29 नवंबर,2021 को नरेंद्र मोदी सरकार (Narendra Modi Government) के खेती कानूनों ने दम तोड़ दिया. ताबड़तोड़ रिपील बिल पास करके उन्हें कागजों में दफन कर दिया गया.
एक साल पहले संसद में बिल पास करके, कृषि कानून लाए गए थे, हालांकि यहां ‘पारित’ सही शब्द नहीं है. खास तौर से यह देखते हुए कि इन बिल्स को कैसे तूफानी तरीके से लाया गया था. राज्यसभा में वॉयस वोट तो काफी संदेह पैदा करने वाला था.
हालांकि संसद में शर्मनाक हंगामे से पहले ही इन पर सवाल खड़े होने शुरू हो गए थे, जब उन्हें जून 2020 में अध्यादेश के तौर पर जारी किया गया था.
वैसे उस समय हर वह रीति अपनाई गई थी जिसके जरिए कोई अध्यादेश जारी होता है. लेकिन सवाल यह था कि अध्यादेश के जरिए ये कानून लाए गए थे, और वह भी तब, जब इन्हें लाने की कोई जल्दी नहीं थी.
महामारी के बारे में कुछ अस्पष्ट सी दलील देने के अलावा मोदी सरकार कभी यह साफ नहीं कर पाई कि खेती कानूनों को अध्यादेश के तौर पर लाने की उसे क्या जल्दी थी. वह भी, जब संसद सत्र सिर्फ तीन महीने में होने वाला था.
हालांकि यह कोई हैरानी की बात नहीं है. पिछले कई सालों से कई सरकारों ने ऐसे कानून लाने के लिए अध्यादेशों का इस्तेमाल किया है. कभी इसमें उनका निहित स्वार्थ रहा है, कभी उन्हें लगा है कि अगर संसद में इस पर बहस होगी तो काफी गहमागहमी हो जाएगी.
हाल ही में 2 अध्यादेशों पर उठे सवाल
अब हाल ही के दो नए अध्यादेश भी देख लीजिए. हाल ही में प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) के डायरेक्टर्स के कार्यकाल को बढ़ाने के लिए दो नए अध्यादेश लाए गए.
नए अध्यादेशों में रिटायरमेंट के बाद डायरेक्टर्स को एक-एक साल का एक्टेंशन देने की इजाजत दी गई है, और वह भी कई बार, यानी उन्हें पांच साल का कार्यकाल और मिल जाएगा.
मोदी सरकार का स्पष्ट तर्क यह है कि इससे इन महत्वपूर्ण जांच एजेंसियों के डायरेक्टर्स को सुरक्षित कार्यकाल मिलेगा ताकि वे अपना काम बेहतर तरीके से कर पाएं. यूं सुप्रीम कोर्ट की बदौलत ईडी और सीबीआई के डायरेक्टर्स को कम से कम दो साल का कार्यकाल मिलता है, इसलिए सैद्धांतिक रूप से, कार्यकाल को और भी ज्यादा सुरक्षित बनाना एक अच्छी बात होगी.
इस पर बहस होनी चाहिए कि क्या असल में अध्यादेश यही करते हैं. चूंकि वे कार्यकाल के एक्सटेंशन की गारंटी नहीं देते. सरकार डायरेक्टर के कामकाज का आकलन करेगी और फिर उसे एक्सटेंशन देगी, वह भी एक सीमित समय के लिए.
लेकिन हम इस मुद्दे पर फिर कभी बात करेंगे- फिलहाल हम सरकार को बेनेफिट ऑफ डाउट देते हैं. मानकर चलते हैं कि इन अध्यादेशों को सचमुच इसलिए लाया गया था ताकि डायरेक्टर्स को सुरक्षित कार्यकाल मिल सके. वे अपना काम अच्छी तरह से कर सकें. यानी ये अध्यादेश जनहित में लाए गए थे.
लेकिन यह साफ नहीं है कि अध्यादेशों के जरिए ऐसे महत्वपूर्ण कानूनी बदलाव क्यों किए गए.
अब कोई पूछ सकता है कि इस छोटी सी बात पर इतना बड़ा हंगामा क्यों किया जा रहा है? अगर जनहित का कोई मुद्दा है तो उस पर कानून लाने के लिए अध्यादेश क्यों जारी नहीं किया जा सकता?
असल में बात यह है कि भारत को एक संसदीय लोकतंत्र माना जाता है. इसका मतलब यह है कि कानूनों को संसद या राज्य विधानसभा (यानी विधानमंडल) में पास होना चाहिए, न कि केंद्र या राज्य में मौजूद सरकार (यानी कार्यपालिका) के जरिए.
