ADVERTISEMENTREMOVE AD

संडे व्यू: मणिपुर में बर्बरता-क्रूरता पर खामोशी, नफरत से देश का नुकसान

पढ़ें प्रताप भानु मेहता, श्याम सरन, टीएन नाइनन, तवलीन सिंह और स्वपन दास गुप्ता के विचारों का सार.

Published
story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा

मणिपुर में बर्बरता-क्रूरता पर देश खामोश

प्रताप भानु मेहता ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि मणिपुर में हिंसा कई कारणों से चौंकाने वाली है. मगर, जो बर्बरता और क्रूरता बड़े पैमाने पर दिखी है उस ओर देश का ध्यान नहीं जा सका है. नेतृत्व का श्रेय लेने से कभी नहीं चूकने वाले प्रधानमंत्री यहां अनुपस्थित हैं. धारा 355 लागू होने के बाद भी डबल इंजन सरकार हिंसा को नियंत्रित करने में असमर्थ है.

मणिपुर की राजनीति का अंतर्विरोध खत्म होने का नाम नहीं लेता. जब कभी भी केंद्रीय सत्ता दो जातीय पहचान आधारित समूहों में बंटवारे का प्रयास करता है तो इसके नतीजे खतरनाक होते हैं. मणिपुर में कुकी और मैतेई के बीच बंटवारे की ऐसी ही कोशिश हुई है. एसटी कोटे में शामिल किए जाने की मांग वास्तव में मौजूदा लाभार्थियों के लिए खतरा है. घाटी और पहाड़ियों के बीच का तनाव एक और वजह है. कुकियों के भूमि अधिकारों की रक्षा अन्य समूहों के लिए अवसर समाप्ति की आशंका को जन्म देता है. तीसरी बात है कि कुकी मानते हैं कि मैतेई लोगों का राजनीति में प्रभुत्व है.

प्रताप भानु मेहता संवैधानिक मूल्यों को निष्पक्ष रूप से लागू करने में सक्षम राज्य की आवश्यकता महसूस करते हैं. इसके लिए पहचान का सम्मान करने वाली राजनीतिक संस्कृति की आवश्यकता को वे चिन्हित भी करते हैं. लेखक इस बात पर चिंता जताते हैं कि केद्र सरकार ने मणिपुर को मानवाधिकारों के उल्लंघन, उकसाने वाली हिंसा और अभूतपूर्व स्तर तक सैन्यीकरण का अड्डा बना दिया है. लोकतांत्रिक भारत में ‘बांटो और राज करो’ का मतलब है कि राज्य खुद एक या दूसरे समूह में फंस गया है. इससे राज्य की शासन करने की क्षमता घटी है. आम तौर पर यह सहमति देखी जाती है कि राज्य के सुरक्षा बलों और पुलिस पर तटस्थ और निष्पक्ष होने का भरोसा नहीं किया जा सकता.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

नफरत से देश का नुकसान

तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि नये संसद भवन के उद्घाटन के साथ मोदी सरकार के 9 साल भी पूरे हुए. मगर, नीटकीय उद्घाटन समारोह की चर्चा ज्यादा रही और उसमें गुम होकर रह गये 9 साल की उपलब्धियां. बहुत सारे लेख छपे. कसीदे पढ़े गये. ऐसा नहीं है कि मोदी सरकार ने ऐसे काम न किए हों कि कसीदे ना पढ़े जा सकें. मगर, नफ़रत की बात को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. माहौल इतना खराब हुआ है कि सोशल मीडिया पर औरंगजेब की तारीफ करने पर दंगे भड़कने लगे हैं. डिप्टी सीएम देवेंद्र फडणवीस ने जिस तरीके से कहा- ‘औरंगजेब की औलादें पैदा हो गयी हैं’, यह चिंताजनक है.

तवलीन सिंह लिखती हैं कि पहले ऊंचे पदों पर बैठे नेता संयम बरता करते थे. अब प्रसिद्ध टीवी एंकर भी अपने कार्यक्रम में ऐसी बातें बोलने की इजाजत देते हैं. बीजेपी के तमाम प्रवक्ता यह कहते हुए सुने गये कि औरंगजेब के समर्थकों के लिए भारत में कोई जगह नहीं है. माहौल इतना बिगड़ा कि बालासोर के दर्दनाक रेल हादसे के बाद बीजेपी की ट्रोल सेना लग गयी.

