बाजार के सभी लोग गुस्से में थे, लेकिन सरकार अड़ी हुई थी. व्यापार का एक सिस्टम जिसे काफी शोषणकारी और जिसमें भ्रष्टाचार की आशंका देखी जाता है, जिसमें बिचौलिया एक फायनांसर/ गोदाम में माल रखने वाला/ सलाहकार का भी काम करता है, उस पर प्रतिबंध लगाया जा रहा था. इसे एक आधुनिक तकनीक से चलने वाले सिस्टम से बदला जाना था.
सरकार का दावा था कि इससे गंदगी से भरा सिस्टम साफ हो जाएगा और नए अवसर पैदा होंगे. लेकिन बाजार के लोगों को डर था कि वो बड़ी पूंजी वालों का शिकार बन जाएंगे, उनके पैसे और विरासत कुछ नहीं बचेगा. भारत की अर्थव्यवस्था के एक बड़े हिस्से को बंधक बनाया जा सकेगा.
अब कुछ सवालों के जवाब सोचिए-
राघव बहल: मैं किस बाजार की बात कर रहा हूं?
भारत की कृषि मंडियां या क्षेत्रीय कमोडिटी एक्सचेंज (वस्तु विनिमय)
राघव बहल: मुख्य खिलाड़ी कौन हैं जो डरा हुआ महसूस कर रहे हैं?
किसान और आढ़ती, उनके पारंपरिक बिचौलिया-सह-फायनांसर
राघव बहल: ये हंगामा किस साल का है?
लगभग 2020, सरकार के तीन कुख्यात कृषि बिल के जल्दबाजी में पारित कराए जाने के बाद
अफसोस, गलत जवाब.
सही जवाब हैं-
- भारत का शेयर बाजार
- शेयर व्यापारियों, ब्रोकर और बदला फायनांसर, पारंपरिक मध्यवर्ती संस्थाए जो कैश सह फॉरवर्ड स्टॉक ट्रेडिंग को सक्षम बनाती हैं.
- लगभग 2001, जब सरकार ने उस साल 2 जुलाई से बदला पर प्रतिबंध लगाया.
परिवर्तन नए चैंपियन बनाता है, पुराने संरक्षकों को कुचल देता है
बात बहुत साधारण है.
जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था बढ़ती है और आधुनिकीकरण होता है. वैसे-वैसे पारंपरिक बाजार संरचनाओं में एक टकराव होता है, जो कि उन आरोपित लाभार्थियों से परिचित होते हैं, जिनके हितों को कुशलतापूर्वक पेश किया जा रहा है और बनाम नए उपकरण जो पुराने रक्षक को नष्ट करने और नए चैंपियन को बनाने की संभावना रखते हैं.
इसलिए अगर आप ये सोच रहे हैं कि ये लगातार बदलाव अभी सिर्फ पंजाब/हरियाणा के किसानों के खिलाफ हो रहा है तो चलते हैं 2001 में.
कलकत्ता स्टॉक एक्सचेंज के 10 शातिर ब्रोकर के एक समूह ने बदला सीमा का गलत फायदा उठाया था. बदला भारत में ही शुरू हुई एक प्रणाली थी जिसमें कैश, फ्यूचर्स, डेरिवेटिव्स और ऑप्शंस मार्केट को एक जटिल बंडल में मिला दिया गया था. इससे भी बुरा ये कि ब्रोकर न सिर्फ आपकी ओर से खरीद-बिक्री करता था, इस “मिले-जुले” लेन-देन को को फायनांस भी करता था, पांच दिन के सेटलमेंट विंडो का इस्तेमाल फायदे पर फायदा लेने के लिए करता था, उन शेयरों का इस्तेमाल करते हुए जो उसके अपने नहीं थे, ज्यादा से ज्यादा प्रॉफिट कमाने की कोशिश करता था.
