'पद्मावत' देखने के बाद निर्देशक संजय लीला भंसाली को अभिनेत्री स्वरा भास्कर ने खुला खत लिखा था. भंसाली ने तो कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, लेकिन बहुत बड़ी तादाद में लोग आये, जिन्होंने स्वरा भास्कर के खत का जवाब दिया. गाली-गलौज की बात छोड़ दें, तो ज़्यादातर प्रतिक्रियाओं का निचोड़ यह था कि भंसाली इतिहास नहीं बदल सकते और जौहर पद्मावत का काल्पनिक क्लाइमेक्स नहीं, बल्कि सच है. मुझे जहां तक समझ आया, स्वरा इतिहास या क्लाइमेक्स से छेड़छाड़ करने की बात नहीं कह रही थीं, वह निर्देशकीय दृष्टिकोण की बात कर रही थीं.
सैकड़ों सालों बाद हम इतिहास की किसी घटना को कैसे देखते हैं, यह महत्वपूर्ण है. भंसाली के दृष्टिकोण में पद्मावती के जौहर के प्रति आस्था दिखती है, इसमें कोई दो राय नहीं है. लेकिन स्वरा की चिट्ठी पर अभिनेत्री और गायिका सुचित्रा कृष्णमूर्ति का ट्वीट देख कर मुझे चौंकना पड़ा. सुचित्रा ने स्वरा की बात इसलिए खारिज की, क्योंकि उसने अनारकली का किरदार निभाया था और सुचित्रा के मुताबिक वह एक गलीज किरदार था और वैसा किरदार करने वालों को स्त्रियों के पक्ष में बात नहीं करनी चाहिए. मुझे लगा कि जो स्त्री अनारकली को नहीं समझ सकती, वह पद्मावती की पीड़ा कैसे समझ सकती है! अनारकली का किरदार चूंकि मैंने रचा था, मुझे लगा कि सुचित्रा के ट्वीट पर मुझे अपनी बात रखनी चाहिए.
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यूट्यूब वीडियो ने दी कहानी की प्रेरणा
अनारकली की कहानी मेरे दिमाग में 2006 में आयी थी. बहुत छोटा सा वाकया था. मैं एक टीवी चैनल में काम कर रहा था और रात की शिफ्ट में यूट्यूब पर वीडियोज सर्च कर रहा था. एक भोजपुरी गाना मिला और वह सुनने लगा. गंदा गाना था. अश्लील वीडियो था. दर्शकों को उत्तेजित करने के लिए बनाया गया था. लेकिन आवाज एक ऐसी खुरदुरी और बेमिसाल लय में थी कि मैं ठहर गया. वीडियो के बीच में कुछ सेकंड्स के लिए एक माइक के सामने खड़ी दो गायिका दिखीं. सूखी हुई हड्डियों और पिचके हुए गाल वाली दोनों गायिकाएं भोजपुरी में गा रही थीं, जिसका मतलब था, हरे-हरे नींबू बेहद गोल हैं - इन्हें छूकर देखो, कसम से मजा आ जाएगा. मैंने देखा कि इतना मादक (Intoxicating) गीत गाने के बाद भी उनके चेहरे पर कोई कामुकता नहीं थी.
मैंने उसे बार-बार प्ले किया और जो मुझे समझ में आया, वह ये था कि गले से आवाज यांत्रिक तौर पर निकल रही थी यानी उनके दिल उन उत्तेजक बोलों के लिए कसूरवार नहीं थे. यही वो बात थी, जिसने मुझे ऐसी गायिकाओं के भीतर छिपे दर्द के समंदर की यात्रा करने के लिए मजबूर किया और मैं अनारकली की कहानी तक पहुंचा.
