उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अजय सिंह बिष्ट उर्फ योगी आदित्यनाथ के उदय ने हिन्दुत्व के सहज और परंपरागत स्वभाव को अभूतपूर्व तरीके से खतरे में डाल दिया है.
जो कुछ भी उनकी विचारधारा से मेल नहीं खाता, उनके नाम बदल डालने की योगी सरकार की आदत हो गई है. ‘अर्धकुम्भ’ से ‘अर्ध’ हटा दिया गया है और अब यह ‘कुम्भ’ कहा जा रहा है, जो कहीं से भी तर्कसंगत न होकर बिल्कुल अलग है.
कुंभ की उत्पत्ति
आदि शंकराचार्य ने ‘कुंभ’ की बुनियाद रखी थी, जिन्हें 8वीं शताब्दी में हिन्दू धर्म के पुनरोद्धार का प्रतीक माना जाता है. इसके जरिए यह व्यवस्था कायम हुई कि चर्चा और बहस के लिए नियमित रूप से संन्यासी इकट्ठा हुआ करेंगे.
लेकिन उस दर्शन से अलग आज इसे कई तरीकों से बेहद खर्चीले आयोजन में बदल दिया गया है ताकि केंद्र में सत्ताधारी सरकार को फायदा पहुंचाया जा सके. 2019 के आम चुनाव से पहले हिन्दू वोट बैंक को मोड़ा जा सके.
हमारी संस्कृति और परंपरा के अनुसार कुंभ के उत्सव की सराहना करने के परिप्रेक्ष्य में इसकी उत्पत्ति और सोच को समझना बहुत जरूरी है. ‘कुंभ’ शब्द का अर्थ होता है ‘मिट्टी का घड़ा’. कुंभ मेले से जुड़ी पुराणोक्ति, जिस पर इस सोच की पूरी आधारशिला है, के अनुसार देवताओं और राक्षसों के बीच इस अमृत के घड़े (कुंभ) के लिए संघर्ष हुआ था. दोनों ने मिलकर यह सागर मंथन किया था.
कुंभ का अर्थ
संघर्ष के दौरान अमृत की बूंदें कुंभ मेले के चार स्थलों प्रयागराज, हरिद्वार, त्रयम्बकेश्वर नासिक और उज्जैन में गिरे थे और माना जाता है कि खगोलीय व्यवस्था के तहत हर बारहवें साल में उस अमृत से नदियां धन्य होती हैं. तीर्थयात्रियों के लिए यह मौका होता है कि वह इस पवित्र अमृत में स्नान करें. ‘कुंभ’ शब्द अमृत के घड़े वाले इसी मिथक से जुड़ा हुआ है.
माना जाता है कि प्रयागराज में अमृत के पुन: प्रकट होने के लिए उपयुक्त ग्रहों की स्थिति निम्नानुसार है. ये हैं :
- जब बृहस्पति मेष नक्षत्र में प्रवेश करता है और सूर्य एवं चंद्रमा मकर नक्षत्र में होते हैं, तो कुंभ उत्सव अमावस्या के दिन प्रयागराज में आयोजित किया जाता है.
- जब सूर्य मकर राशि में होता है और बृहस्पति वृष राशि में जाता है, तो कुंभ पर्व प्रयागराज में आयोजित किया जाता है.
वर्तमान में बृहस्पति न तो मेष और न ही वृषभ के करीब है. यह ग्रह 11 अक्टूबर 2018 से वृश्चिक राशि में है. और, यह 30 मार्च 2019 को धनु राशि में प्रवेश करेगा.
हमें अपने धर्म को उसके दर्शन और उसकी परंपराओं के आलोक में आगे बढ़ाना चाहिए. ध्रुवीकरण करने के लिए इसका इस्तेमाल नहीं करना चाहिए.
क्या है ‘वास्तविक’ कुंभ?
दोबारा अमृत प्रकट होने के विश्वास के साथ अनंत काल से करोड़ों तीर्थयात्री जीवन में रोजमर्रा की चुनौतियों से ऊपर उठकर कुंभ की ओर खिंचे चले आते रहे हैं. ऐसा नहीं है कि सरकार की नीतियां और योजनाएं, अच्छे डिजाइनदार टैग लाइनें और आकर्षक विज्ञापनों की वजह से लोग इस महोत्सव में खिंचे चले आते हैं. यह सहज परंपरा में उनका विश्वास है और पवित्रता, शुभता और अमरत्व की लालसा में गोते लगाने की ललक है जो करोड़ों लोगों को उस युग में भी प्रेरित करती रही है जब आना-जाना मुश्किल था और संचार के साधन भी नहीं थे.
एक उत्सव का गलत महिमामंडन वास्तव में वास्तविक कुंभ नहीं है. यह हमारे धर्म और उसकी परंपराओं के साथ हमारे मौलिक संबंध पर आघात है.
बुरी बात तो यह भी है कि संदिग्ध नाम वाले इस उत्सव के लिए देश से बाहर के लोगों को भी न्योता दे दिया गया. इस उत्सव से जुड़ी सभी परंपराओं में महत्वपूर्ण परंपरा यह भी है कि वास्तविक कुम्भ के लिए किसी को न्योता नहीं दिया जाता है.
योगी सरकार की कुंभ की ‘नयी परिकल्पना’
माना जाता है कि दैवी हस्तक्षेप से कुंभ मेले का आयोजन होता है जिसका अपना अलग आकर्षण है और जिसने तीर्थयात्रियों को हमेशा से ही आकर्षित किया है. आप वास्तव में किसी कुंभ की मेजबानी नहीं कर सकते, आप किसी को कुंभ में आमंत्रित नहीं कर सकते और न ही आप किसी कुंभ में अतिथि हो सकते हैं.
यह ऐसी परंपरा है जो सदियों से चली आ रही है और अब दुखद बात ये है कि इस पर वोटों के लिए बेचैन वर्तमान सरकार आघात कर रही है.
हमारा संविधान कहता है कि राज्य का कोई धर्म नहीं होता. लेकिन क्या एक सरकार को किसी धर्म को गर्त में गिराने का अधिकार है? आज सरकार ने सत्ता के लिए मेरे धर्म को और कई अन्य चीजों को नीचा दिखाया है जो शर्मनाक है.
(ईशानी शर्मा वी एंड के लॉ की पार्टनर और दिल्ली हाईकोर्ट की वकील हैं. यहां व्यक्त विचार लेखिका के हैं. इसमें क्विंट की सहमति जरूरी नहीं है)
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