भारत अपनी चमड़ी और खासकर चेहरे के रंग के लेकर बेहद शर्मिंदा मुल्क है. यह भारतीय समाज का प्रभावी विचार है कि काला असुंदर है और गोरा होना सुंदर होना है, कि गोरे लोग बेहतर, अक्लमंद और श्रेष्ठ होते हैं और काले लोग उनसे कमतर होते हैं. हाल ही में महाराष्ट्र में इस विचार ने एक त्रासदी का रूप ले लिया, जब अपने चेहरे के रंग को लेकर दिए जा रहे तानों से नाराज होकर एक महिला ने खाने में जहर मिला दिया, जिससे उनके चार परिजनों की मौत हो गई.
चेहरे के रंग को लेकर दिए जाने वाले हर ताने का अंत इतना हिंसक नहीं होता, लेकिन कोई आदमी अगर सिर्फ अपने स्किन कलर को लेकर लगातार अपमान झेल रहा है, तो ऐसे हर ताने के साथ उसकी पर्सनाल्टी का एक हिस्सा जरूर मर जाता है या आत्मविश्वास कमजोर पड़ जाता है. काले रंग को लेकर हो रही अवमानना और अपमान के खिलाफ हिंसा की मिसालें कम हैं, लेकिन काले रंग की वजह से होने वाली तमाम तरह की मौखिक, वैचारिक हिंसा की घटनाएं रोज होती हैं.
मिसाल के तौर पर
1. भारत में शादी के विज्ञापनों में संभावित वर या वधू के गौरवर्ण या फेयर होने का जिक्र किसी क्वालिफिकेशन की तरह होता है. चेहरे का साफ रंग भारतीय समाज में, खासकर लड़कियों के मामले में एक पूंजी है, जिससे अच्छी नौकरी से लेकर अमीर दूल्हा तक मिलता है. अगर शादी को एक बाजार मानें जहां हर तरह का माल मंडी में है तो जिसके चेहरे का रंग फीका या पीला है, वह बाकी मामलों में समान क्वालिटी होने के बावजूद, बाकी माल से महंगा बिकेगा. भारत के लोग अमेरिका में बस जाने के बावजूद शादी के लिए अक्सर गोरी बहू की ही तलाश करते हैं. एक रिसर्चर ने मेट्रिमोनियल साइट्स पर अलग अलग स्किन कलर की प्रोफाइल अपलोड करने पर पाया कि गोरी लड़कियों की प्रोफाइल पर ज्यादा रेस्पॉन्स आए.
2. गोरेपन की क्रीम के एक विज्ञापन में एक लड़की के पिता अफसोस करते हैं कि वह लड़का क्यों नहीं हुई. फिर वह लड़की एयर होस्टेस बनने जाती है और अपने सांवले रंग के कारण रिजेक्ट कर दी जाती है. वही लड़की गोरेपन की क्रीम लगाती है, उसके चेहरे का रंग हल्का हो जाता है और उसकी जिंदगी रंगीन हो जाती है.
3. एक लड़का निराश है क्योंकि लड़कियां उसे पसंद नहीं करतीं. लेकिन एक सुपरस्टार की सलाह पर मर्दों के गोरेपन की एक क्रीम लगाने के बाद उसी लड़के को ढेर सारी लड़कियां फ्लर्ट करने लगती हैं. लड़के में आत्मविश्वास आ जाता है.
भारत में लोगों के चेहरे का जो औसत रंग है, उसे लेकर धर्म ग्रंथों से लेकर फिल्म और टीवी जैसे संचार माध्यमों ने एक हीनता का भाव पैदा कर दिया है. इसका नतीजा है फेयरनेस प्रोडक्ट का भारत में 1,350 करोड़ रुपये का सालाना बाजार.
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4. महाराष्ट्र सरकार ने 2008 में आदिवासी लड़कियों को एयरहोस्टेस की ट्रेनिंग देने की एक स्कीम शुरू की थी. इसके तहत 100 लड़कियों को पुणे के एक प्राइवेट इंस्टीट्यूट में एक-एक लाख रुपये की फीस देकर ट्रेनिंग दिलाई गई. लेकिन इनमें से सिर्फ आठ लड़कियों को नौकरी मिली. वह भी ग्राउंड स्टाफ की. कोई लड़की एयरहोस्टेस नहीं बन पाई. हवाई यात्रा करते समय आपने नोटिस किया होगा कि एयरहोस्टेस अक्सर गोरी ही होती हैं, जबकि उनके काम का चेहरे के रंग से कोई लेना देना नहीं है.
