भारत की राजनीति में लोकसभा चुनाव से ठीक पहले वाले साल को 'सेमीफाइनल ईयर' भी कहा जाता है. कम से कम साल 1998 से, इसे ऐसा कहने का एक कारण है कि आम चुनावों से ठीक पहले वाले साल में कई राज्यों के विधानसभा चुनाव होते आये हैं. और ऐसे में साल 2023 भी कोई अपवाद नहीं है क्योंकि इस साल नौ राज्यों में चुनाव होने जा रहे हैं. हालांकि, क्या नौ राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजे हमें संकेत देंगे कि 2024 लोकसभा चुनाव (Lok Sabha elections) में ऊंट किस करवट बैठेगा? शायद नहीं और यहां हम समझने की कोशिश करेंगे कि ऐसा क्यों है.
यहां हम उन 2 प्रमुख राजनीतिक सवालों की भी जांच करेंगे, जिन पर हमें नौ राज्यों के चुनावों के अलावा इस साल ध्यान देने की जरूरत है.
2023: 9 राज्यों में चुनाव
फरवरी-मार्च: मेघालय, नागालैंड और त्रिपुरा
अप्रैल-मई: कर्नाटक
नवंबर-दिसंबर: छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, मिजोरम, राजस्थान और तेलंगाना
जैसा कि ऊपर दिया यह इंटरैक्टिव मैप दिखाता है, वर्तमान में बीजेपी कर्नाटक, मध्य प्रदेश और त्रिपुरा में सरकार का नेतृत्व कर रही है जबकि वह नागालैंड और मेघालय में सहयोगी के रूप में सरकार में है. दूसरी तरफ राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस सत्ता में है. क्षेत्रीय दल की तेलंगाना (भारत राष्ट्र समिति ) और मिजोरम (मिजो नेशनल फ्रंट) में सरकार है.
विधानसभा और लोकसभा चुनावों में अलग-अलग वोटिंग पैटर्न
यह साफ है कि कई वोटरों की पसंद विधानसभा और लोकसभा चुनाव में अलग-अलग होती है. यह 2018 के विधानसभा चुनावों की तुलना 2019 के लोकसभा चुनावों के नतीजों से करने पर विशेष रूप से स्पष्ट हुआ था.
नीचे दिया गया इंटरैक्टिव ग्राफ दिखाता है कि कैसे बीजेपी ने लोकसभा चुनावों में राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, कर्नाटक और तेलंगाना जैसे राज्यों में भारी बढ़त हासिल की थी.
इन सभी राज्यों में बीजेपी को यह बढ़त कांग्रेस और क्षेत्रीय पार्टियों के वोट कटने से मिला. हालांकि कर्नाटक में वोट शेयर के मामले में UPA का लाभ थोड़ा भ्रामक है क्योंकि यह मुख्य रूप से चुनाव से पहले कांग्रेस और JD(S) के बीच बने गठबंधन के कारण था. वास्तव में विधानसभा चुनावों की तुलना में कांग्रेस और JD(S), दोनों को अपने वोट शेयर का एक बड़ा हिस्सा खोना पड़ा था.
यहां एक दिलचस्प पैटर्न है- 2018 के विधानसभा चुनावों की तुलना में कांग्रेस को लोकसभा चुनावों के अंदर पूर्वोत्तर राज्यों में भारी बढ़त मिली थी.
यह मुख्य रूप से क्षेत्रीय दलों, विशेष रूप से नागालैंड में नागा पीपुल्स फ्रंट और त्रिपुरा में वाम दलों को वोट छिटकने की वजह से था. मिजोरम में, कांग्रेस ने जोरम नेशनलिस्ट पार्टी के साथ चुनाव पूर्व गठबंधन किया था और इसकी वजह से उसके वोट शेयर में बढ़ोतरी हुई थी.
अगर 2018 के विधानसभा चुनावों और 2019 के लोकसभा चुनावों के बीच लोकसभा सीट के अंदर आने वाले विधानसभा क्षेत्रों में लीड की तुलना करें तो दिखेगा कि राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, कर्नाटक और तेलंगाना में बीजेपी जबकि मेघालय, नागालैंड और मिजोरम में कांग्रेस की बढ़त और भी अधिक स्पष्ट है.
