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‘हम खुद बीमार हैं’, बिहार के DMCH के डॉक्टरों का डरा देने वाला सच

जब डॉक्टर ही होंगे बीमार तो कैसे देश के हेल्थ सिस्टम का होगा इलाज? 

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वीडियो एडिटर- कुणाल मेहरा

वीडियो प्रोड्यूसर- शादाब मोइज़ी

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“आप हमारी कहानी सुनकर डर जाएंगे, यहां हालात ऐसी है कि कई बार डॉक्टर खुद ही टीबी की बीमारी से घिर जाते हैं, कई डॉक्टरों को टीबी का पूरा इलाज कराना पड़ा है. मतलब वो बनने आए थे डॉक्टर और बनकर जा रहे हैं मरीज.”

ये शब्द बिहार के दरभंगा मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल के एक डॉक्टर की है. डॉक्टर ये बातें इसलिए कह रहे हैं क्योंकि ये जिस हालत में काम कर रहे हैं वो चौंकाने वाला है.

बिहार के मुजफ्फरपुर में 140 से ज्यादा बच्चों की बुखार से मौत हुई जिसके बाद सरकार से लेकर डॉक्टरों के कामकाज पर सवाल उठने लगे. लेकिन इन सबके बीच क्विंट ने देश के अलग-अलग शहरों के डॉक्टरों के हालात को समझने का फैसला किया. इसके लिए क्विंट ने बिहार के कई सरकारी अस्पतालों के जूनियर डॉक्टरों से बात की. इस दौरान जो बातें सामने आईं वो चौंकाने वाली और शर्मनाक थीं.

अपना नाम ना छापने की शर्त पर डॉक्टर बताते हैं कि वो एक खतरनाक मेंटल ट्रॉमा से गुजर रहे हैं. इन्हीं डॉक्टरों में से एक ने हमें बताया,

बेसिक फैसिलिटी के लिए हमें लड़ना पड़ता है. हैंड ग्लव्स तक नहीं मिलते हैं. सर्जरी वॉर्ड में आप जाएंगे तो ऑपरेशन थिएटर (OT) में एसी तक काम नहीं करता है. कभी काम करता है, कभी नहीं. एक ही एसी है और OT बड़ा है. 2,3 ऑपरेशन टेबल है. इसमें गाउन पहनने के बाद हालत ऐसी होती है कि आप काम नहीं कर सकते हैं. कई बार डॉक्टर बेहोश हो जाते हैं जिस वजह से मरीज के ऑपरेशन में देरी हो जाती है.

डर और खौफ के साए में डॉक्टर

DMCH में हमारी मुलाकात कई डॉक्टरों से हुई. लेकिन कैमरे के सामने कोई भी अपनी बात रखने को तैयार नहीं हुए. उन्हें डर था कि अगर वो कॉलेज और अस्पताल की हकीकत सामने रखेंगे तो उन्हें बड़ी मुश्किलों का समना करना पड़ेगा. इसी बीच अपनी पहचान ना उजागर करने की शर्त पर कुछ डॉक्टरों ने हमसे बात की. इसी में से एक जूनियर डॉक्टर ने बताया कि उन लोगों को हमेशा डर के माहौल में काम करना होता हैं. लेकिन कुछ कर नहीं सकते हैं.

रात को दो-ढाई बज रहा था. इमरजेंसी वॉर्ड में मरीज आया, लेकिन हमें किसी ने सूचना नहीं दी थी. हम लोग अपने ड्यूटी वाले कमरे में बैठे हुए थे. तब ही अचानक 15 से 20 लोग रूम में अंदर आ गए. सबके हाथ में लाठी-डंडे थे. उन लोगों ने बोला कि तुम लोग यहां बैठकर बात कर रहे हो, मरीज की हालत खराब है. हम लोगों ने बोला कि हमें जानकारी नहीं है. हम लोग किसी तरह उन्हें समझाकर रूम में बाहर निकले, अगर इस रूम से हम लोग बाहर नहीं निकलते तो बुरी तरह से पिटते. 
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मेंटल ट्रॉमा, निराशा और बेवजह की तकलीफ से सामना