दुर्घटनास्थल के पास मस्जिद मौजूद होने की बात प्रचारित की गयी. बाद में मालूम हुआ कि जिसको मस्जिद कह रहे थे वह वास्तव में मंदिर है. जब दंगा फासाद होने के बाद सिर्फ मुस्लिम दंगाइयों के मकान तोड़ने के लिए बुल्डोजर भेजे जाते हैं तो प्रधानमंत्री की तरफ से निंदा का एक शब्द सुनने को नहीं मिलता. इन कारणों से नरेंद्र मोदी की दुनिया में सांप्रदायिक नेता की छवि बन गयी है. इस वजह से इस बार जब मोदी अमेरिका जाएंगे तो तय है कि उनके विरोध में प्रदर्शन होंगे. पीएम मोदी को इस बात की चिंता होनी चाहिए कि उनकी बदनामी से देश की बदनामी होती है. राहुल गांधी ने अमेरिका में कहा है कि देश में विचारधारा की लड़ाई है. नफरत फैली है. आरएसएस इस पर चुप क्यों है.

ज्योतिषी हों या राजनीतिक पंडित- नजरिया ही महत्वपूर्ण

स्वपन दास गुप्ता ने टेलीग्राफ में लिखा है कि ज्योतिषी बहुत कम इकट्ठी आवाज में कुछ बोलते हैं. एक बात इन दिनों ज्योतिषी कह रहे हैं कि मोदी सरकार का बुरा समय इस साल सितंबर-अक्टूबर तक चलेगा. उसके बाद आम चुनाव 2024 तक वे बेरोकटोक आगे बढ़ेंगे. पीएम नरेंद्र मोदी को तीसरा कार्यकाल मिलने की बात कहते हुए इन ज्योतिषियों का यह भी कहना है कि जून 2024 तक मुश्किल भरे समय होंगे. अगला आम चुनाव भी बहुत नजदीक होगा. ज्योतिषी मानते हैं कि उनका आकलन ग्रहों की दशा, चाल और विषय से जुड़े आंकड़ों पर निर्भर करते हैं.

स्वपन दास गुप्ता लिखते हैं कि राजनीतिक विश्लेषकों के साथ भी ज्योतिषी जैसी ही स्थिति होती है. कई घटनाएं और रुझानों और उनकी क्रिया-प्रतिक्रियाओं पर विश्लेषण निर्भर करता है. व्यक्तिकगत या फिर सामुदायिक तौर पर इन घटनाओं और रुझानों को कैसे लिया गया, इसे समझना मुश्किल होता है. वक्त सही धारणा तैयार करने में मदद करता है.

कोविड के दौर की याद दिलाते हुए लेखक लिखते हैं कि रेलवे के जरिए पैदल चलते लोगों को घरों तक पहुंचाने की पहल करते वक्त ‘कोरोना एक्सप्रेस’, वैक्सीन अभियान के दौरान ‘मोदी वैक्सीन’ की सोच सामने आयी थी. मगर, आखिरकार महामारी से सफलता के साथ लड़ने में मोदी सरकार को श्रेय दिया जाता है.

बालासोर रेल दुर्घटना के बाद रेल बजट के दुरुपयोग, नयी संसद निर्माण जैसे तमाम मुद्दे उठाए गये. लेकिन, ऐसा पहली बार देखा गया कि रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव ने स्वयं दुर्घटना के बाद की परिस्थिति को ओडिसा सरकार के सहयोग से संभाला. एक समय के बाद अश्विनी वैष्णव का प्रयास भी सराहा जाएगा. यह पूरी तरह से सोच पर निर्भर करता है. मोदी सरकार मणिपुर, महिला पहलवान, महंगाई, बालासोर जैसी घटनाओं का सामना कर रही है. लेकिन 2024 में कौन सा एजेंडा किस रूप में सेट होगा- यह अनिश्चित है. इस अनिश्चितता को समझने का संघर्ष राजनीतिक पंडितों का भी है और ज्योतिषियों का भी.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

यूएन में सुधार के लिए जी-20 का हो इस्तेमाल

श्याम सरन ने हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा है कि जलवायु संकट, सामूहिक विनाश के हथियारों का फैलाव, वैश्विक आतंकवाद, कोविड-19 जैसी महामारी, साइबर सुरक्षा और अंतरिक्ष धारित संपत्ति की सुरक्षा बड़े प्रश्न हैं. इन वैश्विक चुनौतियों के प्रभाव स्थानीय हैं. सीमा से परे ये बहुआयामी सवाल हैं. उदाहरण के लिए प्लास्टिक कचरा और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक जहरीली चीजें समुद्र में डंप ना हो- बड़ा प्रश्न है. मगर, स्थानीय स्तर पर विभिन्न देशों में इसका अनुपालन गंभीरता से नहीं होता. वर्तमान बहुस्तरीय व्यवस्था द्वितीय विश्व युद्ध के बाद बनी यूएन के रूप में है. शांति इसके केंद्र में है. संयुक्त राज्य सुरक्षा परिषद और पांच वीटो अधिकार से संपन्न देश इसके कर्ता-धर्ता हैं. चीन उभरती शक्ति है लेकिन रूस सोवियत संघ के उत्तराधिकारी के तौर पर मजबूत नहीं रह गया है. न ही ब्रिटेन और फ्रांस बड़ी शक्तियां रह गयी हैं.