अध्यादेश हमारे लोकतंत्र की इस मूलभूत विशेषता को दरकिनार करता है. इसके तहत राष्ट्रपति या राज्यपाल को किसी कानून को लागू करने का मौका मिलता है, जोकि बेशक कार्यपालिका की सहायता और सलाह (यानी निर्देशों पर) से काम करते हैं.
हां, कोई फिर से पूछ सकता है कि संविधान तो खुद अध्यादेशों को जारी करने की इजाजत देता है?
• क्या संविधान के अनुच्छेद 123 में राष्ट्रपति को यह शक्ति नहीं दी गई है कि जब संसद सत्र न चल रहा हो तो वह अध्यादेश को जारी कर सकते हैं?
• क्या संविधान के अनुच्छेद 213 में खास तौर से राज्यपाल को यह शक्ति नहीं दी गई है कि जब राज्य में विधानसभा (या जहां विधान परिषद भी हो) का सत्र न चल रहा है तो वह अध्यादेश को जारी कर सकते हैं.
जब संसद सत्र नहीं चल रहा था तो मोदी सरकार का दो अध्यादेश लाना क्यों गलत है?
इसका सीधा सा जवाब यह है कि इस अद्भुत ताकत का यहां इस्तेमाल करने की कोई खास वजह नहीं थी.
अध्यादेशों को सामान्य हालात में इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए. अनुच्छेद 123 और 213, दोनों में साफ लिखा है कि राष्ट्रपति/राज्यपाल को इस शक्ति का इस्तेमाल तब करना चाहिए जब "तत्काल कार्रवाई" करना "आवश्यक" माना जाता है.
23 मई, 1949 को जब संविधान सभा में अध्यादेश की शक्तियों पर बहस हो रही थी, तब कई सदस्य अध्यादेशों की ताकत पर फिक्रमंद थे.
डॉ बीआर अंबेडकर ने उनकी चिंता पर कहा था कि इससे यह तय होगा कि सरकार "ऐसी स्थिति से निपट सकती है जो अचानक और तुरंत पैदा हो सकती है". उनका कहना था कि इस शक्ति का इस्तेमाल "इमरजेंसी" में किया जाना चाहिए जब कानून बनाने की नियमित प्रक्रिया का सहारा नहीं लिया जा सकता.
1986 में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने डीसी वाधवा मामले में फैसला सुनाते समय ऐसा ही कहा था कि एक अध्यादेश को जारी करने की शक्ति अनिवार्य रूप से एक असाधारण स्थिति में उपयोग की जाने वाली शक्ति है और इसे "राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए विकृत करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है.
अब 15 नवंबर को ऐसी कौन सी ‘असाधारण स्थिति’ थी जिसके तहत ईडी और सीबीआई डायरेक्टर्स के कार्यकाल को बढ़ाने वाले अध्यादेश जारी करने जरूरी थे? जब संसद सत्र सिर्फ दो हफ्तों में होने वाला था, तब ऐसी ‘तत्काल कार्रवाई’ करनी जरूरी क्यों थी? वह ‘इमरजेंसी’ क्या थी जिनसे निपटने के लिए ये अध्यादेश जारी किए गए थे?
सच्चाई यह है कि अध्यादेशों की तुरंत कोई जरूरत नहीं थी. ऐसा कुछ नहीं था जो 15 नवंबर और 29 नवंबर (जब संसद का मौजूदा सत्र शुरू होना था) के बीच होने वाला था जिसे हम इमरजेंसी कह सकते हैं.
इस साल सितंबर में सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले में साफ किया कि ऐसे एक्सटेंशन देने में कुछ भी गलत नहीं है. यह मामला कॉमन कॉज नामक एनजीओ ने फाइल किया था जिसमें आरोप लगाया गया था कि यह शक्तियों का दुरुपयोग है.
हालांकि एपेक्स कोर्ट ने कहा कि नियमित रिटायरमेंट की उम्र का होने के बाद ईडी डायरेक्टर के पद पर रहने वाले शख्स को थोड़े समय के लिए ही एक्सटेंशन दिया जाना चाहिए. चूंकि मिश्रा जल्दी ही रिटायर होने वाले थे, इसलिए अदालत ने ज्यादा दखल न देने का फैसला किया.
फिर भी जजों ने अपने फैसले में कहा: “हमने साफ किया है कि दूसरे प्रतिवादी (यानी एस के मिश्रा) को और एक्सटेंशन नहीं दिया जाएगा.”
मोदी सरकार की एसके मिश्रा को ईडी डायरेक्टर के तौर पर रखने की चाहत- किसी भी वजह से (आप जरा पिछले तीन वर्षों के दौरान ईडी द्वारा दायर/जांच किए गए मामलों को देखें) - किसी भी हालत में इमरजेंसी या असाधारण स्थिति नहीं मानी जा सकती है जिसके लिए अध्यादेश का इस्तेमाल करने की जरूरत हो.
