पा रंजीत (Pa Ranjith) देश के पहले ऐसे दलित फिल्ममेकर (Dalit filmmaker) हैं जो कमर्शियली सफल हुए हैं. रंजीत अपनी फिल्मों और डॉक्यूमेंट्री में दलित किरदारों को बतौर हीरो (नायक) दर्शाते हैं, वे मुख्यत: उन जातिगत उत्पीड़न व भेदभाव को उजागर कर रहे हैं, जिनको लेकर देश में कानून (भेदभाव के विरुद्ध मौजूदा कानून) तो हैं लेकिन फिर भी उसका ठीक ढंग से पालन नहीं हो रहा है. डॉ भीमराव अम्बेडर को अपना साहस मानने वाले रंजीत ने दक्षिण भारत के तमिलनाडु राज्य में एक सम्पन्न कल्चरल सेंटर बनाया है जिसका उद्देश्य पहले "अछूत" माने जाने वाले दलित समुदाय (Dalit community) को सशक्त बनाना है.
फिल्म इंडस्ट्री में बतौर फिल्ममेकर पा रंजीत इस साल एक दशक पूरा कर रहे हैं.
रंजीत इस साल बॉलीवुड में भी डेब्यू करने वाले हैं. उनकी आने वाली फिल्म एक दलित लीडर पर आधारित है.
पिछले महीने ही रंजीत ने कान्स फिल्म फेस्टीवल में अपना डेब्यू किया था.
रंजीत ने 2012 में फिल्म अट्टाकथी (Attakathi) से डायरेक्टर के तौर पर शुरुआत की थी.
रंजीत न केवल डायरेक्टर हैं बल्कि वे राइटर और प्रोड्यूसर भी हैं.
2018 में आई फिल्म "काला" ब्लॉकबस्टर रही है. "मद्रास", "विक्टिम" और "सरपट्टा परंबराई" जैसी फिल्मों के लिए भी रंजीत ने अपनी पहचान बनाई है.
युवा दलित राइटर्स और कवियों के लिए पब्लिशिंग यूनिट स्थापित करने वाले रंजीत ने एंटी-कास्ट बैंड और एक यू-ट्यूब चैनल भी स्थापित किया है जिसमें दलितों के जीवन और उनके खान-पान के बारे में शो दिखाए जाते हैं.
मां जाति बताने से मना करती थी लेकिन रंजीत दलितों के लिए ही डायरेक्टर बने
वाशिंगटन पोस्ट की खबर के मुताबिक पा रंजीत की मां अक्सर उनसे अपनी जाति का खुलासा न करने की बात करती थी. लेकिन इसके बावजूद रंजीत ने उस क्षेत्र में कदम बढ़ाया जिसमें कुछ ही लोग ही आगे बढ़े थे. उन्होंने अपने काम से दलितों को पहचान देना शुरु किया, कुछ ही वर्षों में रंजीत ने ऐसी फिल्में बनाई हैं जिसमें दलितों से जुड़े मुद्दे प्रमुखता से उठाए गए हैं.
फिल्म इंडस्ट्री में पा रंजीत ने जब 2006 में कदम रखा था, तब उनसे कहा गया था कि वे अपने बैकग्राउंड (पृष्ठभूमि) और पहचान के बारे में किसी से कुछ न बोले. इससे भी ज्यादा इस बात पर जोर दिया गया था कि वे यह खुलासा न करें कि वे दलित हैं.
तमिल फिल्म इंडस्ट्री में आने से पहले पा रंजीत ने फिल्मों में अपने लोगों (दलितों) को पर्दे पर शराबी, मूर्ख, गुंडे और गांव के बेवकूफों के तौर पर देखा था. लेकिन रंजीत की फिल्मों में वंचित समाज से आने वाला उनका किरदार हालात का मारा, परास्त और लाचार नहीं दिखता.
द प्रिंट को दिए गए इंटरव्यू में पी रंजीत ने बताया था कि "मैंने फिल्मों को डायरेक्ट करने का निर्णय इसलिए किया था क्योंकि मेरी (दलितों की) जीवनशैली, मेरे लोगों और मेरे स्थान को रीप्रेजेंट नहीं किया जा रहा था." उन्होंने सवाल करते हुए कहा था कि "आजादी के इतने साल बीत जाने के बाद भी मुख्यधारा में दलितों के लिए कहां जगह है? खासकर कलाओं और सांस्कृतिक आंदोलनों में दलित कहां हैं?"