5. सिनेमा में गोरेपन को सुंदरता के प्रतीक के तौर पर लिया जाता है. हीरोइनों को खास तौर पर गोरी दिखाया जाता है. कुछ हीरोइनों ने इंडस्ट्री में बने रहने के लिए अपने सांवले रंग को जिंदगी भर छिपाया. गानों में गोरेपन की बहुत महिमा है. गोरिया रे, गोरी है कलाइयां, गोरी तेरा गांव बड़ा प्यारा जैसे गीत आपने सुने ही हैं. इस समय जो सबसे सफल हीरोइनें हैं, जैसे प्रियंका चोपड़ा, करीना कपूर, आलिया भट्ट, दीपिका पादुकोन, कटरीना कैफ, जैकलीन फर्नांडिस वगैरह, ये जिस रंग की हैं या इनको स्क्रीन पर जिस रंग का दिखाया जाता है, वह ज्यादातर भारतीय लोगों के चेहरे का रंग नहीं है. फिल्मों के ये किरदार गोरेपन को लेकर भारतीय मानस में एक ग्रंथी पैदा कर रहे हैं या फिर कहें कि भारतीय मानस में ऐसी कोई ग्रंथी है, जिसकी वजह से बॉलीवुड ऐसी ही हीरोइनें लेकर आ रहा है.
6. मिस इंडिया से लेकर शहरों में होने वाले ब्यूटी कॉन्टेस्ट में जीतकर आने वाले प्रतिभागियों में भी यही चलन दिखता है. गोरा होना वहां भी जीतने की जरूरी शर्त है.
भारत में काले रंग को लेकर लोगों में हीनताबोध इतना कूट-कूट कर भर दिया गया है कि भारत गोरेपन की क्रीम और अन्य फेयरनेस प्रोडक्ट्स का दुनिया का सबसे बड़ा बाजार बन गया है.
कंपनियों ने जल्द ही भांप लिया कि ज्यादातर भारतीय अपने चेहरे के रंग को लेकर खुश नहीं हैं. भारत में पहली फेयरनेस क्रीम 1978 में बाजार में आई. अब कई देसी और मल्टीनेशनल कंपनियां भारत में गोरेपन की क्रीम बेच रही हैं.
जब गोरेपन की क्रीम नहीं थी, तो माताएं बेटियों को धूप में जाने से रोकती थीं और हल्दी-चंदन का उबटन लगाती थीं. अब क्रीम से लेकर डिटैन और ब्लीच जैसे ऑप्शन भी आ गए हैं. अब कस्बों के सलून भी चेहरे का रंग साफ करने के लिए डिटैन और ब्लीच ऑफऱ करने लगे हैं. सिर्फ गोरेपन की क्रीम का भारत में सालाना बाजार 2017 में 1,350 करोड़ रुपए से ज्यादा का था. यह बाजार तेजी से बढ़ रहा है. मर्दों की गोरेपन की क्रीम उतारकर कंपनियों ने एक और बाजार की खोज कर ली है.
यह सब उस देश में हो रहा है, जिस देश के किसी भी व्यक्ति को अंतरराष्ट्रीय मान्यताओं के हिसाब से गोरा नहीं माना जाता. गोरा रंग अगर किसी नस्लीय पहचान से जुड़ा है तो वह नस्ल कॉकेसियन है. दुनिया भारत के लोगों को कॉकेसियन नहीं मानती. उनके लिए भारत के लोग नॉन ह्वाइट यानी अश्वेत ही हैं. लेकिन भारत के लोग मध्य और दक्षिण अफ्रीकी महाद्वीप के लोगों को देखकर खुद गोरा होने की गलतफहमी पाल लेते हैं.
भारत में जिनको गोरा कहा जाता है उनका रंग दरअसल गेहुंआ है. लेकिन उनमें से भी जो लोग शारीरिक श्रम ज्यादा करते हैं और खासकर धूप में रहते हैं, उनका रंग ज्यादा गहरा हो जाता है.
पी. रंजीत के निर्देशन में बनी रजनीकांत की फिल्म काला में विलेन बना मनु बिल्डर का मालिक अभ्यंकर रजनीकांत के नाम का मजाक उड़ाते हुए कहता है कि – “काला, ये कैसा नाम है.” इस पर रजनीकांत जवाब देता है कि “काला रंग है मेहनत का.” लेकिन यह आत्मविश्वास काफी हद तक फिल्मी है. और वह भी किसी फिल्म में इसलिए दिख गया है कि फिल्म के निर्देशक पी. रंजीत हैं, जो आंबेडकरवादी हैं. इसलिए शायद यह डायलॉग फिल्म में आ गया. वरना काले रंग को मेहनत या स्वाभिमान से जोड़ना आसान नहीं है.
भारत और दक्षिण एशिया के लोगों में गोरे रंग प्रति यह ललक और काले रंग के प्रति अवमानना का यह भाव क्यों हैं और यह विचार आ कहां से रहा है? इस रंगभेद का वैचारिक स्रोत कहां हैं?
