बिहार सरकार के एक मुस्लिम मंत्री ने गया के विष्णुपद मंदिर में प्रवेश क्या किया कि विपक्ष और कुछ हिन्दू संगठनों ने इसपर वर्तमान सरकार को घेरना शुरू कर दिया. इतना ही नहीं, शर्मनाक तो यह रहा कि उसके बाद मंदिर का शुद्धिकरण भी किया गया. यह कोई अकेली घटना नहीं, बल्कि एक फिल्म अभिनेत्री के बनारस के शिव मंदिर में प्रवेश करने पर भी ऐसे पाखंड किये गए थे. ऐसी अनगिनत घटनाओं पर मुझे निदा फाजली की पंक्ति याद आती है
मस्जिद से उठ-उठकर नमाजी जाने लगे, आतंकियों के हाथ में इस्लाम रह गया”
यह पंक्ति किसी एक मजहब के ठेकेदार से ही नहीं, बल्कि कमोबेश सभी मजहब के ठेकेदारों से संबंध रखती है. सवाल है शुद्धि का, अशुद्धि का और पवित्रता का. यह कमाल की बात है कि पवित्र माने जाने वाले स्थान किसी व्यक्ति विशेष के प्रवेश से अशुद्ध और अपवित्र हो जाते हैं.
भला ईश्वर इतना नाजुक और कमजोर कैसे हो सकता है? अगर सच में गैर-मजहब के लोगों के प्रवेश से ईश्वर अपवित्र हो जाता है तो यह अल्लाह और ईश्वर के अस्तित्व पर सवाल खड़े करने के लिए पर्याप्त है. हिन्दू परंपरा में नदी, पहाड़, पेड़-पौधे, जीव-जंतु सबमें ईश्वरीय गुण माना जाता है या उन्हें साक्षात ईश्वर ही माना गया है तो फिर इन्हें कैसे पवित्र और शुद्ध रखा जाए और यह किसकी जिम्मेवारी है! क्या यहां भी ऐसे निषेध के बोर्ड लगाने होंगे?
शायद प्रकृति रूपी इन वास्तविक ईश्वरों पर सत्ता का नियंत्रण पूरी तरह से नहीं हो सका इसलिए ये बचे रह गए, वरना पहाड़ों में भी मजहबी-कांटे लगा दिए जाते, जंगलों में भी प्रवेश की मनाहियां होती और नदियों के किनारें भी मजहबी पहरेदार लगे होते. हालांकि पिछले कुछ दशकों में अब इन पवित्र चीजों पर भी सत्ता ने तेजी से लगाम लगाया है और इसकी लूटपाट की है, जिसे हाल के हसदेव अरण्य और नियमगिरि के मामलों से समझा जा सकता है.
ईश्वर के नाम पर कौन उठाता है फायदा?
भगवतीचरण वर्मा की प्रसिद्ध किताब है चित्रलेखा, उसमें राजसभा में ऋषि चाणक्य का सवाल बड़े महत्त्व का है. उसने छोटा सा सवाल किया- “ईश्वर को किसने बनाया?” सवाल के बाद सभा सन्न रह गई. यह सवाल शायद छोटा था, लेकिन अपने आप में समाज और व्यवस्था में शक्ति संरचना को समझाने के लिए पर्याप्त है. ईश्वर को रचता-गढ़ता कौन है, और उसके नाम पर फायदे कौन-कौन उठाता है. इसमें कमजोर लोग कहां हैं और ताकतवर लोग कहां हैं.
इस सवाल से जो कुछ जवाब सामने आता है उससे तो यही लगता है कि सबने अपना-अपना अल्लाह-ईश्वर बनाया और फिर शुरू हो गया उसका कारोबार. जो जितना सक्षम उसका उतना बड़ा कारोबार. बिहार में मुस्लिम मंत्री का विरोध ऐसे ही समाज-राजनीति और मजहब के ठेकेदारों के कारोबार पर एक चोट की तरह था जिसे वे सहन नहीं कर पाए और ईश्वर के घर के अपवित्र होने की घोषणा कर डाली.
ध्यान देने की बात यह है कि ईश्वरीय आवासों के अपवित्र होने की घोषणा कर कौन रहा है? उनकी सामाजिक-धार्मिक व राजनीतिक सुचिता की भी पड़ताल की जानी चाहिए. ईश्वर खामोश ही रहा, लेकिन ठेकेदारों ने ईश्वर को फिर से पवित्र करने का अनुष्ठान शुरू कर दिया. इससे बड़ा हास्य और क्या हो सकता है! रचयिता को रचा जा रहा.