फिल्मों का रास्ता कैसे चुना?
रंजीत का जन्म 1982 में चेन्नई के एक कमरे वाले अपार्टमेंट में हुआ था, वह अपार्टमेंट एआईएडीएमके के संस्थापक एम.जी. रामचंद्रन की एक योजना के अंतर्गत बनाया गया था. बचपन से ही रंजीत भेदभाव से जुड़े सवाल करते थे जैसे कि दुकानदार ने छुट्टे उनके हाथ में क्यों नहीं दिया? या फिर उन्हें अलग से पानी क्यों दिया गया?
रंजीत ने एनिमेशन के क्षेत्र में कॅरियर बनाने के लिए मद्रास फाइन आर्ट्स कॉलेज में एडमिशन लिया था. लेकिन वह अपने बड़े भाई प्रभु से काफी प्रभावित थे, जोकि दलित संगठन से जुड़े वकील थे. प्रभु ने ही रंजीत को अम्बेडकर से रूबरू करवाया था. जब रंजीत कॉलेज में थे तब उन्होंने एक फिल्म चैंबर ज्वॉइन किया था और वहां उन्होंने काफी वैश्विक सिनेमा देखा.
अपने एक इंटरव्यू में रंजीत ने बताया था कि 2002 की फिल्म सिटी ऑफ गॉड (City of God) उनके निर्देशन को काफी प्रभावित किया था. इसके अलावा वे बर्डमैन (2014), फैंड्री (2013), बैटल ऑफ अल्जीयर्स (1966) और पाराशक्ति (1952) से भी प्रभावित रहे हैं.
इंडियन एक्सप्रेस को दिए गए इंटरव्यू में रंजीत ने कहा था कि कॉलेज के दिनों में मैंने सैंकड़ों फिल्में देखी थीं, उन्हीं में से एक थी ईरानी फिल्म निर्माता माजिद मजीदी की चिल्ड्रेन ऑफ हैवन (1997). यह एक अहम पड़ाव था मेरे जीवन का, मैंने उस फिल्म का सबटाइटल नहीं पढ़ा था क्योंकि मेरी अंग्रेजी काफी खराब थी. लेकिन मुझे अच्छी तरह याद है कि इसे देखकर मैं खूब रो रहा था. यह एक चिंगारी की तरह थी, जिसके बाद मैंने एक निर्देशक की तरह सोचना शुरु किया.
द वायर को दिए गए इंटरव्यू में रंजीत ने अपने फेवरेट डायरेक्टर के बारे में कहा था कि उन्हें बर्डमैन बनाने वाले एलेजांद्रो गोंजालेज, द रेवेनेंट के अमोरेस पेरोस और इनके अलावा आंद्रेई टारकोवस्की और स्पाइक ली की फिल्में पसंद हैं.
रंजीत ने 2006 में थगपंसमी नामक एक फिल्म में सहायक निर्देशक के रूप में शुरुआत की थी. उन्हें पहला ब्रेक तक मिला था जब उनके दोस्त मणि ने रंजीत को न्यूकमर प्रोड्यूसर सी.वी कुमार से मिलवाया था. उस समय सी.वी. कुमार एक ट्रैवल एजेंसी के मालिक थे इन्होंने 2012 में रंजीत की पहली फिल्म अट्टाकथी को प्रोड्यूस किया था.
उनकी फिल्म तब और बड़ा वेंचर बन गई जब तमिल इंडस्ट्री के एक प्रमुख स्टूडियो (स्टूडियो ग्रीन) बोर्ड में शामिल हुआ और फिल्म डिस्ट्रीब्यूशन के राइट्स खरीद लिए. स्टूडियो ग्रीन ने ही उनकी अगली फिल्म मद्रास को प्रोड्यूस किया, जिसके बाद अभिनेता सूर्या ने उनसे कोलैबरेशन के लिए अप्रोच किया था.
10 साल के अब तक के छोटे से फिल्ममेकर करियर में जाति के बारे में उनके दृष्टिकोण के लिए रंजीत को सराहा गया और इसके साथ ही उनकी निंदा भी की गई है.
