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कमला हैरिस पर इतना ना इतराइए, दिल न लगाइए, टूट सकता है

ब्राउन (सांवला) होना आकर्षक है लेकिन अमेरिका की पहचान श्वेत (व्हाइट) और अश्वेतों (ब्लैक) से है

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एक स्तर पर हमलोग सीधे, भावुक लोग हैं. जब हमारे क्रिकेट खिलाड़ी विदेश में जीत हासिल कर लौटते हैं तो हजारों लोग एयरपोर्ट पर उनका स्वागत करते हैं और बड़ी हस्तियां उनकी तारीफ में ट्वीट करती हैं. भगवान न करे अगर वो हार जाते हैं तो लौटने पर उन्हें चुपके से किसी दूसरे दरवाजे से निकलना पड़ता है और इस निराशा के तूफान के खत्म होने का इंतजार करना पड़ता है.

जो लोग अंतरराष्ट्रीय हॉकी मैच को याद रखते हैं उन्हें याद होगा कि कैसे हिंदी कमेंटेटर हर बार अग्रिम पंक्ति के किसी खिलाड़ी के विपक्षी टीम की ओर आगे बढ़ने पर “भारत की लाज” दांव पर लगाने लगते थे. और इसलिए अगर खिलाड़ी का प्रयास सफल नहीं हुआ तो केवल हॉकी का बॉल ही नहीं देश का सम्मान भी बिना किसी रुकावट के साइडलाइन के बाहर चला जाता था. हम यही करते हैं जब भारतीय मूल का कोई विदेशी-अंतरिक्ष यात्री, वैज्ञानिक, नोबेल पुरस्कार विजेता, लेखक-सफल होता है.

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नेशनल टेलीविजन पर उनके बारे में बताया जाता है, टीवी रिपोर्टर उनके पैतृक गांव से पहुंच जाते हैं और दूर के रिश्तेदारों का इंटरव्यू करते हैं जब तक कि ये लोग, जिन्होंने किसी दूसरे देश का सच्चा नागरिक बनने की काफी कोशिश की है, शर्मिंदा होकर भारतीयता के प्रेम पाश से निकलने के लिए छटपटाने नहीं लगते.

हम कमला हैरिस के साथ कुछ ऐसा ही कर रहे हैं. भारत, भिंडी और अपनी भारतीय मूल की मां के बारे में उन्होंने जो कुछ भी कहा वो सब कुछ हमारे अखबारों में भरा पड़ा है. हमारे पास एक अंकल भी हैं- जिन्होंने एक साल से उनसे कोई बात नहीं की है- लेकिन उनके विचार के बारे में हमें बता रहे हैं.

एक वीडियो भी सामने आया है जिसमें वो भारतीय मूल के एक एक्टर के साथ डोसा बनाती दिख रही हैं जिसमें वो स्वीकार करती हैं कि उन्होंने कभी डोसा नहीं बनाया. विदेशों में रहने वाली भारतीयों के वाट्सऐप ग्रुप भी उनके चुने जाने को लेकर खुश हैं, उन्हें लग रहा है कि ये उनकी सफलता का सबूत है.

अब समय थोड़ा वास्तविक होने का है हालांकि, इससे मैं लोकप्रियता के किसी मुकाबले में जीत नहीं सकूंगा.

ब्राउन (सांवला) होना आकर्षक है लेकिन अमेरिका की पहचान श्वेत और अश्वेतों से है. नस्लवाद उस देश को बांट रहा है. ब्लैक लाइव्स मैटर मूवमेंट जोरों पर है. नस्लवाद को बढ़ावा, उसके ऊपर से कोरोना महामारी से लड़ने के लिए ठीक से इंतजाम नहीं कर पाने के कारण ट्रंप चुनाव में बैकफुट पर हैं.

नस्लवाद के मामले में जो बाइडेन का रिकॉर्ड भी अच्छा नहीं रहा है और अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए उन्हें एक अश्वेत चेहरे की जरूरत है. इसके अलावा #MeToo आंदोलन ने लैंगिकता के मुद्दे को इतना बड़ा कर दिया है कि बाइडेन ने उपराष्ट्रपति पद एक महिला के लिए आरक्षित कर दिया. अफ्रीकी अमेरिकन महिलाएं सालों से डेमोक्रेटिक पार्टी का आधार रही हैं, और अब वो नेतृत्व की भूमिका चाहती हैं.

बाइडेन का ‘गौरवांवित अश्वेत महिला’ का चुनाव

100 से ज्यादा अश्वेत सेलिब्रिटीज, एथलीट और विद्वानों ने बाइडेन से चिट्ठी लिखकर अफ्रीकी अमेरिकन महिला को इस पद के लिए चुनने की मांग की थी. अश्वेत वोटों ने शुरुआती दौर में साउथ कैरोलिना में उनके लड़खड़ाते अभियान को संभाला और मिशिगन, विसकॉन्सिन और पेंसिलवेनिया भी उनके खाते में आ सकते हैं जहां पिछली बार डेमोक्रेटिक पार्टी समर्थकों के उदासीन रवैये के कारण ट्रंप को जीत मिली थी.

