अमेरिकी सेना की वापसी (US troops withdrawal) के साथ ही ऐसा लगता है अफगानिस्तान (Afghanistan) में समय पीछे जा रहा है. तालिबान (Taliban) एक के बाद एक जिले का नियंत्रण हासिल कर रहा है, अफगान सुरक्षा बल अपनी पोस्ट छोड़कर ताजीकिस्तान भाग रहे हैं और काबुल का भविष्य ढुलमुल है. अमेरिका ने अपने 'फॉरएवर वॉर' को खत्म करने की डेडलाइन तो रख दी लेकिन क्या अफगानिस्तान के बारे में सोचा था? तालिबान जिस तेजी से क्षेत्रों पर कब्जा कर रहा है, क्या उसे देखकर कोई कह सकता है कि संगठन आज से कई सालों पहले खत्म हो चुका था?
अफगानिस्तान को निकलने की जल्दी में अमेरिका
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन (Joe Biden) ने 11 सितंबर सभी सैनिकों को वापस बुलाने की तारीख निर्धारित की है. इसमें कुछ हफ्तों का समय बाकी है और उसके बाद क्या तस्वीर उभर कर आएगी, इसका अंदाजा अफगानिस्तान से आ रही खबरों से हो रहा है.
बाइडेन के एग्जिट प्लान में जल्दीबाजी दिखती है. इसका सबूत अफगान युद्ध की सबसे प्रतीकात्मक जगहों में से एक बगराम एयर बेस के हैंडओवर में देखने को मिला. अमेरिकी सैनिक बेस से 2 जुलाई को वापस लौट गए. ये बेस अमेरिकी सैन्य कार्रवाई का केंद्र हुआ करता था, लेकिन जाते समय अमेरिका ने इसकी सुरक्षा के प्रति कोई योजना नहीं बनाई.
एक वरिष्ठ अफगान अधिकारी ने CNN को बताया कि उन्हें 1 जुलाई को बताया गया कि उनके पास बगराम एयर बेस के पेरिमीटर को सुरक्षित करने के लिए 24 घंटे से भी कम समय है. कुछ अफगान सैनिकों ने कहा कि उन्हें 2 जुलाई को ही पता चला कि अमेरिकी सैनिक बेस छोड़ रहे हैं.
अमेरिका इतनी जल्दी में क्यों लौट रहा?
जल्दी कहा जाए या देरी, अमेरिका का वापस लौटना सालों से लंबित था. 2001 में अल-कायदा और तालिबान को अफगानिस्तान से हटाने के लिए अमेरिका ने हमला बोला था. ओसामा बिन-लादेन समेत अल-कायदा के सभी बड़े नेता पाकिस्तान सीमा पर स्थित तोरा-बोरा गुफाओं में छिप गया था. तालिबान लड़ाके पाकिस्तान चले गए थे.
अफगानिस्तान में युद्ध की तासीर बहुत खूनखराबे और बेहताशा बमबारी वाली नहीं होती है. अफगानिस्तान में सत्ता का संतुलन देखा जाता है. तालिबान को जब समझ आया कि अमेरिका से सीधे टकराना फायदे का सौदा नहीं है तो उसके ज्यादातर लड़ाके पाकिस्तान चले गए.
अमेरिका सालों तक अल-कायदा और तालिबान से लड़ने के नाम पर कभी सैनिकों की संख्या बढ़ाता तो कभी वित्तीय मदद में इजाफा करता. अमेरिका और उसके सहयोगियों की समर्थन वाली सरकारें भी अफगानिस्तान को एक नहीं कर पाईं. आखिर में ये हुआ कि जिस तालिबान से लड़ने अफगानिस्तान गए थे, उसी के साथ एक टेबल पर बैठकर शांति पर बात करनी पड़ी.
डोनाल्ड ट्रंप कार्यकाल में कतर के दोहा में तालिबान के साथ समझौता हुआ कि अमेरिकी सेना वापस आएगी और संगठन हिंसा कम करेगा. तालिबान को राजनीतिक व्यवस्था में शामिल किए बिना अफगानिस्तान में शांति नहीं आ सकती है, इसलिए उसके साथ अफगान सरकार ने बातचीत की. बाइडेन ने ट्रंप के समझौते पर चलते हुए सेना वापस बुलाने की योजना बना ली और अफगानिस्तान की अशरफ गनी सरकार को जानकारी दे दी.
