जब लीग का नाम ‘इंडियन प्रीमियर लीग’ है तो इसमें विदेशी खिलाड़ियों को कप्तानी क्यों दी जाती है? क्या विदेशी कप्तान हमारे देसी कप्तानों से बेहतर हैं? ये लड़ाई जितनी पुरानी है उतनी ही प्रासंगिक भी. पुरानी इसलिए क्योंकि ये लड़ाई आईपीएल के पहले सीजन से ही शुरू हो गई थी. प्रासंगिक इसलिए क्योंकि अभी तक इसका हल नहीं निकला. हिंदुस्तानी क्रिकेट फैंस का एक बड़ा वर्ग ऐसा है जो दुहाई देता है कि जब लीग की शुरूआत हुई थी तब इसके जो उद्देश्य बताए गए थे वो अब ‘बैकग्राउंड’ में चले गए हैं.
यानी आईपीएल अपने शुरूआती उद्देश्यों से भटक गया है. आपको याद दिला दें कि आईपीएल की शुरूआत में ये दावा किया गया था कि इस लीग के जरिए घरेलू क्रिकेट को बढ़ावा मिलेगा. ‘लोकल’ खिलाड़ियों को टीम के साथ जोड़ा जाएगा. अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ियों को उनकी टीम के ‘आइकॉन खिलाड़ी’ का दर्जा दिया जाएगा लेकिन पिछले 11 साल में एक-एक करके इन सारे उद्देश्यों को ताक पर रख दिया गया और सिर्फ एक उद्देश्य रह गया- ज्यादा से ज्यादा कमाई. ऐसा भी नहीं है कि विदेशी खिलाड़ियों को कप्तान बनाने का फ्रेंचाईजी को बहुत फायदा हुआ हो. देसी बनाम विदेशी की इस लड़ाई को आगे बढ़ाने से पहले अब तक के सीजन का ‘रीकैप’ कर लेते हैं.
ये ग्राफिक्स बताता है कि 2008, 2009 और 2016 को छोड़कर बाकी सभी सीजन में भारतीय खिलाड़ियों की कप्तानी वाली टीमें ही चैंपियन बनी हैं. महेंद्र सिंह धोनी और रोहित शर्मा तो अपनी टीम को तीन-तीन बार खिताब दिला चुके हैं. गौतम गंभीर ने अपनी कप्तानी में कोलकाता को दो बार खिताब जिताया है.
इस बार सिर्फ एक विदेशी कप्तान होगा
आईपीएल के इस सीजन में सिर्फ सनराइजर्स हैदराबाद के कप्तान विदेशी हैं. केन विलियम्सन टीम की कमान संभालते हैं हालांकि इन दिनों वो अनफिट हैं. उन्होंने अपनी नेशनल टीम के लिए भी पिछले कुछ मैचों से मैदान में ना उतरने का फैसला किया था. उनकी गैरमौजूदगी में वापस टीम की कमान डेविड वॉर्नर को मिल सकती है. डेविड वॉर्नर की कप्तानी में टीम ने 2016 का खिताब जीता था लेकिन गेंद के साथ छेड़छाड़ का आरोप साबित होने के बाद उन पर प्रतिबंध लगा दिया गया था.
इस आईपीएल से ही वो मैदान में वापसी करेंगे. उन्हें कप्तानी देने से पहले ‘फ्रेंचाइजी’ को कई बार सोचना जरूर होगा क्योंकि बैन के बाद तुरंत आते ही कप्तानी संभालना ‘फ्रेंचाइजी’ की साख के लिए अच्छा नहीं होगा. साथ ही साथ वॉर्नर के लिए भी वो एक अतिरिक्त दबाव होगा.
विदेशी कप्तानों के साथ क्या दिक्कत आती है?
अगर देसी-विदेशी की लड़ाई को हटा भी दें तो भी कई व्यावहारिक समस्याएं हैं जो विदेशी कप्तानों से साथ आती हैं. विदेशी खिलाड़ी का साथ में खेलना और विदेशी खिलाड़ी का कप्तान होना दो निहायत ही अलग बाते हैं.
कप्तान को हर खिलाड़ी से लगातार संवाद करना होता है. ये पहली अड़चन है क्योंकि बहुत सारे खिलाड़ियों के साथ भाषा की समस्या आती है. दूसरी परेशानी है खिलाड़ियों का कद, चूंकि आईपीएल में भारत के कई ऐसे खिलाड़ी भी मैदान में उतरते हैं जिन्हें शुरूआती दिनों में कोई जानता-पहचानता तक नहीं है. उनके सामने अगर विदेशी कप्तान हो तो उन्हें उस कप्तान से बात करने में एक हिचक होती है.
अगर देसी खिलाड़ी कप्तान है तो फिर भी ये हिचक दूर की जा सकती है लेकिन विदेशी कप्तान के सामने ये भी एक परेशानी है. तीसरी बड़ी परेशानी है बतौर कप्तान खिलाड़ियों का रोल ‘डिफाइन’ करना. विदेशी खिलाड़ियों की भारत के घरेलू खिलाड़ियों के प्रदर्शन पर कोई नजर नहीं होती.
आईपीएल के चंद रोज पहले ही वो उस खिलाड़ी से मिलते हैं. मैनेजमेंट पूरी कोशिश करता है कि नए खिलाड़ी के बारे में कप्तान को सारी अहम जानकारी दी जाए. बावजूद इसके शुरूआती 4-5 मैचों में ‘क्रूशियल’ मौकों पर कप्तान को पता ही नहीं चला कि किस खिलाड़ी में क्या दम-खम है. जब तक पता चलता है तब तक प्लेऑफ की लड़ाई गंभीर हो चुकी होती है. ये सारी परेशानियों समय-समय पर खिलाड़ी ‘ऑफ द रिकॉर्ड’ बताते रहते हैं.
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