सुप्रीम कोर्ट का फैसला यहां निर्णायक नहीं है, लेकिन यह इस बात को उजागर करता है कि असल में मिश्रा के कार्यकाल को बढ़ाने की कोई असली वजह नहीं थी.
ताकत का दुरुपयोग कर रही सरकार
सीबीआई और ईडी वाले अध्यादेश, और कुछ नहीं, ताकत का दुरुपयोग हैं. जिसे सुप्रीम कोर्ट डीसी वाधवा मामले में “राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए विकृत” करना कह चुका है.
तकनीकी रूप से यह टिप्पणी अदालत ने तब की थी जब वह बिहार सरकार के अध्यादेशों को बार-बार जारी करने से जुड़े मामले की सुनवाई कर रही थी (जिस पर उसने 2017 में फिर फैसला दिया).
बेशक, अध्यादेशों को बार-बार जारी करना, और उन्हें तब जारी करना, जब उसकी कोई जरूरत नहीं है, एक जैसी बातें हैं. यानी लोकतांत्रिक प्रक्रिया की बेइज्जती की जा रही है और विधायिका की छानबीन से कतराने की मंशा है.
साफ तौर से मोदी सरकार वह पहली सरकार नहीं जिसने मुनासिब तरीके की बजाय, अध्यादेशों के जरिए कानून बनाने की कोशिश की. यह परंपरा 1952 में जवाहर लाल नेहरू के समय से शुरू हो गई थी. तब लोकसभा के पहले स्पीकर जीवी मावलंकर ने चिट्ठी लिखकर पहले प्रधानमंत्री को चेताया था कि अध्यादेश तभी जारी किए जाने चाहिए, जब असली में इमरजेंसी हो.
पहले भी ताबड़तोड़ अध्यादेशों पर उठे हैं सवाल
1952 से 1964 के दौरान करीब 70 अध्यादेश जारी किए गए थे, जिनके लिए माना गया था कि जितना उचित था, यह उससे काफी ज्यादा थे.
इसके बाद इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री के तौर पर अपने पहले कार्यकाल में चार साल में करीब 40 अध्यादेश जारी किए थे. फिर 1971 से 1977 के दौरान अपने दूसरे कार्यकाल में वह 99 अध्यादेश लाई थीं, और इसके बाद इमरजेंसी लगा दी गई थी.
अध्यादेश की ताकत का दुरुपयोग कैसे किया जाता है, उसका सबसे अच्छा उदाहरण जुलाई 1969 में देखने को मिला था. कई बैंकों का राष्ट्रीयकरण करने वाला अध्यादेश संसद का सत्र शुरू होने के ऐन एक दिन पहले जारी किया गया था.
इसकी सीधी से एक वजह थीः बैंकों का राष्ट्रीयकरण इंदिरा गांधी का सोशल एजेंडा था लेकिन ज्यादातर लोगों को यह कदम नागवार था. लोकसभा में झगड़ा होना तय था और बहस मुश्किल थी, इसलिए इंदिरा गांधी ने यह कदम उठाया और अध्यादेश का इस्तेमाल किया. हालांकि उसी सत्र के दौरान उन्होंने इसे बिल के तौर पर पेश भी किया.
सुप्रीम कोर्ट ने 1970 में ऐतिहासिक आर सी कूपर मामले में बैंकों के राष्ट्रीकरण को रद्द कर दिया. हालांकि तब उसने अध्यादेश जारी करने की शक्ति के इस्तेमाल पर कोई टिप्पणी नहीं की थी, जबकि बहस के दौरान इस मुद्दे का खास तौर से जिक्र किया गया था.
अध्यादेश कब जरूरी होते हैं, और कब गैर जरूरी, इस मामले में न्यायपालिका, कार्यपालिका को नाराज नहीं करना चाहती थी. और यह प्रवृत्ति सालों से यूं ही चली आ रही है.
वैसे सुप्रीम कोर्ट ने सेपरेशन ऑफ पावर्स की हिफाजत करने में हमेशा सख्ती दिखाई, लेकिन कार्यपालिका को बेरोकटोक ताकत दी कि वह अध्यादेशों का दुरुपयोग करती रहे. वह किसी भी स्थिति को, किसी भी मुद्दे को जरूरी बताए और दावा करे कि इस पर तुरंत कार्रवाई करना वाजिब है.
इसके बाद केंद्र सरकारों (बिहार जैसे राज्यों का जिक्र भी जरूरी है) ने इसका भरपूर फायदा उठाया. भले ही केंद्र में किसी भी पार्टी की सरकार रही हो. वे अध्यादेशों को बार-बार जारी करती रहीं, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने “संविधान के साथ धोखाधड़ी” कहा है.
