ADVERTISEMENTREMOVE AD

जब तक 'रोटी-बेटी' का रहेगा भेद, भारत से जाति की कुप्रथा खत्म होना मुश्किल

राष्ट्र निर्माण की बात तबतक बेमानी है जबतक जातीय दुराग्रहों से मुक्त नहीं हुआ जाता.

story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा

बाबासाहेब अंबेडकर (B. R. Ambedkar) का मानना था कि जातीय संरचना में निहीत भेदभाव मुख्यतः दो बातों के इर्द-गिर्द घूमती है- ‘रोटी’ और ‘बेटी’. पूरा भेदभाव इन्हीं पर टिका होता है और इन्हीं से ऊर्जा पाता है. ‘रोटी’- मतलब खाने-पीने में दूरी या भेदभाव, इसलिए किसी के जातीय बहिष्कार के लिए जो प्रचलित मुहावरा है वह है- ‘हुक्का-पानी बंद करना’. ‘बेटी’- मतलब वैवाहिक संबंधों को बनाने से परहेज, विशेषकर बेटियों के मामलों में, क्योंकि बेटियां आज भी संपत्ति ही समझी जाती हैं, और जिसके लिए एक अन्य मुहावरा है- ‘बेटियां पराया धन होती हैं’.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

बहुत सारे लोग यह मानते हैं कि जाति आधारित भेदभाव समाप्त हो गया है, तो दूसरी तरफ यह भी माना जाता है कि यह अब भी जारी है. अनेक लोग और अनेक तरह के अनुभव. शहर के अलग, गांव के अलग और कस्बों के अलग. इसलिए किसी एक निष्कर्ष पर दावे के साथ तो कुछ नहीं कहा जा सकता, लेकिन यह भी एक बड़ा तथ्य है कि आधुनिकीकरण और शहरीकरण के बाद भी यह समाज के बड़े हिस्से में मौजूद है. और इसकी मौजूदगी समाज में एक बड़ी खाई को पैदा किये हुए है. जिस कारण एक ही जगह और एक ही उदेश्यों के साथ जीने वाले लोग भी अपनी सामाजिक अंतर्क्रिया में एक सामाजिक-दूरी का पालन कर रहे हैं.

इस सामाजिक-दूरी ने समाज के मन और शरीर को असंख्य बार छलनी किया है. और यह दूरी ‘बेटी’ के मामले में तो भयंकर है ही, ‘रोटी’ के मामले में भी अमानवीय है. हम यहां जाति के बारे में किसी धार्मिक ग्रन्थ में क्या है और क्या नहीं है इस विमर्श में नहीं जाना चाहेंगे, क्योंकि इसपर अलग-अलग व्याख्याएं और विचार हैं. हम बस दो दृष्टान्तों के माध्यम से यह बताना चाहेंगे कि यह किस प्रकार आज भी ग्रामीण समाज की एक अभिशप्त परंपरा है.

पहला दृष्टान्त बिहार के सीतामढ़ी जिले के अति-पिछड़ी जाति से आनेवाले एक शख्स की है. उन्होंने हमसे बताया,

“हमारे यहां एक बार एक विवाह समारोह का आयोजन हुआ जिसमें जाति-बिरादरी के लोग आये हुए थे. मैंने अपने एक दलित मित्र को भी उसमें आमंत्रित किया था. खाने के समय अपनी बिरादरी की पंक्ति में हमने उसे भी ससम्मान बैठाया, लेकिन वहां उपस्थित लोगों ने मुझे सख्ती से निर्देश दिया कि इसे अलग पंक्ति में बैठाया जाए या फिर बाद में इसे भोजन परोसा जाए, क्योंकि जाति-बिरादरी की पंक्ति में किसी दलित को बैठने देने से उनका अपमान होगा. मजबूरन मुझे उनके निर्देश का पालन करना पड़ा”.

दूसरा मामला भी उसी शख्स से जुड़ा है जो उसने बताया- “एक बार मेरे गांव में एक ब्राहमण परिवार में एक विवाह का आयोजन हुआ जिसमें दो दिनों का भोज रखा गया. पहले दिन केवल जाति-बिरादरी के लिए भोज था, जिसमें खाने-पीने का बेहतर प्रबंध किया गया था. उसमें अनेक प्रकार की मिठाइयां परोसी गई थीं. लेकिन दूसरे दिन के भोज में जब अन्य जातियों के लिए, खासकर दलित और पिछड़े समुदायों के लिए, भोजन परोसा गया तो वह बेहद ही मामूली प्रकार का था”.