निंदा के बारे में बात करते हुए रंजीत ने इंडियन एक्सप्रेस को दिए गए इंटरव्यू में कहा था कि “जब जाति या उत्पीड़ित के बारे में कोई गैर-दलित बात करता है, तो उसे क्रांतिकारी के रूप में देखा जाता है. वहीं जब मैं ऐसा करता हूं, तो मेरी दलित पहचान के कारण इसे जातिवाद के तौर में बताया जाता है." उन्होंने यह भी कहा था कि "मैं केवल दलितों को चुनकर फिल्म इंडस्ट्री में काम नहीं कर सकता हूं. लेकिन चूंकि मैं दलित लोगों के लिए मुखर हूं इसलिए मेरे हर काम को जाति के चश्मे से देखा जाता है."
फिल्मों से ही नहीं डॉक्यूमेंट्री, लाइब्रेरी, यूट्यूब और अन्य तरीकों से लोगों तक पहुंच रहे हैं
पा रंजीत लोगों तक उनकी अपनी ही भाषा में बात करते हुए पहुंचने पर विश्वास रखते हैं. वे फिल्मों के माध्यम से ही नहीं बल्कि कई अन्य जरियों जैसे किताबों, शॉर्ट फिल्म्स, म्यूजिक, जर्नलिज्म, फिल्म फेस्टिवल समेत अन्य कई माध्यमों से कई लोगों तक पहुंच गए हैं.
इस साल रंजीत फिल्म इंडस्ट्री में 10 साल यानी एक दशक पूरा कर रहे हैं. अप्रैल में उन्होंने दलित इतिहास माह (Dalit History Month) मनाते हुए सैकड़ों आर्ट्स फेस्टिवल का आयोजन किया था. यह फेस्टिवल उसी तर्ज पर मनाया गया था जैसे अमेरिका में ब्लैक हिस्ट्री मंथ मनाया जाता है. हाल ही में पिछले महीने उन्होंने कान्स फिल्म फेस्टिवल में डेब्यू किया है.
एक निर्देशक होने के साथ-साथ रंजीत प्रोड्यूसर भी हैं. हाल ही में उन्होंने राइटर मूवी लॉन्च की है जोकि पुलिस फोर्स में होने वाली जातिगत क्रूरता पर केंद्रित है. वह फिल्ममेकर सोमनाथ वाघमारे की चैत्यभूमि भी प्रस्तुत करेंगे जो उनका आगामी प्रोजेक्ट है. इस डॉक्यूमेंट्री में उस जगह से जुड़ी है जहां डॉ. बी.आर. अम्बेडकर का अंतिम संस्कार किया गया था. रंजीत के प्रोडक्शन हाउस का नाम नीलम प्रोडक्शन्स है. उनका प्रोडक्शन हाउस नए लेखकों को 'नीलम फेलोशिप' भी प्रदान करता है, जहां चयनित प्रत्येक व्यक्ति को प्रति माह 75,000 रुपये मिलते हैं. उनका नीलम सोशल के नाम से यूट्यूब चैनल भी है. रंजीत के बैंड का नाम 'द कास्टलेस कलेक्टिव' है. यह बैंड 2017 में बनाया गया था. उनके द्वारा शुरु किए गए ऑनलाइन प्लेटफार्म का नाम 'मीरारिवु' है. इसमें वह न्यूज कवर की जाती है जो मुख्यधारा का मीडिया कवर नहीं करता.
रंजीत के प्रोडक्शन हाउस का ऑफिस अन्य ऑफिसों की तरह नहीं है, यहां आपको चारो तरफ फिल्मी पोस्टर नहीं दिखेंगे. यहां इंट्रेंस पर एक बड़ी सी बुकशेल्फ है जिसमें अम्बेडकर के चित्र और कार्टून हैं इसके साथ ही बुद्ध की प्रतिमाएं हैं.
चेन्नई में जहां अधिकांश फिल्म स्टूडियो मौजूद हैं वहां रंजीत ने कूगाई लाइब्रेरी का निर्माण किया है. तमिल में "कूगई" का मतलब होता है "उल्लू" और इसी नाम से एक लोकप्रिय उपन्यास भी है जो जातियों पर हाेने वाले अत्याचार के बारे में है.
लोगों से जुड़ने के लिए उनकी ही भाषा चाहिए
इंडियन एक्सप्रेस को दिए गए एक इंटरव्यू में भाषा को लेकर बात करते हुए रंजीत ने कहा था कि "सिनेमा में हमें लोगों से जुड़ने के लिए उस मुख्यधारा की भाषा सीखनी होगी. अगर मेरी फिल्म मेरी भाषा बोलती है, तो यह लोगों तक नहीं पहुंचेगी. किस भी लोकप्रिय फिल्म निर्माता को पहले दर्शकों से जुड़ना होता है और उन्हें बताना होता है कि वह उनसे अलग नहीं हैं. मेरी भाषा उन फिल्मों, पात्रों और जीवन से मिलती-जुलती है, जिन्होंने अब तक उनका मनोरंजन किया है."
