फानी दुनिया में अपने मनमोहक व्यक्तित्व की विरासत छोड़कर शीला दीक्षित हमेशा के लिए रूखसत हो गयीं. किसी ने उन्हें अजातशत्रु बताया तो किसी ने उनके ममतामयी रूप को याद किया. किसी ने इस बेहद मिलनसार और स्नेहिल शख्सियत को श्रद्धांजलि दी तो, कोई उनकी मृदुभाषिता और प्रशासनिक तथा राजनीतिक कौशल का कायल है.
जिंदगी के 81 बसन्तों के दौरान शीला दीक्षित के सम्पर्क में आकर जिसने जैसा अनुभव बटोरा, जिसके जैसे संस्मरण बने, वो सभी आज उन्हें अपनी-अपनी तरह से याद कर रहे हैं. सार्वजनिक जीवन की शायद यही सबसे बड़ी खासियत है कि लोग आपके जाने के बाद अपनी अच्छाईयों को खूब याद करते हैं.
शीला दीक्षित विरासत की धनी रहीं. सम्पन्न परिवार में जन्म. उम्दा शिक्षा-दीक्षा. प्रशासनिक अधिकारी के साथ प्रेम और फिर विवाह. प्रतिष्ठित सियासी परिवार की पुत्रवधू. पति विनोद दीक्षित के असामयिक निधन के बाद ससुर के लिए न सिर्फ बुढ़ापे की लाठी बनीं बल्कि उनकी सियासी विरासत को भी खूब सम्पन्न किया. अलबत्ता, भरपूर जीवन जीकर जाते वक्त भी शायद उनके मन में इतनी टीस तो जरूर रही होगी, कि वो 2019 में दिल्ली में कांग्रेस को वैसे रसातल से बाहर नहीं निकाल सकीं, जैसा उन्होंने 1998 में कर दिखाया था.
शीला दीक्षित देश की उन चुनिंदा नेताओं में से एक रहीं, जो लगातार 15 साल तक अपने सियासी फॉर्म की शिखर पर रहे. वो भी उस दिल्ली में, जहां हमेशा से प्रतिद्वन्दी संघ-बीजेपी की उम्दा पैठ रही है.
मृदुभाषिता के साथ उम्दा प्रशासक
कांग्रेस के कद्दावर नेता रहे उमा शंकर दीक्षित की पुत्रवधू के रूप में 1984 में शीला दीक्षित ने कन्नौज से लोकसभा का चुनाव जीता. राजीव गांधी सरकार में संसदीय कार्य राज्यमंत्री और प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्यमंत्री बनीं. शीला दीक्षित के साथ काम कर चुके लोगों का कहना है कि विनम्रता और मृदुभाषिता के गुणों के साथ उम्दा प्रशासक होने के कौशल के लिहाज से वो बेजोड़ थीं. अपने मातहत अफसरों और सहयोगी मंत्रियों को मधुर शब्दों में सख्त संदेश देने में उन्हें महारत हासिल थी. जटिल मसलों पर विस्तार से और बारीकी से चर्चा करके नीतियां बनाना और फिर पूरी निगरानी के साथ उसे अमल में लाना, उनका जुनून था. उन्हें खूब याद रहता था कि उन्होंने किसे क्या निर्देश दिया और उसका क्या नतीजा निकला.
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कभी विरोधियों लिए अपशब्द नहीं बोला
सियासी अखाड़े में वो किसी को अपना दुश्मन नहीं मानती थीं. विपक्षियों को भी नहीं. राजनीतिक लोगों को शीला दीक्षित ज्यादा से ज्यादा दो श्रेणियों में रखती थीं - समर्थक और विरोधी. उन्होंने अपनी पार्टी में भी अनेक विरोधियों का सामना किया. लेकिन सरे आम कभी किसी के लिए अपशब्द नहीं बोला. नाप-तौल कर बोलना और डींगे नहीं हांकना उनका स्वभाव था. लेकिन उनके देखते-देखते ही समाज के मूल्य इतने बदल गये कि अनाप-शनाप बोलने वालों ने अपने इसी हथियार के जरिए उन्हें धराशायी कर दिया.