अब अफगानिस्तान की सुरक्षा की जिम्मेदारी गनी सरकार पर है. अमेरिका जल्दी से जल्दी लौटना चाहता है क्योंकि सालों के युद्ध से कुछ हासिल नहीं हुआ है. वो गनी सरकार को पैसे से मदद देने को तैयार है. इंटेलिजेंस रिपोर्ट्स हैं कि गनी सरकार कुछ ही महीनों में गिर सकती है. लेकिन ऐसा लगता है कि अमेरिका अब चाहता है कि अफगान सरकार ही तालिबान के साथ समझौता करे. इस साल की शुरुआत में विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन का गनी को भेजा गया खत भी यही संकेत देता है.
अफगानिस्तान में इतिहास खुद को क्यों दोहरा रहा?
अफगानिस्तान में कौन प्रभावशाली होगा, ये सत्ता के संतुलन पर तय करता है. जब अमेरिका ने 2001 में अफगानिस्तान पर हमला किया और नॉर्दर्न अलायन्स ने काबुल को तालिबान से वापस लिया तो कोई बहुत बड़ी लड़ाई नहीं हुई थी. तालिबान समझ गया था कि लड़ाई किसी और दिन लड़ी जा सकती है.
अल-कायदा की तरह तालिबान विदेशी लड़ाके नहीं हैं. वो अफगान समाज का हिस्सा हैं. सत्ता का संतुलन खुद से दूर जाते देख वो हथियार छोड़ कर वापस समाज में चले जाते हैं. शरिया कानून को सख्ती से लागू करने की विचारधारा रखने वाला तालिबान अमेरिकी हमले से खत्म नहीं हुआ था. वो सिर्फ निर्वासन में था.
अमेरिकी सेना की वापसी के साथ ही तालिबान की भी वापसी होगी, इसका अनुमान सभी को था. सिर्फ रफ्तार और समय ने चौंकाया है. तालिबान ने बहुत थोड़े समय में काफी ज्यादा इलाकों पर नियंत्रण पा लिया है. इसके लिए अफगान सुरक्षा बलों का गिरा हुआ मनोबल, सैन्य उपकरणों की सप्लाई में कमी, अफगान सरकार में भ्रष्टाचार और अफगानिस्तान का कबीलाई समाज जिम्मेदार कहे जा सकते हैं.
अफगानिस्तान में लंबे समय से ऐसा रहा है कि सरकार केंद्रीय इलाकों में होती है और तालिबान का प्रभाव गांवों, कस्बों में रहता है. तालिबान केंद्रीय एशियाई देशों के साथ सीमा पर स्थित शहरों पर भी नियंत्रण ले रहा है, जिससे कि व्यापार के अहम रास्तों पर उसका कब्जा रहे. ऐसा करके तालिबान अफगान सुरक्षा बलों के सप्लाई रूट को बंद कर रहा है और काबुल के आसपास के शहरों पर कब्जा करके गनी सरकार पर भी दबाव बना रहा है.
आगे क्या होने के आसार?
तालिबान और अमेरिकी सरकार के बीच हुआ दोहा समझौता संगठन को शहरों पर नियंत्रण लेने से नहीं रोकता है. ये सिर्फ अमेरिकी सैनिकों को निशाना बनाने से प्रतिबंधित करता है. तालिबान तेजी से जिलों पर कब्जा कर खुद को प्रभावशाली बना रहा है, जिससे कि अशरफ गनी सरकार के साथ राजनीतिक सौदेबाजी में उसका पलड़ा भारी रहे.
तालिबान 1996 में काबुल पर हिंसक कब्जे को शायद ही दोहराएगा क्योंकि इससे अंतरराष्ट्रीय समुदाय में उस पर फिर आतंकी और उग्रवादी समूह का ठप्पा लगने का डर रहेगा.
ऐसे में तीन संभावनाएं हो सकती हैं: पहला जैसा कि अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन ने कहा था अशरफ गनी सरकार और तालिबान सत्ता-साझेदारी का समझौता कर लें. अभी के लिए ये संभावना मुश्किल है क्योंकि गनी सरकार में नॉर्दर्न अलायन्स के अमरुल्लाह सालेह जैसे नेता मौजूद हैं, जो इसके सख्त खिलाफ हो सकते हैं.
दूसरी संभावना फिर से गृह युद्ध शुरू होने की है. ये स्थिति भी बहुत मुश्किल है क्योंकि अफगानिस्तान में कई देशों का निवेश है और युद्ध का मतलब फिर से बर्बादी और शरणार्थी संकट को बढ़ावा देना होगा.
तीसरी संभावना है कि तालिबान 1996 की तरह काबुल पर कब्जा कर ले. हालांकि, ज्यादा आसार इस बात के हैं कि तालिबान और गनी सरकार अमेरिका, रूस जैसे देशों की मध्यस्थता में बातचीत कर किसी समझौते पर पहुंच जाएं.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)