अम्बेडकर ताकत और साहस हैं
द वायर को दिए गए इंटरव्यू में रंजीत ने कहा था कि जब मैं दलित कैरेक्टर के बारे में लिखता हूं तो सबसे पहले इन कहानियों में खुद को रखता हूं और यह सवाल करता हूं कि समाज में मैं कहां खड़ा हूं? किसी और भी ज्यादा मेरे लिए सबसे बड़े आदर्श बाबासाहेब यानी डॉ भीमराव अम्बेडकर रहे हैं. जब उन्हें लगा कि वे (गांधी और कांग्रेस) दलितों के मुद्दों को संबोधित नहीं करते हैं तो बाबासाहेब ने गांधी और कांग्रेस का विरोध किया. मैंने उन्हें प्रेरणा के रूप में देखा है. मुझे हिम्मत अम्बेडकर से मिलती है. अम्बेडकर ब्राह्मणवादी व्यवस्था में बुद्ध के समायोजन की बात करते हैं. उन्होंने यह भी बताया कि किस तरह से गहरे रंग की त्वचा को एक संकेतक बनाया जाता है, कैसे जीवन शैली ने हमें वेदों की कहानियों में खलनायक बना दिया है.
रंजीत के बैकड्राॅप्स और सेट उनके संदेश को घर तक पहुंचाने का काम करते हैं जैसे कि सरपट्टा परंबराई में बुद्ध और अम्बेडकर के प्रतीक दिखते हैं, काला में पेरियार और महात्मा फुले की मूर्तियां हैं. वहीं काला में रजनीकांत बुद्ध की पूजा करते हुए दिखते हैं.
वाशिंगटन पोस्ट की रिपोर्ट में कहा गया है कि "हिंदू धर्म की भेदभावपूर्ण सामाजिक व्यवस्था के निचले पायदान पर दलित हैं. इस व्यवस्था में व्यक्ति का स्थान उसके जन्म के साथ ही निर्धारित हो जाता है. दलितों को शादी में घोड़ी चढ़ने या मूंछे बढ़ाने को लेकर ऊंची जातियों के गुस्से व हिंसा का शिकार होना पड़ता है. दलितों को अक्सर घर ढूंढने, बुनयादी सुविधाओं तक अपनी पहुंच बनाने और जाति से बाहर शादी करने को लेकर संघर्ष करते हुए देखा जा सकता है. वे अभी भी सीवर और सेप्टिक टैंक को हाथ से साफ करने के लिए मजबूर हैं."
काला से मिली बड़ी सफलता अब बॉलीवुड डेब्यू की ओर
पा रंजीत को सुपर स्टार रजनीकांत स्टारर फिल्म काला से काफी पहचान मिली थी. यह फिल्म काफी हिट थी. रंजीत की सरपट्टा परंबरई को भी खूब सराहा गया है. इस फिल्म की कहानी एक बॉक्सर पर आधारित है जो अपने समुदाय के आत्म सम्मान की लड़ाई लड़ता है. इससे पहले की फिल्मों की बात करें तो मद्रास (2014) एक राजनीत पर केंद्रित फिल्म थी. कबाली (2016) में श्रम अधिकार और काला (2018) में भूमि सुधार दिखाया गया, इन दोनों में ही रजनीकांत ने काम किया.
रंजीत के प्रोडक्शन हाउस की डॉक्यूमेंट्री की बात करें तो उसमें "लेडीज एंड जेंटमैन, डॉ शू मेकर, द लास्ट बम ऑफ WWII और परियेरम पेरुमल."
आगे क्या?
इस समय करण जौहर के धर्मा प्रोडक्शंस के साथ रंजीत की बात परियेरम पेरुमल फिल्म का हिंदी रीमेक बनाने को लेकर चल रही है. वहीं वे आदिवासी स्वतंत्रता सेनानी बिरसा मुंडा पर एक फिल्म के साथ बॉलीवुड डेब्यू करने वाले हैं. इस प्रोजेक्ट की घोषणा हो चुकी है. रंजीत मराठी फिल्म निर्माता नागराज मंजुले के साथ भी काम करना चाहते हैं. वे मराठी, मलयालम और तेलुगु प्रोजेक्ट्स में काम करना चाहते हैं.
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