जाहिर है, ऑपरेटर अक्सर अपने ऋण जोखिम के खतरे पर नियंत्रण खो देते थे., जिसके कारण बार-बार भुगतान करने से चूक जाते थे.
सरकार ने 1993 में एक बार बदला पर रोक लगाने की हिम्मत दिखाई थी. लेकिन शेयर ब्रोकर्स का एक दल इसके खिलाफ खड़ा हो गया था जिसके बाद सरकार को इससे रोक हटाने पर मजबूर होना पड़ा.
हालांकि, 2001 तक नेशनल स्टॉक एक्सचेंज, पुराने कई एक्सचेंज से आगे निकल गया था और पारंपरिक ब्रोकर्स की पकड़ ढीली पड़ गई थी. बाजार डिजिटल हो गया था और डेरिवेट्स बंद हो रहे थे. इसने सरकार को फिर से प्रतिबंध लगाने के लिए पर्याप्त साहस दे दिया.
अगर एक घिसे-पिटे मुहावरे का इस्तेमाल करें तो, कहर टूट पड़ा (मैं सोचता हूं कि क्या हुआ होता अगर उस समय ट्विटर होता-#BadlaBanKillsIndianStocks और #Government’sBadlaOnIndianStocks जैसे हैशटैग तेजी से ट्रेंड करने लगते).
प्रमुख फायनांसियल एक्सपर्ट की प्रमाणिक प्रतिक्रिया में कुछ को पढ़ें.
- एक रात में रोक से ट्रेडिंग और लिक्विडिटी पर प्रतिकूल असर पड़ेगा. जब रुझान पहले से ही कमजोर है तो ऐसे में कीमतें और गिर जाएंगी-फिक्की
- इस नई परिस्थिति में सिर्फ कुछ ब्रोकर ही बने रह सकेंगे-कलकत्ता स्टॉक एक्सचेंज के लोगों की प्रतिक्रिया
- मौजूदा खरीद-बिक्री के स्तर पर बाजार को आने में लंबा समय लगेगा-ज्यूरिक एसेट मैनेजमेंट के फंड मैनेजर
- कूड़े के साथ काम की चीज भी फेंक दी गई है क्योंकि उनके पास बलि का बकरा बनाने के लिए ब्रोकर है, बदला पर प्रतिबंध यही है-बीएसई के ब्रोकर
अस्वाभाविक रूप से बर्बादी की एक जैसी भविष्यवाणियां
क्या ये हंगामा आज अभिशप्त कृषि कानूनों को लेकर अस्वाभाविक रूप से की जा रही बर्बादी की भविष्यवाणियों के जैसी नहीं लगती. वास्तव में दोनों प्रदर्शनों को एक-दूसरे से जोड़ने वाली बीच की रेखा यहां है.
- जो आढ़ती किसानों के लिए करते हैं, बदला ब्रोकर स्टॉक ट्रेडर्स के लिए करते थे. कई बार किसान/आढ़तियों और ट्रेडर/ब्रोकर के बीच संबंध पीढ़ियों से हैं या थे जो दादा-दादी के समय से चलते आ रहे हैं. घर में समारोह या अप्रिय घटना के दौरान आढ़ती/ब्रोकर के आपात लोन मुहैया कराने के साथ ही ये संबंध लेन-देन, कमीशन से आगे बढ़ गया. ज्यादातर समय ये आपसी जरूरत और विश्वास का रिश्ता था. बेशक, 1990 से लेकर 2000 के शुरुआती वर्षों में ब्याज दर काफी ज्यादा थी लेकिन चूंकि आईआरआर (इंटर्नल रेट ऑफ रिटर्न) का सिद्धांत कर्ज लेने और देने वालों दोनों के लिए अनजाना था, नीचता नहीं दिखती थी. कुछ लोगों की कारस्तानी के कारण शोषण सुर्खियां बन गईं.