इसलिए 2023 में जिन नौ राज्यों के चुनाव हैं वो अपने आप में महत्वपूर्ण हैं, लेकिन यह जरूरी नहीं कि वे इस बात का कोई स्पष्ट संकेत दें कि लोकसभा चुनाव में नतीजे क्या होंगे.
2023 में हिंदुस्तान के राजनीतिक फलक पर क्या होता है इसका महत्व नौ राज्यों के चुनावों से परे है. 2023 में हमें शायद इन दो प्रमुख सवालों के जवाब खोजने होंगे.
पहला बड़ा सवाल: क्या विपक्ष 2023 में बीजेपी के खिलाफ मजबूत नैरेटिव पेश कर सकता है?
वर्तमान में नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ विपक्ष का नैरेटिव मोटे तौर पर चार अलग-अलग विषयों पर केंद्रित है. 2024 में ये बीजेपी के लिए खतरा बनेंगे या नहीं, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि 2023 में विपक्षी दल और दबाव समूह इन नैरेटिव के इर्द-गिर्द लोगों को कितने प्रभावी ढंग से लामबंद कर पाते हैं.
1. आर्थिक संकट: नौकरी, महंगाई, किसानों के मुद्दे
पिछले कुछ वर्षों में विपक्षी दलों ने राज्य चुनावों में अर्थव्यवस्था के मुद्दे को प्रभावी ढंग से उठाया है और इसका फायदा भी उन्हें मिला: बिहार में तेजस्वी यादव का चुनावी कैंपेन रोजगार के मुद्दे पर था तो हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस ने सरकारी नौकरी, पुरानी पेंशन योजना की बहाली और महिलाओं के लिए मासिक भत्ता जैसे प्रमुख आर्थिक वादों पर जोर दिया.
बेरोजगारी, विकास की थमी रफ्तार और किसानी संबंधी मुद्दे मोदी सरकार के खिलाफ आलोचना के प्रमुख बिंदु बने हुए हैं. सच कहें तो ये मुद्दे 2019 में भी थे लेकिन, चुनाव से पहले पुलवामा हमले और बालाकोट स्ट्राइक ने पूरे नैरेटिव को ही बदल दिया.
कुछ लोगों ने इसका दोष राहुल गांधी को भी दिया जो राफेल पर मोदी सरकार को घेरते रहे और विपक्ष आर्थिक मोर्चे पर वोटरों को जुटाने में विफल रहा. ऐसे में 2023 में एक बड़ा सवाल होगा: क्या विपक्ष वोटरों को आर्थिक मुद्दों पर लामबंद कर सकता है, जैसा कि उन्होंने कुछ राज्यों के चुनावों में किया था? या क्या वे इसे 2019 की तरह एक बार फिर गंवा देंगे?
2. सामाजिक न्याय और उत्पीड़ित जातियों का प्रतिनिधित्व
बिहार में नीतीश कुमार सरकार द्वारा घोषित जातिगत जनगणना पर सबकी नजर रहेगी. जनवरी 2023 की शुरुआत में जनगणना शुरू होने की उम्मीद है.
यदि सही समय पर और आवश्यक राजनीतिक जोर लगाया गया, तो यह 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले एक महत्वपूर्ण मुद्दा बन सकता है.
जातिगत जनगणना संभावित रूप से यह साबित कर सकती है कि कुल आबादी में पिछड़े समुदायों का हिस्सा अनुमान से कहीं अधिक है. अगर ऐसा हुआ तो यह इन समुदायों के लिए आरक्षण बढ़ाने की मांग को जन्म दे सकता है. कम से कम, बिहार की जाति जनगणना राष्ट्रीय स्तर पर जाति जनगणना की मांग को बल देगी.
उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव भी कह चुके हैं कि ''आरक्षण बचाना है तो बीजेपी को हराना होगा.'' दूसरी ओर बीजेपी इस मामले पर सावधानी से चल रही है क्योंकि उसे पिछले आठ वर्षों में बनाए गए अखिल हिंदू गठबंधन को खोने का डर है.
क्या 2023 में, विपक्ष सामाजिक न्याय और प्रतिनिधित्व के मुद्दों को वापस फोकस में ला सकता है और बीजेपी के हिंदुत्व सामाजिक गठबंधन में सेंध लगा सकता है?
