वीडियो एडिटर- अभिषेक शर्मा और मोहम्मद इरशाद आलम
“जनता दल (यूनाइटेड) विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान में पूर्ण आस्था तथा निष्ठा रखेगा और समाजवाद, धर्म-निरपेक्षता और अखण्डता बनाए रखेगा.”
धर्मनिरपेक्षता पर ये बड़ी-बड़ी बातें बिहार के सीएम नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल यूनाइटेड मतलब जेडीयू के संविधान के पहले पन्ने पर लिखी हैं. एक नहीं, बल्कि 2 बार धर्मनिरपेक्षता और दो बार धर्मतांत्रिक शब्द का इस्तेमाल किया गया है. लेकिन JDU की ये धर्मनिरपेक्षता फिलहाल नागिरकता संशोधन बिल के बस्ते में कैद है.
जेडीयू नागरिकता संशोधन बिल पर सरकार के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी है. वही नागरिकता संशोधन बिल जिसमें धर्म के चश्मे से इंसान को, रिफ्यूजी को, शरणार्थी को देखा जा रहा है. जिसमें भारत के ही पड़ोसी चीन और म्यांमार के प्रताड़ित अल्पसंख्यक मुसलमान के दर्द की जगह नहीं है लेकिन पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान जैसे देशों के अल्पसंख्यक हिंदू, सिखों, बौद्ध, जैन, ईसाई, से हमदर्दी दिखाई जा रही है. अब जब नीतीश कुमार अपनी पार्टी के संविधान के मूल को ही भूलेंगे तो बिहार की जनता तो पूछेगी ही जनाब ऐसे कैसे?
नीतीश कुमार की पार्टी ने लोकसभा में नागरिकता संशोधन बिल का समर्थन किया. पार्टी के सांसद राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह ने कहा,
‘हम इस बिल का समर्थन करते हैं. इस बिल को अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के आधार पर नहीं देखना चाहिए.’
अब इन सबके बाद राज्यसभा में भी मोदी सरकार को जेडीयू ने समर्थन दिया है. हालांकि 2014 के चुनाव से पहले जब ये बिल संसद में आया था तब इसी जेडीयू ने विरोध के सुर में सुर मिलाया था. यही नहीं जेडीयू की राष्ट्रीय परिषद की बैठक में नीतीश कुमार ने इस बिल के खिलाफ भाषण दिया था. लेकिन फिलहाल यू टर्न लिया जा चुका है.
ट्रिपल तलाक या धारा 370 हटाने के फैसलों पर विरोध दिखाना हो या वोटिंग के वक्त संसद से वॉकआउट कर जाने पर पहले भी जेडीयू पर सवाल उठे हैं, लेकिन इस बार जेडीयू ने लोकसभा में खुलकर नागरिकता संशोधन बिल का समर्थन किया है. तो इस समर्थन को क्या माना जाए?
बीजेपी को रीटर्न गिफ्ट
क्या नीतीश कुमार ने अपनी पार्टी के संविधान से आंख मूंदकर बीजेपी को रिटर्न गिफ्ट दिया है? क्योंकि इतने सारे मतभेदों के बाद भी अमित शाह ने 2020 में नीतीश कुमार के नेतृत्व में चुनाव लड़ने का ऐलान किया है.
कैब के साथ जाने का जेडीयू का ये फैसला तब है जब खुद नीतीश कुमार की पार्टी में विरोध की आवाज भी उठ रही है.
पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष प्रशांत किशोर ने दो दिन में दो ट्वीट कर नीतीश कुमार के फैसले पर सवाल उठाए हैं. लेकिन नीतीश कुमार मौन हैं. सीनीयर लीडर और राष्ट्रीय महासचिव पवन वर्मा, नेशनल एग्जीक्यूटिव के सदस्य एन के सिंह और गुलाम रसूल बलियावी ने नाराजगी जाहिर की है. नीतीश कुमार को सोचने के लिए कहा है.
नीतीश कुमार और पीएम मोदी के रिश्ते
ये वही नीतीश कुमार हैं जिन्होंने 2009 के आम चुनाव के दौरान गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को बिहार में चुनाव प्रचार करने से भी रोक दिया था. ये वही नीतीश कुमार हैं जिन्होंने नरेंद्र मोदी की वजह से जून, 2013 में बीजेपी से संबंध तोड़ लिया था. 17 साल के एनडीए के रिश्ते को छोड़ दिया था. हालांकि एक बार फिर सत्ता की चाहत या जरूरत, जो भी कहें, वापस बीजेपी से हाथ मिलाया.
अब मोटे तौर पर यह तय हो चुका है कि 2020 में बिहार की सत्ता में वापसी के लिए नीतीश को हिंदुत्व के घोड़े की सवारी से गुरेज नहीं है. साथ ही पार्टी की खुद को बीजेपी से अलग दिखाने की कोशिश भी खत्म हो गई है. खुद पार्टी के नेता दबी जुबान में मानने लगे हैं कि नीतीश ने अब एनडीए का धर्मनिरपेक्ष चेहरा बनने के सपने को तिलांजलि दे दी है.
तो सवाल उठता है कि क्या नीतीश जान गए हैं कि बिहार के मुसलमान का मोह उनसे भंग हो चुका है, इसलिए वो हिंदू दिखने की रेस में शामिल होना चाहते हैं? लोकसभा चुनाव के बाद के सर्वेक्षणों के मुताबिक मई में महज 6 फीसदी मुसलमानों ने जेडी (यू) को वोट दिया था. वहीं, अक्टूबर के उप-चुनाव में तो यह संख्या और भी घट गई. हालिया उपचुनावों में जेडीयू सिर्फ एक सीट जीत पाई...
अंदरखाने चर्चा ये है कि बिहार बीजेपी के नेता नहीं चाहते कि नीतीश 2020 में भी नीतीश सीएम पद का चेहरा हों. तो क्या नीतीश इसी विरोध को शांत करने की कोशिश कर रहे हैं?
अब चाहे जो भी हो लेकिन बिहार की जनता नीतीश कुमार के बार-बार 'यू टर्न' से पूछेगी जरूर जनाब ऐसे कैसे?
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