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चिपको आंदोलन की ‘गौरा देवी’ अपने ही गांव रैणी से विस्थापित हो गईं 

रैणी गांव में प्राकृतिक आपदा की मार झेल रहे लोग, प्रशासन ने मूंद ली आंखें

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उत्तराखंड में एक हुआ था चिपको आंदोलन, जिसने देश ही नहीं बल्कि दुनियाभर में प्रकृति के प्रति लोगों को जागरुक किया. ये आंदोलन इसलिए हुआ था ताकि पेड़ बचें, ताकि कटान न हो, ताकि लोग विस्थापित न हों, लेकिन विडंबना देखिए आंदोलन चलाने वाली गौरा देवी आज अपने ही गांव रैणी से विस्थापित हो गईं...हुकूमत न कटान से गांव बचा पाया और न ही अब लोगों को बचाने में तत्परता दिखा रहा है.

प्रकृति को बचाने के लिए पूरी दुनिया को एक नया मंत्र देने वाले चिपको आंदोलन की प्रेणता गौरा देवी के गांव रैणी पर कुदरत कहर बन कर टूट पड़ी है. गांव के नजदीक ऋषिगंगा पर चल रही परियोजनाएं इस गांव को कुरेद कुरेद कर ध्वस्त कर रही हैं और पहाड़ों में हो रही मूसलाधार बारिश गांव के ऊपर खड़े पहाड़ को दरका व सरका रही है, जिसकी जद में रैणी गांव के मकान ध्वस्त हो रहे हैं और कुछ भवन भी खाली कराए जा रहे हैं.

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प्रकृति छीन रही घर, सरकार ने मूंदी आंखे

घर आंगन और खेतों के पड़ी दरारें गौरा देवी को अपनी मां मानने वाले ग्रामीणों के माथे पर चिंता की लकीरें उकेर रही हैं, जिस घर, खलियान में लोगों ने अपना बचपन बिताया उनके पूर्वजों ने जिसे संजोकर रखा, उसे आज छोड़ने की नौबत आ चुकी है. दरकते और खिसकते पहाड़ ग्रामीणों को चेता रही है कि अब अपने गांव को छोड़ना होगा.

लेकिन रैणी गांव में 60 परिवारों के करीब 400 लोगों में से करीब 100-150 लोग कहीं नहीं जा पा रहे हैं. आखिर अपने घर को कौन छोड़ना चाहता है. हमारे नीति निर्धारको ने हिमालय को बांधों और बड़ी परियोजनाओं से छलनी कर दिया है. रैणी गांव के लोग राजधानी देहरादून के एसी कमरों में बैठे नीति निर्धारको से पूछ रहे हैं कि हम जाएं तो जाएं कहां?

विस्थापन की मंजूरी को पता नहीं कब मिलेगी मंजूरी

रैणी गांव के प्रधान भवान सिंह भी फिलहाल कुछ कह पाने की स्थिति में नहीं हैं, नम आंखों से बता रहे हैं कि कुछ दिन से मौसम खराब होने पर लोग ऊपर पहाड़ चढ़कर उडयारों (गुफाओं) में शरण ले रहे थे, लेकिन अब तो वहां भी पहाड़ धंसने लगे. जिनके बच्चे बाहर शहरों में नौकरी करते हैं और जिनके दूसरे कस्बो- शहरों में घर हैं, वो तो चले गए. जो गांव में ही आजीविका कर रहे हैं वो अपने ढोर डंगर (जानवर) लेकर कहां जाएं, प्रशासन को विस्थापन की अर्जी दी हुई है पता नहीं कब जमीन मिलेगी?

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बता दें कि चमोली के रैणी गांव में 7 फरवरी को आई विनाशकारी आपदा के बाद दूसरी आपदा आयी है. गांव के नीचे से दरार पड़ने के कारण सड़क का एक हिस्सा दरक गया है. यह दरार गांव की तरफ बढ़ते हुए उसे भी जल्द अपनी जद में ले लेगी. यहां तक कि गांव की शुरुआत में जहां गौरा देवी की स्मृति में उनका स्मारक बना है वहां भी दरार आ गयी है. जिसके बाद मूर्ति को वहां से शिफ्ट करना पड़ा.

मजबूर गांव वालों को दोषी ठहरा रहा प्रशासन

इस पूरे मामले पर प्रशासन गरीब और लाचार गांव वालों को ही दोषी ठहराने में जुटा है. चमोली की जिलाधिकारी स्वाति एस भदौरिया से हुई बातचीत में उन्होंने कहा कि, गांव वालों को कहा था तपोवन शिफ्ट हो जाएं तो वो कह रहे हैं, हमारे जानवरों का क्या होगा? उन्हें प्राइमरी स्कूल में रहने को कहा गया लेकिन जा नहीं रहे हैं. जब उनसे पूछा कि गांव की संवेदनशीलता का क्या स्तर है, क्या कहीं पूरा गांव तो नहीं दरक जाएगा? तो उनका जवाब था- मैं कोई जियोलॉजिस्ट नहीं हूं. देहरादून से जियोलॉजिस्ट भेजने को कहा है.