नरसिंहा राव सरकार ने 1991-1996 के दौरान 77 अध्यादेश जारी किए. हां, उस समय अर्थव्यवस्था में जबरदस्त बदलाव को देखते हुए इस असाधारण शक्ति के बहुत ज्यादा इस्तेमाल के कुछ तर्क दिए गए थे. लेकिन चौंकाने वाली बात यह है कि इसके बाद की सरकार (अटल बिहारी वाजपेयी, एच.डी.देवेगौड़ा और फिर आईके गुजराल के प्रधानमंत्रित्व में) ने भी 77 अध्यादेश जारी किए, जबकि वह दो साल भी सत्ता में नहीं रही.
7 साल में 76 अध्यादेश लाई मोदी सरकार
इसके बाद ऐसा लगा कि अध्यादेश राज का पतन शुरू हो गया है. 1998 से 2004 के दौरान जब एनडीए की सरकार रही, अध्यादेशों की संख्या 58 थी. 2004 से 2014 के दौरान यूपीए की सरकार के समय 61 अध्यादेश जारी किए गए, और यूपीएII सरकार ने तो सिर्फ 25 अध्यादेश जारी किए थे.
लेकिन मोदी सरकार को जबरदस्त जनादेश मिलने के बावजूद, मानो उसने बदला लेने के इरादे से अध्यादेश का इस्तेमाल किया है. मई 2014 से अप्रैल 2021 तक वह 76 अध्यादेश ला चुकी है जिनमें से 45 को मोदी 1.0 सरकार के समय जारी किया गया. इस साल सरकार 10 अध्यादेश ला चुकी है (जिनमें सीबीआई, ईडी वाले अध्यादेश शामिल हैं).
हालांकि संख्या और सालाना औसत के हिसाब से यह पता चलता है कि मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में अध्यादेशों की संख्या बढ़ी ही है, लेकिन इससे भी बड़ी दिक्कत एक और है. मोदी सरकार के दौरान संसद में पेश होने वाले नियमित बिल्स और अध्यादेशों के बीच का अनुपात, इस समस्या की मोटी परतें खोलता है.
जैसे नेहरू और इंदिरा गांधी के कार्यकाल में एक अध्यादेश पर 10 बिल्स पर अनुपात था. इसके तीन दशक बाद तक यह अनुपात 2:10 का था.
मोदी के सत्ता में आने के बाद यह अनुपात 3.5: 10 पर पहुंच गया है. संसद में पेश होने वाले 10 बिल्स की तुलना में 3.5 अध्यादेश जारी किए गए हैं.
संसदीय लोकतंत्र में यह स्वस्थ नहीं माना जाता, क्योंकि वहां इस ताकत का इस्तेमाल पूरे संयम से किया जाता है.
संस्थानों को दरकिनार करना कितना सही?
अगर किसी सरकार का लोकसभा या राज्य विधानसभा में बहुमत है तो इसका मतलब यह कतई नहीं कि इन संस्थानों को दरकिनार कर दिया जाए. किसी भी कानून पर विधायिका में चर्चा होनी चाहिए, और उस पर बहस होनी चाहिए. उस पर विपक्षी पार्टियों के नेताओं के साथ-साथ ‘सत्ताधारी पार्टी’ के विचारवान सदस्यों को भी सवाल पूछने का हक है.
अगर कानून पास हो जाता है तो भी इस बहस में संशोधन पेश किए जाते हैं या यह सुझाव दिया जा सकता है कि इसे समीक्षा के लिए सिलेक्ट कमिटी को भेजा जाए (मोदी 1.0 के दौरान सिलेक्ट कमिटी को सिर्फ 25% बिल्स भेजे गए थे, जबकि यूपीए-1 और यूपीए-2 में यह आंकड़ा क्रमशः 60% और 71% का है).
अगर बिल्स पेश किए बिना अध्यादेश जारी किए जाते हैं (और उन्हें फिर-फिर जारी किया जाता है), तो यह प्रक्रिया पूरी तरह बेमानी हो जाती है. भले ही बाद में बिल पेश किया जाता है, लेकिन माहौल अब बहस के अनुकूल नहीं रहा, क्योंकि सरकार ने पहले ही लोकतांत्रिक प्रक्रिया को तबाह करने की मर्जी दिखा दी है.
जिस तरह खेती कानूनों को संसद में बिना बहस के लाया गया, राज्यसभा में सभी नियमों को ताक पर रखकर ध्वनि मत का तमाशा किया गया, उससे लोकतांत्रिक मूल्यों की ऐसी की तैसी ही हुई है.
मोदी सरकार ने प्रजातंत्रीय प्रक्रिया की जैसी धज्जियां उड़ाई हैं, उसके अपने नुकसान ही हुए. खेती कानूनों ने सरकार की नाक कटा दी है.
और अगर अध्यादेश राज का जुनून ऐसे ही जारी रहता है, तो भारतीय लोकतंत्र के लिए इसके नतीजे बहुत बुरे हो सकते हैं.
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