इन सबके बीच सवाल ये है कि अगर डॉक्टर इन परेशानियों से गुजर रहे हैं तो वो मरीज का इलाज कैसे करेंगे? जब हमने इन डॉक्टरों से इन दिक्कतों के बारे में बात की तो उन्होंने बताया, “ये एक ऐसा दौर है, जिसमें हम सबसे ज्यादा ट्रॉमा से गुजर रहे हैं. मेंटली टॉर्चर होते हैं. मेंटली परेशान होते हैं. काम पर असर पड़ता है. अगर हम ड्यूटी कर रहे हैं सुविधाएं नहीं मिल रही हैं, गर्मी से हम परेशान हैं, तो ये स्वाभाविक है कि मरीज की तरफ ध्यान कम होगा. हम अगर परेशान होंगे तो स्वाभाविक है कि लापरवाही का मामला हो सकता है.”

मच्छर, गंदगी, चूहा-- डॉक्टर्स रूम की डराने वाली सच्चाई

डॉक्टर बताते हैं कि इमरजेंसी वॉर्ड में उनके आराम करने के लिए ढंग का डॉक्टर्स रूम भी नहीं है. वॉटर कूलर काम नहीं करता है, एसी काम नहीं करता है, सिर्फ नाम के लिए लगा हुआ है. मरीज और स्टाफ दोनों के लिए एक ही टॉयलेट हैं. जिसके बेसिन में पानी नहीं आता है, कई बार दो-दो दिन पानी नहीं आता है.

हफ्ते में एक बार लगातार 34-36 घंटे की ड्यूटी

डॉक्टर की परेशानी यहीं नहीं रुकती वो बताते हैं कि हफ्ते में एक बार उन लोगों की लगातार 35-36 घंटे की ड्यूटी लगती है.

मैं कल सुबह 8 बजे ड्यूटी पर आया था और अब कल सुबह मतलब 24 घंटे बाद मेरी ड्यूटी खत्म होगी. मैं उसके बाद कल सुबह 9 बजे मतलब एक घंटे बाद ही फिर दोबारा वॉर्ड में चला जाऊंगा. फिर 9 बजे से लेकर 2 से 3 बजे दिन में मेरी ड्यूटी खत्म होगी. उसके बाद थोड़ा रेस्ट करूंगा, फिर 5 बजे शाम मुझे इवनिंग राउंड के लिए वापस आना है. इमरजेंसी में ड्यूटी है तो कभी-कभी लगातार 36 घंटे की ड्यूटी हो जाती है, वो भी बिना सोए.
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डॉक्टरों का हॉस्टल भी है बीमार, पढ़ाई भी न के बराबर

जब हमने इन डॉक्टरों से इनके हॉस्टल और पढ़ाई को लेकर सवाल किया तो उनके जवाब में एजुकेशन सिस्टम की बदतर तस्वीर दिखती है,

यहां पढ़कर अच्छा डॉक्टर बनना ये अपने ऊपर है. मैं चाहूं तो कहीं भी रहकर पढ़ सकता हूं. लेकिन मुझे बाहर से कोई सपोर्ट नहीं है. एकेडमी के लिए मुझे यहां से कोई सपोर्ट नहीं है. रिसर्च का यहां पर कुछ खास नहीं है. PG की सिस्टमेटिक क्लास नहीं होती है. जब सर लोग राउंड पर होते हैं, मरीज को देखते हैं, तब ही बताते हैं. जो हमारी सिस्टमेटिक क्लास होनी चाहिए वो नहीं होती है.

हॉस्टल की हालत भी कुछ बेहतर नहीं है. डॉक्टर बताते हैं, “हमें 10/08 का रूम मिला हुआ है. 50 से 60 लोगों के लिए 5 बाथरूम, 5 शौचालय हैं. जिसमें दो से तीन हमेशा खराब रहते हैं. सुबह में उसमें लाइन लगती है. जब सबके ड्यूटी का वक्त होता है तब लाइन लगाना पड़ता है.”

अब इन सबके बीच कई बड़े सवाल उठते हैं कि पढ़ाई और रिसर्च नाम बराबर होगी तो ये लोग अच्छे डॉक्टर कैसे बनेंगे? जब मेंटल ट्रॉमा में होंगे तो कैसे मरीजों का इलाज करेंगे? जब डॉक्टर ही होंगे बीमार तो कैसे देश के हेल्थ सिस्टम का होगा इलाज?

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