ये दो दृष्टान्त पहली नजर में सामान्य से लगते हैं, ऐसा जैसे इसमें कुछ अमानवीय नहीं, लेकिन यह मूलतः ग्रामीण समाज में गहरे पैठे जातीय संरचना और इससे होने वाले उत्पीड़न को दर्शाने के लिए पर्याप्त है. इन दो मामलों से जो बातें हमारे सामने आती हैं वे हैं-

  • सामाजिक समारोह मुख्यतः एक जाति विशेष तक ही सीमित होता है. जैसे अगर विवाह सवर्ण समाज में हो रहा है तो उसमें केवल उन्हीं जातियों के लोगों की प्राथमिक भागेदारी होती है. दलित या अन्य पिछड़ी जातियों से अगर किसी को बुलाया भी जाता है तो वह व्यक्तिगत आमंत्रण होता है न कि सामुदायिक. इसी प्रकार पिछड़ी या दलित जातियां अगर आयोजन करती हैं तो अगर व्यक्तिगत तौर पर वे आमंत्रित किये भी जाते हैं तो उनके भोजन का प्रबंध अलग से करवाया जाता है. ऊंची मानी जाने वाली जातियों को अगर अलग से खाने का प्रबंध किया जाता है तो उसका उद्देश्य ऊंची जातियों की “शुद्धता” और घमंड को बचाए रखना है.

  • निचली जातियों ने भी अपने भीतर एक जातीय संरचना का वैसा ही पालन किया है जैसा सवर्ण जातियां अन्य जातियों के साथ करती हैं. पिछड़ी जातियां और दलित समुदाय भी अपने सामाजिक उत्सवों में इस प्रकार का एक संस्तरण बनाये हुए होते हैं. जातीय श्रेष्ठता का बोध केवल सवर्णों में नहीं, बल्कि अन्य सभी जातियों में अन्य जातियों के सापेक्ष होती हैं जो तमाम अवसरों पर प्रकट होते रहते हैं. सभी समाज का अपना एक छोटा-बड़ा इतिहास है जो उसे नफरती एकता के लिए प्रेरित करता रहता है.

  • सामाजिक समारोहों में अगर दलित या पिछड़ी जातियां आमंत्रित होती भी हैं तो उनका प्रबंध दोयम दर्जे का होता है. उनके खाने का प्रबंध अलग किया जाता है न कि साथ में. और ऐसा करने का उधेश्य भी अपनी तथाकथित शुद्धता और जातीय अहंकार को बचाए रखना ही होता है. सवाल उठता है कि जब उन्हें वे अपनी पंक्ति में भोजन नहीं परोसते तो बुलाते क्यों है, संभवत इसका एक बड़ा कारण उनका वह जातीय अहंकार है जिसके कारण उन्हें लगता है कि चुंकि वे श्रेष्ठ है इसलिए उनका यह कर्तव्य है कि निचली जातियों को भी भोजन कराया जाए.

  • कई बार वैज्ञानिक मूल्यों से प्रेरित युवा इसे तोड़ने का प्रयास तो करते हैं लेकिन मात्र व्यक्तिगत प्रयास से इतनी जटिल संरचना को तोड़ा जाना कठिन है. क्योंकि गांवों में व्यक्ति से बड़ा समाज होता है, इसलिए बिना सामूहिक सहमति और प्रेरणा से पहल करने पर सामाजिक दबाव बढ़ जाता है और एक सामाजिक संघर्ष की स्थिति बन जाती है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

यह याद रखा जाना चाहिए कि राष्ट्र निर्माण की बात तबतक बेमानी है जबतक जातीय दुराग्रहों से मुक्त नहीं हुआ जाता. इससे निकलकर ही एक मजबूत राष्ट्र और समाज की संकल्पना की जा सकती है. यह स्वीकारा जा सकता है कि ‘बेटी’ के मामले में जातीय दुराग्रह अचानक से ग्रामीण समाज से नहीं निकाला जा सकता, यह एक प्रक्रिया है जो धीरे-धीरे हो भी रही है और आगे भी होती रहेगी, लेकिन कम से कम ‘रोटी’ के मामलों से निकल जाने में जितनी जल्दीबाजी की जाये बेहतर है. भोजन की सामूहिकता ह्रदय के मैल को धो देती है.

(लेखक केयूर पाठक रैफल्स यूनिवर्सिटी, नीमराना में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं और श्रीराम साहू चंदौना कॉलेज, सीतामढ़ी में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं.)

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
अधिक पढ़ें
×
×