गांधी परिवार से उनकी नजदीकी पुश्तैनी थी. इससे उनके सियासी सफर को खूब मजबूती मिली. इसे ढाल बनाकर शीला दीक्षित ने दिल्ली में विकास के अनेक सोपान रचे. हालांकि, अन्ना आन्दोलन के तामझाम के सामने उनका सारा कौशल चरमरा गया.
दिल्ली में मेट्रो के विस्तार, सीएनजी के विस्तार, बिजली वितरण के निजीकरण की नीति, जलापूर्ति क्षमता में विस्तार, फ्लाई ओवर्स का नेटवर्क, राष्ट्रमंडल खेलों का सफल आयोजन जैसी उपलब्धियां जहां उनके खाते में हैं, वहीं वो डीटीसी की तस्वीर नहीं बदल सकीं, यमुना की दशा नहीं सुधार सकीं, यमुना पर सिग्नेचर ब्रिज को अपने कार्यकाल में नहीं बनवा सकीं. दिल्ली के स्कूलों का वैसा कायाकल्प नहीं कर सकीं, जैसा उनके उत्तराधिकारी अरविन्द केजरीवाल ने कर दिखाया.
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कई आरोपों का सामना किया
शीला दीक्षित पर एक बार गंभीर आरोप लगा कि उन्होंने 2009 में जवाहर लाल नेहरू नैशनल अर्बन रीन्यूअल मिशन के तहत केन्द्र सरकार से मिले 3.5 करोड़ रुपये का बेजा इस्तेमाल किया. हालांकि, जांच के बाद लोकायुक्त ने आरोप को खारिज कर दिया. शीला दीक्षित की दूसरी फजीहत जेसिका लाल हत्याकांड के सिलसिले में हुई. इसके अपराधी मनु शर्मा को पैरोल देने का फैसला 2009 में उनकी सरकार ने किया. इस सिलसिले में जब हाईकोर्ट ने मुख्यमंत्री शीला दीक्षित से जवाब-तलब किया तो उन्होंने पासा दिल्ली के उपराज्यपाल की ओर फेंक दिया, क्योंकि पुलिस तो उन्हीं के मातहत थी. निर्भया कांड की तपिश शीला सरकार पर सबसे भारी पड़ी. 2010 के राष्ट्रमंडल खेलों से जुड़े भ्रष्टाचार को लेकर भी खूब आरोप उछाले गये.
उस वक्त सीएजी की रिपोर्ट में कहा गया कि खेलों के आयोजन के दौरान स्ट्रीट लाइट्स के लिए आयातित उपकरणों में गड़बड़ियां हुईं. हालांकि, इस सिलसिले में तत्कालीन मुख्य सचिव का दावा था कि सम्बंधित ठेके में शीला की कोई भूमिका नहीं थी.
अब दिल्ली में शीला की विदाई के साथ ही कांग्रेस भी कमोबेश विदा हो चुकी है. देखना दिलचस्प होगा कि कांग्रेस कब तक उनकी भरपाई कर पाती है. शीला की वरिष्ठता और दीर्घकालिक राजनीतिक और प्रशासनिक अनुभव को देखते हुए मनमोहन सिंह सरकार ने अपने आखिरी दिनों में उन्हें केरल का गवर्नर बनाकर सम्मानित किया. लेकिन 2014 में सत्ता परिवर्तन के बाद शीला को ये पद छोड़ना पड़ा. 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस ने शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री पद का चेहरा बनाकर पेश किया. लेकिन बाद में समाजवादी पार्टी के साथ हुए गठजोड़ से शीला की दावेदारी फुस्स हो गयी.
इसी तरह, 2019 में भी दिल्ली में कांग्रेस की डगमगाती नैय्या को पार लगाने का दारोमदार शीला दीक्षित को मिला. लेकिन इस बार भी उनकी किस्मत 1998 की तरह बुलंदी पर नहीं थी. अपने आखिरी दिनों में भी शीला दीक्षित, कांग्रेस को मजबूत बनाने के लिए ही जूझती रहीं.
कुलमिलाकर, शीला दीक्षित को उनकी नाकामियों के लिए नहीं, बल्कि उपलब्धियों के लिए वर्षों याद रखा जाएगा. दिल्ली वाले तो दशकों तक उन्हें अनेक तरह से याद करते ही रहेंगे. विनम्र श्रद्धांजलि.
(ये आर्टिकल सीनियर जर्नलिस्ट मुकेश कुमार सिंह ने लिखा है. आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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