उनके दिल में अथाह सम्मान और कर्तज्ञता की भावना थी और बतौर रक्षा मंत्री उन्होंने 30 से ज्यादा बार सियाचिन का दौरा किया था.

पाकिस्तान नहीं, चीन है भारत का दुश्मन नंबर 1

अक्सर वो क्रिसमस के दौरान जवानों को बांटने के लिए केक लेकर जाते थे. उन्होंने बतौर रक्षा मंत्री रक्षा क्षेत्र की पारंपरिक परिभाषा को बदल दिया और अपने पारंपरिक दुश्मन पाकिस्तान से हटाकर अपना ध्यान चीन पर केंद्रित करते हुए उन्होंने चीन को भारत का ‘‘नंबर एक '' दुश्मन करार दिया था.

फर्नांडिस को अंग्रेजी, हिंदी, कन्नड़, कोंकणी और मराठी पर महारत हासिल थी और लोगों से जुड़ने में उनके भाषाई ज्ञान की विविधता ने अहम भूमिका अदा की.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

हथकड़ी पहने फर्नांडिस

तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1975 में आपातकाल लगा दिया था. फर्नांडिस धुर कांग्रेस विरोधी नेता थे और आपातकाल के दौरान लोकतंत्र को बहाल करने के लिए उन्होंने जी तोड़ मेहनत की और एक बड़ी हस्ती बनकर उभरे. आपातकाल के दौरान हथकड़ी लगे हाथ को ऊपर उठाए हुए उनकी तस्वीर उस जमाने की सच्चाई को बयां कर रही थी और ये तस्वीर काफी फेमस हुई.

जॉर्ज फर्नांडिस ने बतौर रक्षा मंत्री रक्षा क्षेत्र की पारंपरिक परिभाषा को बदल दिया
आपातकाल के दौरान हथकड़ी पहने फर्नांडिस
(फोटो: ट्विटर)

सालों तक फर्नांडिस के सहयोगी रहे केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान उन्हें याद करते हुए बताते हैं, ‘‘लोकतंत्र के प्रति उनकी प्रतिबद्धता तमाम संदेहों से परे थी, अपने सच को आगे बढ़ाने के लिए किसी भी हद से गुजर जाने की उनकी इच्छाशक्ति आपातकाल के दौरान, न सिर्फ उनके लिए बल्कि बहुत से अन्य नेताओं के लिए भी प्रेरणास्रोत थी. ''

कोका कोला और IBM को भारत से अलविदा कहना पड़ा

श्रीमती गांधी ने जब 1977 में चुनाव कराए तो फर्नांडिस ने जेल में रहते हुए भारी बहुमत से मुजफ्फरपुर से लोकसभा चुनाव जीता. बड़ौदा डायनामाइट मामले में उनकी भूमिका के लिए उस समय उन्हें जेल की सजा सुनायी गयी थी. कांग्रेस चुनाव हार गयी और फर्नांडिस जेल से रिहा हो गए.

जनता पार्टी की अगुवाई वाली सरकार में उन्हें उद्योग मंत्री बनाया गया और तुरंत ही उन्होंने कोका कोला और आईबीएम के लिए फरमान जारी कर दिया कि वो अपने भारतीय उद्यम में 40 फीसदी से ज्यादा शेयर अपने नाम पर नहीं रख सकते. लेकिन कंपनियों ने इस फरमान को नहीं माना जिसका नतीजा ये हुआ कि उन्हें अपना कामकाज बंद कर भारत को अलविदा कहना पड़ा.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

BJP-RSS की विचारधारा को पसंद नहीं करते थे फर्नांडिस

केंद्र की गठबंधन सरकार के समय, कई सत्ताधारी घटकों के साथ उनके संबंध मधुर नहीं थे जिनमें बीजेपी को भी वो उसकी हिंदू विचारधारा और आरएसएस के साथ जुड़ाव के चलते पसंद नहीं करते थे. लेकिन 1990 के दशक में ये जॉर्ज फर्नांडिस ही थे जिन्होंने भगवा पार्टी से हाथ मिलाया और अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई में बीजेपी को दो बार सत्तासीन करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की. वाजपेयी सरकार में वह रक्षा मंत्री बने. उनके राजनीतिक गणित को कुछ लोग राजनीतिक अवसरवाद के रूप में भी देखते हैं.

40 राजनेताओं के जीवन पर आधारित किताब, ‘‘फेसेस, फोर्टी इन दी फ्रेृ'' में राजनीतिक टिप्पणीकार जनार्दन ठाकुर कहते हैं, ‘‘अस्तित्व की लड़ाई फर्नांडिस की पहली प्राथमिकता होती थी .''

1967 में फर्नांडिस ने फिर की धमाकेदार एंट्री

जॉर्ज फर्नांडिस ने बतौर रक्षा मंत्री रक्षा क्षेत्र की पारंपरिक परिभाषा को बदल दिया
1990 के दशक में ये जॉर्ज फर्नांडिस ही थे जिन्होंने भगवा पार्टी से हाथ मिलाया
(फोटो: ट्विटर)

फर्नांडिस ने 1967 में बाम्बे साउथ लोकसभा सीट से संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के रूप में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता एसके पाटिल को हराकर धमाकेदार तरीके से राजनीति में एंट्री की थी. ऐसा भी माना जाता है कि उन्होंने नीतीश कुमार को राज्य में 1995 के विधानसभा चुनाव के बाद बीजेपी की अगुवाई वाले गठबंधन के करीब लाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी. नीतीश भी फर्नांडिस की तरह ही बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद से किनारा करने लगे थे.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

विवादों से भरी रही निजी जिंदगी

फर्नांडिस की निजी जिंदगी विवादों से खाली नहीं रही. समता पार्टी में उनकी सहयोगी जया जेटली उनके साथ आकर रहने लगीं. उस समय उनकी पत्नी लैला कबीर और बेटा अमेरिका में थे. उन्होंने आरोप लगाया कि फर्नांडिस के भाइयों ने जया के साथ मिलकर उनकी संपत्ति और राजनीतिक विरासत को हड़पने की साजिश रची थी. ये मामला अदालत तक पहुंचा जहां से उनकी पत्नी और बेटे के पक्ष में फैसला आया. दोनों ने फर्नांडिस को अपनी देखरेख में ले लिया.

अल्जाइमर बीमारी की चपेट में फर्नांडिस

उस समय तक फर्नांडिस अल्जाइमर बीमारी की चपेट में आ चुके थे. इस बीमारी के चलते वो अपने आसपास की घटनाओं को समझने में नाकाम थे. करीब एक दशक तक वो सार्वजनिक जीवन से दूर रहे. उनके परिवार के लोग नयी दिल्ली के पंचशील पार्क इलाके में स्थित घर में ही उनकी देखभाल करते थे.

लेकिन उनका राजनीतिक कैरियर उसी समय खत्म हो गया था जब उन्होंने जनता दल यूनाइटेड द्वारा टिकट नहीं दिए जाने पर मुजफ्फरपुर से निर्दलीय के रूप में चुनाव लड़ा था. अल्जाइमर बीमारी के कारण जेडीयू ने उन्हें उम्मीदवार नहीं बनाया था. लेकिन उनके निर्वाचन क्षेत्र की जनता ने उन्हें नकार दिया. इसके बावजूद वो राज्यसभा सदस्य के रूप में संसद पहुंच गए. एक साल बाद वो राज्यसभा से भी विदा हो गए. इसके बाद वह कभी सक्रिय राजनीति में नहीं लौटे.

(इनपुट: भाषा)

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

Published: 
सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
अधिक पढ़ें
×
×