3. सामाजिक सद्भाव
यह कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा का प्रमुख विषय है. कन्याकुमारी से कश्मीर के बाद 2023 के अंत में पूर्व से पश्चिम की ओर ऐसी एक और यात्रा भी हो सकती है. यात्रा के दौरान, राहुल गांधी ने लगातार मोहब्बत, सद्भाव और लोगों को एक साथ लाने पर जोर दिया है.
यात्रा इस मामले में महत्वपूर्ण है क्योंकि बीजेपी के एकक्षत्र राज के कारण, 'धर्मनिरपेक्ष' पार्टियां सांप्रदायिक सद्भाव और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के बारे में खुले तौर पर कुछ अनिच्छुक हो गयीं थीं.
क्या यात्रा 2019 में बीजेपी की जीत में आंशिक रूप से योगदान देने वाले ध्रुवीकरण को कम करने में सक्षम होगी?
4. संघवाद
इस मुद्दे पर सबसे मजबूत आवाज तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन, उनके वित्त मंत्री पलानीवेल त्यागराजन, तेलंगाना के सीएम के चंद्रशेखर राव, पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और महाराष्ट्र के पूर्व सीएम उद्धव ठाकरे रहे हैं. राहुल गांधी ने भी भारत के संघीय ढांचे को बनाए रखने की आवश्यकता पर बात की है.
केंद्र के बजट का आवंटन, केंद्रीय एजेंसियों के कथित दुरूपयोग और अब लोकसभा सीटों में प्रस्तावित वृद्धि दक्षिणी राज्यों को नुकसान में डाल रही है.
इसको क्षेत्रीय गर्व और सौतेलेपन की भावना के साथ जोड़कर देखें तो, यह एक बड़ा चुनावी मुद्दा हो सकता है. साथ ही यह राष्ट्रिय स्तर पर एक बड़े विपक्षी गठबंधन को तैयार कर सकता है.
इन चारों नैरेटिव में महत्वपूर्ण राजनीतिक क्षमता है. इन्होंने ही संयुक्त रूप से 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाले एनडीए की हार में योगदान दिया था. हालांकि, यह देखना बाकी है कि क्या विपक्ष कांग्रेस की अपनी रणनीति के अलावा नीतीश कुमार, ममता बनर्जी, केसीआर, अरविंद केजरीवाल जैसे नेताओं की महत्वाकांक्षाओं को संतुलित कर पाता है या नहीं.
साथ ही एक ओर बीजेपी और दूसरी ओर विपक्ष के बीच संसाधनों/चुनावी फंड की भारी असमानता भी है.
दूसरा बड़ा सवाल: क्या पीएम मोदी अपनी लोकप्रियता बरकरार रख सकते हैं?
अब तक राज्य स्तर पर बीजेपी की हार-जीत के बावजूद राष्ट्रीय स्तर पर पीएम मोदी की लोकप्रियता बरकरार रही है. सर्वे के अनुसार, सिर्फ अप्रैल-मई 2021 में उनकी लोकप्रियता काम हुई थी, जिसमें उन्होंने COVID-19 की दूसरी लहर के बावजूद रैलियों को संबोधित करना जारी रखा.
क्या यह लोकप्रियता 2023 तक बनी रहेगी? अगर ऐसा होता है तो 2024 में पीएम मोदी को कुर्सी से हटाना आसान नहीं होगा, भले ही विपक्ष 2023 के राज्य विधानसभा चुनावों में अच्छा प्रदर्शन कर ले.
एक सवाल यह भी रहेगा कि क्या बीजेपी चुनावी नैरेटिव को इस तरह से अपने पाले में कर सकेगी कि ऊपर बताए गए चार मुद्दों का विपक्ष को ज्यादा फायदा नहीं हो पाए? बीजेपी किस मुद्दे पर चुनाव लड़ना चाहेगी?
क्या यह इस साल के अंत में बनकर तैयार हो रहा राम मंदिर होगा? क्या वह समान नागरिक संहिता पर वोटरों को रिझाएगी? क्या चुनाव काशी और मथुरा विवाद पर लड़ा जायेगा? या राष्ट्रीय सुरक्षा खतरे से संबंधित कुछ और?
या फिर बीजेपी पूरी तरह से पीएम के नाम पर चुनाव लड़ेगी और अर्थव्यवस्था पर हो रही आलोचना की भरपाई के लिए उनकी लोकप्रियता पर भरोसा करेगी?
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