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लेकिन जिले की अधिकारी को भी गांव के लोगों का असली दर्द समझ नहीं आ रहा है. जिस स्कूल के बारे में जिलाधिकारी कह रही हैं वहां कुछ लोग शरण ले रहे हैं. लेकिन यहां भी सुरक्षित नहीं हैं. प्रधान भवान सिंह राणा बताते हैं कि स्कूल भी पूरी तरह सुरक्षित नहीं है. दरारें यहां भी पड़ी हैं. इसीलिए लोग यहां रहने से भी डर रहे हैं.

इस पूरे घटनाक्रम के बीच जनप्रतिनिधियों की पहल पर ग्रामीणों को कुछ हद तक मनाया गया है. ग्रामीणों ने गौरा देवी का स्मारक और कुछ घर गिराने में रजामंदी दे दी थी.

लेकिन दुर्भाग्य है कि सब कुछ गंवाने के बाद भी कोई जिम्मेदार अधिकारी मौके पर नहीं पहुंचा है. सीमा सड़क संगठन के ही लोग डटे हैं और उन्हें बारिश सड़क का काम नहीं करने दे रही है. वहीं ऋषिगंगा का उफान और कटान जारी है. पुरानी सड़क गांव के नीचे तो साफ हो चुकी है साथ ही बाकी जगहों पर भी दरक रही है. जाहिर है इस नई सड़क के लिए भी नए सिरे से काम करना होगा. सेना का बनाया गया वैली पुल कभी भी गिर सकता है.
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क्या प्रशासन को है बड़े हादसे का इंतजार?

अब अहम सवाल है कि गौरा के गांव वाले कहां जाएंगे, यदि वो अपने साथ अपने जानवरों को भी सुरक्षित बचाने की बात कह रहे हैं तो क्या इसमें क्या गलत है? क्या प्राकृतिक त्रासदी का शिकार हो रहे गांव वालों पर ही दोष डालकर प्रशासन किसी बड़े हादसे का इंतजार कर रहा है? प्रदेश की राजधानी में बैठे हमारे जनप्रतिनिधि व नीति निर्धारको तक गांव वालों का दर्द क्यों नहीं पहुंच पा रहा है? जब सब तबाह हो जाएगा तो उसके बाद शवों को उठाने के लिए एसडीआरएफ भेजना ही सरकार की नैतिक जिम्मेदारी है? 7 फरवरी का हादसा लोग इतनी जल्दी भूल गए? मौत के मुंह में खड़ी जनता को अपने हाल पर छोड़ देना क्या डबल इंजन सरकार का सुशासन है? तमाम ऐसे सवाल हैं, जिन पर सब खामोश हैं.

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रैणी गांव केवल इतिहास के झरोखे में ही दर्ज हो चला है. जिस गांव ने पर्यावरण की अलख जलाई वह गांव आज सफेद पोशों की छ: इंच की जेबों में समा गया. प्रशासन ने गौरा देवी की मूर्ति उखाड़कर जोशीमठ में रख दी है. जिलाधिकारी ने बताया कि गांव वाले रखने को तैयार नहीं थे, इसलिए विधिवत पूजन के बाद उसे प्रशासन ने अपने पास रखा है. बाद में उनके नाम से बड़ा स्मारक और पार्क बनाने की योजना है.

लेकिन ये पार्क बनेगा कहां? जब गांव बचेगा तभी संभव हो पाएगा. मूर्ति की पूजा कर देने से गांव वालों की भावनाओं पर कुठाराघात कर दिया, जो पिलर तोड़ते वक्त बिलख रहे थे?

"हम तो यूं ही लूटते व ठगे जायेंगे"

ग्रामीणों का कहना है कि, क्या गौरा की मूर्ति को सुरक्षित रखने भर से गांव सुरक्षित हो गया है? वहीं ग्रामीणों ने जिलाधिकारी पर आरोप लगाया है कि उन्हें गांव के ताजा हालातों की ठीक जानकारी नहीं है.

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सीमांत जनपद चमोली की नीति घाटी से संस्कृति व सभ्यता का दफन आखिर अनियोजित विकास ने कर दिया है. कुंदन सिंह और संग्राम सिंह ने ऋषिगंगा परियोजना के निर्माण के वक्त हुए धमाकों से घबराकर जो आशंकाएं व्यक्त की थी और जिन चिंताओं को लेकर उन्होंने कुछ पर्यावरणविदों की मदद से हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक लड़ाई लड़ी थी, वो आज सच साबित हो रहीं हैं. अगर पर्यावरण मंत्रालय फर्जी रिपोर्ट बनाने की बजाय इनकी सुन लेता तो सैकड़ों करोड़ों की ऋषिगंगा परियोजना तबाह नहीं होती, तपोवन प्रोजेक्ट दूसरी बार न तबाह होता और कई जानों के साथ गांव वालों को आज इस संकट का सामना नहीं करना पड़ता.

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