1. दरअसल भारत गर्म मौसम वाला मुल्क है, इसलिए जो लोग मेहनत नहीं करते या ज्यादा समय घर के अंदर रहते हैं, उनके चेहरे में सफेदी ज्यादा होती हैं. चूंकि मेहनत करने वालों की तुलना में मेहनत का काम न करने वाले श्रेष्ठ माने जाते हैं, इसलिए स्वाभाविक है कि मेहनत करने वालों का रंग काला हीनताबोधक है और सफेद रंग श्रेष्ठता का प्रतीक.
2. काले रंग के प्रति अवमानना का भाव हमारी भाषा और साहित्य में भी है. शब्दकोश में भी काले रंग को हीनता का या बुराई का प्रतीक माना जाता है. मिसाल के लिए किसी शब्द या विचार या मुहावरे के साथ काला जुड़ते ही उसका अर्थ बुरा हो जाता है, जैसे काला धन, काला दिल, काला कारनामा, काला जादू, मुंह काला करा लिया, इतिहास का काला अध्याय आदि. इसी तरह सफेद रंग को शुचिता, शुद्धता, पवित्रता आदि के प्रतीक के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है.
3. लोकस्मृति में और धर्मग्रंथों में भी देवी-देवताओं और अप्सराओं को गौरवर्ण का और उनके विरोधी राक्षसों, दैत्यों और दानवों को काले रंग का बताया गया है. अपवाद के तौर पर, राम और कृष्ण को सांवला भी बताया जाता है, लेकिन जब उनकी तस्वीर या मूर्ति बनाई जाती है, तो उन्हें नीला बना दिया जाता है क्योंकि देवता के सांवले होने को लोग स्वीकार नहीं कर पाएंगे.
4. आर्य जब भारत आए तो वे भारत के लोगों की तुलना में गोरे थे. इसके बाद दूसरे लोग आए. वे भी भारत के लोगों से गोरे थे. फिर अंग्रेज आए. ये तमाम लोग विजेता थे, मुमकिन है कि इसी वजह से गोरे रंग को श्रेष्ठता का प्रतीक मान लिया गया हो और जो हार गए उनके चेहरे का रंग असम्मान का कारण बन गया हो. वैसे भी विजेताओं की संस्कृति ही प्रभावशाली होती है और उनके विचार ही समाज में प्रभावी हो जाते हैं.
5. कई सौ साल से चली आ रही वर्ण व्यवस्था में वर्ण शब्द का अर्थ ही रंग है. इसमें श्वेत वर्ण वाले श्रेष्ठ और काले वर्ण वालों के निकृष्ट होने की एक सीढ़ीदार व्यवस्था बनाई गई है.
भारत के ज्यादातर बच्चे ऐसी ही कहानियां, इतिहास और कथाएं सुनकर बड़े होते हैं. उनके दिमाग में बचपन से भरा जाता है कि गोरा होना ही सुंदर होना है. बचपन में सीखी ये मान्यताएं मरते दम तक उनका साथ नहीं छोड़तीं. गोरेपन के प्रति श्रेष्ठता बोध भारतीय लोगों के प्राथमिक सामाजीकरण यानी प्राइमरी सोशलाइजेशन का हिस्सा है. ये समाजीकरण परिवार, स्कूल और आसपास के वातावरण जैसे किताब-फिल्म-सीरियल आदि देख कर होता है. भारत अपने चेहरे के रंग को लेकर शर्मिदा होना बंद कब करेगा, इस सवाल का जवाब आसान नहीं है. अभी तो उसकी शर्मिंदगी बढ़ने और गोरेपन के प्रोडक्ट की खरीदारी में जुटने का समय है.
एक रास्ता अफ्रीकी देश घाना ने दिखाया है. 2016 में वहां सभी फेयरनेस प्रोडक्ट पर पाबंदी लगा दी गई क्योंकि इन प्रोडक्ट में ऐसे केमिकल पाए गए, जिनसे कैंसर होता है. कांग्रेस की सांसद विप्लवा ठाकुर ने राज्य सभा में मांग की थी कि फेयरनेस प्रोडक्ट पर पाबंदी लगाई जाए, क्योंकि ये रंगभेद को बढ़ावा देते हैं और महिलाओं के आत्मविश्वास के साथ खिलवाड़ करते हैं. लेकिन भारत अपनी तरह का अनूठा मुल्क है. यहां ऐसा कर पाना आसान नहीं है.
(दिलीप मंडल सीनियर जर्नलिस्ट हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है. आर्टिकल की कुछ सूचनाएं लेखक के अपने ब्लॉग पर छपी हैं.)
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