बाइडेन ने उन महिलाओं का इंटरव्यू खुद लिया जिन्हें उनकी टीम ने चुना था. साफ है कि हैरिस को चुनी गई सीमित अश्वेत महिलाओं में एक अश्वेत महिला के तौर पर चुना गया और जैसे ही अभियान आगे बढ़ेगा उन्हें उसी तौर पर पेश किया जाएगा.

इसका उद्देश्य अश्वेत वोटर को प्राथमिकता देना और लैंगिक और नस्लवाद के मुद्दे पर ट्रंप को बेनकाब करना है, भारतीय अमेरिकी वोट इससे जुड़ा हुआ है.

और सच्चाई यही है कि वो खुद को अश्वेत के तौर पर ही प्रोजेक्ट करती हैं. ये राजनीतिक सूझ-बूझ है: ऐतिहासिक तौर पर अमेरिका में नस्लवाद की बहस में अश्वेत ही दूसरी तरफ होते हैं, ब्राउन (सांवले) और येलो मुख्य भूमिका में नहीं हैं.

कमला ने खुद माना है कि उनकी अपनी बहनों के साथ “प्राउड ब्लैक वीमेन” के तौर पर परवरिश हुई, नागरिक अधिकारों के आंदोलन की प्रतिबद्धता माता-पिता से मिली, ब्लैक चर्च कॉयर की सदस्य रहीं, वाशिंगटन डीसी के ऐतिहासिक रूप से ब्लैक हॉवर्ड यूनिवर्सिटी में पढ़ाई की और देश के सबसे पुराने औरतों के संगठन में शामिल हुईं. जब उनसे उनके अश्वेत विरासत के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि “ ये मेरी हर चीज को प्रभावित करती है.”

हाल ही में वो नस्लवाद और पुलिस की बर्बरता के खिलाफ मुखर रही हैं, उनकी नई योजना का नाम है “हाउ टू स्टैंड अप फॉर ब्लैक अमेरिका”. प्राइमरी डिबेट में वो दो बार बाइडेन से आगे रहीं, दोनों बार एक अश्वेत पहचान के साथ, पहली बार जब उन्होंने बाइडेन की अलगाववादी संवेदना पर हमला किया और अगली बार जब बाइडन ने कैरोल ब्राउन का जिक्र सीनेट में आने वाली इकलौती अश्वेत महिला के तौर पर किया, कमला हैरिस ने बीच में ही टोका, “मैं यहीं पर हूं”. उनकी राजनीतिक आदर्श शर्ली चिशोल्म हैं जो राष्ट्रपति चुनाव की उम्मीदवारी के लिए खड़ी होने वाली पहली अश्वेत महिला थीं.

‘उनके भारतीय मूल के पहले मानवाधिकार’

इनमें से कुछ भी उनकी असाधारण उपलब्धियों को कम बताने के लिए नहीं है. हैरिस ने बहुत ऊंचा मुकाम हासिल किया है और 2024 में वो डेमोक्रेटिक पार्टी की राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार भी हो सकती हैं. उनकी योग्यता और उनकी मजबूत इरादों पर संदेह नहीं है और न ही उनके भारतीय कनेक्शन पर.

उनमें फंड जुटाने की भी अच्छी प्रतिभा है और ये पूरी तरह मुमकिन है कि अमेरिका में रहने वाले अमीर भारतीय उनके लिए अपने दरवाजे खोल दें हालांकि बे एरिया में रहने वाले भारतीयों से उनके संबंध बहुत अच्छे नहीं हैं.

यहां उद्देश्य सिर्फ हद से ज्यादा उम्मीदों को कम करना है. अगर बाइडेन जीतते हैं, हैरिस अमेरिका की भारत को लेकर नीति में एक अहम भूमिका अदा करेंगी और डेमोक्रेटिक पार्टी की मुख्यधारा की चिंताओं का मजबूती से पक्ष लेंगी, उनके अंकल बालाचंद्रन ने भी कहा है कि उनके भारतीय मूल का होने से पहले वो मानवाधिकार की पैरवी के लिए जानी जाएंगी.

ठोस प्रयास के साथ, हैरिस पर उम्मीदों का बहुत ज्यादा बोझ डाले बिना रणनीतिक संबंध के निर्विवाद व्यापक तर्क के भीतर इन चिंताओं को दूर करना संभव होना चाहिए.

चुनी गईं तो वो एक अश्वेत अमेरिकी महिला उप राष्ट्रपति होंगी जिनकी नजर अपने काम पर होगी. हां उनकी रगों में भारतीय खून भी होगा. अगर हम इस सच्चाई को समझ लेंगे तो पहली बार जब वो मानवाधिकारों या नागरिकों के अधिकार या कश्मीर पर बयान देंगी तो हम निराश नहीं होंगे. अगर हम उनकी उम्मीदवारी का राष्ट्रीय जश्न मनाने से बचें तो हम राष्ट्रीय सदमे से भी बचेंगे.

(नवतेज सरना अमेरिका में भारत के राजदूत और यूके में हाई कमिश्नर रह चुके हैं. लेख में शामिल विचारों से क्विंट हिंदी का सहमत होना जरूरी नहीं है.)

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