श्याम सरन लिखते हैं कि बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां प्रभावशाली भूमिका में हैं. अमेजॉन, गूगल, एप्पल, माइक्रोसॉफ्ट और फेसबुक पांच ऐसी कंपनियां हैं जिनका टर्न ओवर 5 ट्रिलियन से ज्यादा हैं और दुनिया के कई देशों की जीडीपी से बड़ी हैं. यूएन की गतिविधियां इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों से प्रभावित होती हैं.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने घोषणा की है कि जी 20 की अध्यक्षता करते हुए भारत ग्लोबल साउथ की ओर से आवाज बुलंद करेगा. इसमें चिंता और साझा समावेशी समाधान पर जोर होगा. भारत को यूएन के सुधार में भूमिका निभाने का मौका नहीं मिला है. भारत की कोशिश लंबे समय से लंबित यूएन में सुधार को आगे बढ़ाने की होनी चाहिए.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

सूचकांक में छिपे राजनीतिक संकेत

टीएन नाइनन ने लिखा है कि आम तौर पर भारतीय रिजर्व बैंक के काम में कोई भी राजनीतिक संकेत तलाश नहीं करता है. लेकिन, शहरी इलाकों में उपभोक्ता धारणाओं का सावधिक सर्वेक्षण को सतर्क निगाह से देखा जा रहा है. वर्ष 2013 में वर्तमान स्थिति का सूचकांक और भविष्य की अपेक्षाओं का सूचकांक दोनों एक-दूसरे के काफी करीब थे. तब सितंबर में यही आंकड़ा क्रमश: 88 और 90.5 था. दिसंबर तक दोनों सूचकांकों में अंतर आने लगा. यह क्रमश: सुधरकर 90.7 और 100.7 हो गया. यानी दोनों सूचकांकों में 10 अंकों का अंतर आ गया. मार्च और जून 2014 में सत्ता परिवर्तन के दरम्यान यह अंतर बढ़कर 15 और 22.5 अंक हो गया.

टीएन नाइनन ध्यान दिलाते हैं कि मार्च 2023 में उपभोक्ता आत्मविश्वास का वर्तमान सूचकांक करीब एक दशक पहले के 88.5 के स्तर पर लौट गया है. अनुमान पर आधारित सूचकांक बढ़कर 116.3 हो गया है.

लेखक मोदी के कार्यकाल को दो कालखंडों में देखते हैं- नोटबंदी से पहले और नोटबंदी के बाद. 2016 के पहले वर्तमान परिस्थितियों का सूचकांक निरंतर 100 से ऊपर के स्तर पर था जबकि भविष्य की अपेक्षाओं का सूचकांक 120 के स्तर के आसपास या उससे ऊपर था. नोटबंदी के बाद मार्च 2019 तक ये आंकड़े 100 से नीचे रहे. 2019 के लोकसभा चुनाव आते-आते यह आंकड़ा 104.6 तक पहुंचा. उसी समय भविष्य की अपेक्षाओं से संबंधित सूचकांक भी बढ़ा और 133.4 अंकों के साथ यह दशक के उच्चतम स्तर पर पहुंच गया.

नाइनन लिखते हैं कि कोविड के दौर में वर्तमान सूचकांक गिरकर 50 अंक तक आ गया था. लेकिन भविष्य की अपेक्षाओं पर आधारित सूचकांक करीब 100 के स्तर पर बना रहा. इसका मतलब यह है कि लोग यह मानकर चल रहे थे कि उनकी मुश्किलें अस्थायी हैं. अगर उपभोक्ता आत्मविश्वास कोई राजनीतिक संकेतक है.

तो क्या इसका मतलब यह निकाला जाए कि बीजेपी एक और चुनावी जीत हासिल करने वाली है? या फिर 2019 की तरह सूचकांक को 100 का स्तर पार करना होगा.

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
अधिक पढ़ें
×
×