- मंडियां और बदला व्यापार एक समान कंसन्ट्रेशन रिस्क (सांद्रता जोखिम) झेलते हैं: दोनों सिस्टम एकतरफा हैं या थे. एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) पर धान और गेहूं की करीब-करीब पूरी खरीद पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों से की जाती है. शायद ही किसी अन्य कृषि उत्पाद को कहीं और से खरीदा जाता है जबकि एमएसपी कई फसलों के लिए तय की जाती है. इसी तरह 95 फीसदी बदला ट्रेडर्स टॉप 10 स्टॉक पर पैसे लगाते थे. इसलिए विरोध प्रदर्शन उस दौरान और अभी मुखर और व्यापक प्रतीत होता है लेकिन आधार ज्यादा बड़ा नहीं है.
- नए शक्तिशाली प्रतियोगियों से डरे प्रभावशाली खिलाड़ी: आज किसान डरे हुए हैं कि बिना संवैधानिक सुरक्षा के वो कीमत/किराए की बात चीत में निराशाजनक रूप से मात खा जाएंगे. उनको डर है कि बड़ी कंपनियां कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग नियमों के तहत कौड़ियों के मोल उनकी फसल खरीद लेंगी या जमीन पर कब्जा कर लेंगी या दोनों ही कर लेंगी. पहले खुदरा ब्रोकर इस बात को लेकर डरे हुए थे कि एक बार संस्थाएं और विदेशी, जो बदला ट्रेड के दायरे से बाहर थे, नए फ्यूचर, ऑप्शंस और डेरिवेटिव्स मार्केट में निवेश करने लगेंगे तो छोटे निवेशक नहीं बचेंगे.
- बदलाव समर्थक और विरोधियों के बीच गरमा-गरम, ध्रुवीकृत, दो भागों में बंटी बहस: आज की तरह उस वक्त भी दोनों तरफ से विरोध और प्रदर्शन का स्तर एक जैसा ही था. विरोध करने वालों का कहना था कि बदला ट्रेड के न होने से भारत का शेयर बाजार सिकुड़ता जाएगा, जबकि समर्थकों को एक उन्नतिशील भविष्य और ऑप्शंस सेगमेंट के फिर से बढ़ने का यकीन था. अब गेहूं/चावल उगाने वाले किसान मानते हैं कि कृषि कानून उनके लिए अंत का एलान है, दूसरे लोग ग्रामीण बुनियादी ढांचे में बड़े निवेश और कृषि उद्योग के साथ सप्लाई लिंकेज को लेकर उत्साहित हैं.
भविष्य का संकेत, बशर्ते...
तो, 2001 में बदला पर प्रतिबंध लगाने के बाद आखिरकार हमारे स्टॉक मार्केट का क्या हुआ? ‘संकट’ बहुत ही कम समय के लिए रहा, आधुनिक फ्यूचर्स/ऑप्शंस मार्केट के साथ शेयर बाजार नई ऊंचाइयां छू रहा था. आज किसी को बदला ट्रेडिंग याद भी नहीं है.
मेरा मानना है कि कुछ ऐसा ही होगा जब सरकार तीन कृषि कानूनों से कुछ छोटी-मोटी कमियों को दूर कर देती है लेकिन बशर्ते ये सुनिश्चित करने के लिए सतर्कता के साथ कदम उठाए जाएं कि-
- गेहूं/धान के किसानों को दूसरे लाभदायक नकदी फसलों के उत्पादन के लिए प्रेरित किया जाए. (खासकर पंजाब और हरियाणा में)
- सब्सिडी देने की मौजूदा व्यवस्था को एक मजबूत आय-समर्थन कार्यक्रम से बदला जाए
- मजबूत किसानों के संगठनों को प्रोत्साहित किया जाए और
- फसल बीमा, कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के विवाद निपटाने के लिए एक विश्वसनीय/ निष्पक्ष व्यवस्था और इस तरह से दूसरे उपाय मजबूती के साथ लागू किए जाएं.
तभी हम अपने किसानों के लिए बड़ी जीत सुनिश्चित कर सकेंगे.
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