फ्रांसीसी समाज विज्ञानी लुईस ड्यूमा ने भारत में जातीय संरचना के अध्ययन के दौरान माना कि इसकी बुनियाद शुद्धता और अशुद्धता की सोच में छुपी हुई है. यह सोच ही समाज में भयंकर भेदभाव का श्रोत है, जिसने एक विखंडित समाज का निर्माण कर रखा है और यही खंडित सोच बिहार के उस मंत्री के विरुद्ध प्रकट हुई, जिन्होंने मंदिर में प्रवेश किया था.
राजसत्ता और धर्म का शुरू से ही जबरदस्त गठजोड़
राजसत्ता और धर्म का शुरू से ही जबरदस्त गठजोड़ रहा है, और इस गठजोड़ में हमेशा ही आम जनता घून की तरह पीसती रही है. इसे प्राचीन हिंदू शासन प्रणाली में भी देखा गया, इस्लामिक साम्राज्य के दिनों में भी यह खूब मुखर रहा, और तो और आधुनिक माने जाने वाले पश्चिम में भी एक समय चर्च और राजसत्ता मिलकर पापमुक्ति का कारोबार करती रही थी.
राजनेता मंदिर जाते हैं, राजनेता मस्जिद जाते हैं, राजनेता चर्च जाते हैं, राजनेता पूजा, प्रार्थना या फिर इफ्तार पार्टी देते हैं, तो क्या सच में आपको लगता है कि उनके भीतर मजहब के उदार विकसित नैतिक मूल्य हैं! यह याद रखा जाना चाहिए कि इस पूरे शुद्धता और अशुद्धता के खेल में आम आदमी कहीं नहीं होता. इसमें दो खिलाड़ी होते हैं- एक मजहबी पुजारी या मौलवी या फादर और दूसरा राजनेता. आम आदमी बस भावना में बही एक भीड़ होती है जिसे हर घटना/दुर्घटना के बाद मिलता है दुख, अफसोस और निराशा.
एक लोकतांत्रिक और वैज्ञानिक समाज में मजहब और राजसत्ता के बीच किसी प्रकार का कोई संबंध नहीं होना चाहिए था, तब जाकर एक वैज्ञानिक और मानवीय समाज का निर्माण किया जा सकता था, लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं होता दिखता.
बाबाओं और मौलवियों के प्रवचनों और तकरीरों में राजनेताओं के मौजूद होने के उदाहरण इतने हैं कि आप गिनते रह जायेंगे. राजसत्ता की चाकरी में व्यस्त मजहबीसत्ता वास्तव में मजहब के मूल विचारों के साथ खेलती ही नहीं, बल्कि ये धार्मिक विचारों को एक विषैली विचारधारा बनाकर समाज को डसती भी है.
मानवीय समाज में विषमता है, शोषण है, अन्याय है, इसलिए मजहब के प्रभाव को पूरी तरह से नकारा नहीं जा सकता. जब आम आदमी टूट जाता है, उसके पास और कोई संबल नहीं, वह जीवन की आपाधापी में भटक जाता है, तो वह किसी परलौकिक सत्ता से उम्मीद करता है, उसकी प्रार्थना करता है. इसमें कुछ बुरा भी नहीं, कुछ अनैतिक भी नहीं. बुरा तब होता है जब ऐसे ही हारे हुए, पराजित लोगों की भावना मजहबी सत्ता और राजसत्ता का एक मोहरा बन जाती है. आम आदमी सेक्युलर है, उसमें सहिष्णुता भी है, उसे कोई दिक्कत नहीं कि उसके मंदिर में मुस्लिम जा रहा है या इसाई, उसे कोई समस्या नहीं कि उसके साथ कौन नमाज पढ़ रहा है और कौन पूजा कर रहा.
वह अपनी रंग-बिरंगी सामूहिकता के साथ जीना चाहता है. इसे बेरंग कौन करता है. मुस्लिम मंत्री के मंदिर में प्रवेश करने पर विरोध करने वाले पुरोहित और राजनेता भी उतने ही अपवित्र हैं जितने कि नीतीश और उनके मंत्री का मंदिर जाना. मजहबी नैतिकता और शुद्धता का दोनों ही जगह अभाव है. दोनों ही तरफ शायद कोई भक्ति-भाव नहीं.
(स्तंभकार केयूर पाठक रैफल्स यूनिवर्सिटी, नीमराना में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं . विचार लेखक हैं और क्विंट ना तो इसको एंडोर्स करता है और ना ही इसके लिए जवाबदेह है )
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