हजारों सालों में नहीं बदली है स्त्रियों की नियति
एक सामंती समाज में स्त्री अगर मां या बहन है, तब भी वह वस्तु है. एक वेश्या है, तब भी वह वस्तु है. एक स्त्री की अपनी कोई अस्मिता नहीं होती. जिन स्त्रियों ने खुद को आजाद कर लिया है, उनकी संख्या पूरे मुल्क की स्त्रियों के सामने इतनी थोड़ी है कि हम दावे के साथ नहीं कह सकते कि हजारों सालों की गुलामी के खिलाफ वह एकजुट हो गयी हैं. अपनी नियति के साथ वह इतनी घुलमिल गयी हैं कि उन्हें अपने हालात असहज नहीं लगते. इसलिए अगर सुचित्रा कृष्णमूर्ति कहती हैं कि स्वरा भास्कर जिसने अनारकली की भूमिका निभायी, वह अगर पद्मावती के जौहर की स्वाभाविकता से खुद को अलग करने का नाटक कर रही है और यह उनका दोहरा चरित्र है, तो कुछ भी गलत नहीं कह रहीं. पद्मावती के जौहर को सलाम करने का सामाजिक इतिहास है और राजपूत स्त्रियां जौहर की वजह से ही उन्हें अपना आराध्य मानती हैं.
हां, मुझे दुख तब होता है जब ‘बैंडिट क्वीन’ के मेकर के साथ सहजीवन में रह चुकी कोई स्त्री भी पद्मावती के जौहर को भारतीय स्त्रियों के इतिहास का दुखद अध्याय नहीं मानती. ‘बैंडिट क्वीन’ भारतीय सिनेमा में स्त्री के दर्द का पहला प्रामाणिक आख्यान है.
विज्ञान के साथ क्या चेतना का विकास हुआ?
हम अपने समाज में देखें, जहां बिजली आ गयी है और स्त्रियां रात रोशन करने के लिए आग सहेजने की जिम्मेदारियों से आगे निकल गयी हैं. उस दौर को देखें, जहां स्त्रियों के हाथ में मोबाइल आ गया है और वे अपने प्रेमियों से हर वक्त संवाद में हैं. इस समय में भी अगर हम पद्मावती के जौहर को स्त्रियों के लिए अंतिम इंसाफ मानते हैं, तो यह भी मानना होगा कि विज्ञान के विकास के साथ हमारी चेतना का विकास नहीं होता. चेतना का विकास होता है स्त्री-पुरुष समता से, गैरबराबरी को गैरकानूनी मानने से, और यह सामाजिक बुराइयां अब भी हमारे समाज पर फन काढ़े बैठी हैं.
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सुचित्रा एक आधुनिक स्त्री हैं और वह अपने पैरों पर खड़ी हैं. लेकिन अपनी स्वनिर्भर जीवन स्थितियों से जुड़े विचारों में यात्रा करने की जगह वह उस विचार के साथ खड़ी हैं, जहां एक वेश्या को वह सिर्फ मजा देने की चीज मानती हैं और इस वजह से स्वरा भास्कर को कोसती हैं कि एक बाजारू स्त्री का किरदार करने वाली यह स्त्री पद्मावती पर कैसे उंगली उठा सकती है?
सुचित्रा ने निजी हमले का सहारा लिया
बहरहाल, कोई कुछ भी सोच सकता है और उसे सोचने का हक है. लेकिन अगर वह सार्वजनिक तौर पर अपनी सोच जाहिर करता है, तो फिर उस पर प्रतिक्रियाएं होती हैं. स्वरा ने अपनी बात रखी, उस पर लोगों ने प्रतिक्रियाएं जाहिर की. उसी तरह सुचित्रा के कहे पर भी बात होनी चाहिए. मुझे हैरानी है कि सुचित्रा ने वैचारिक प्रतिक्रियाओं की जमीन छोड़ कर निजी हमले का सहारा लिया. यहीं वह हार गयीं, क्योंकि जो अनारकली के मुक्ति-संदर्भ को नहीं समझ सकता, वह पद्मावती के जौहर पर सवाल कैसे कर सकता है?
मेरे लिए यह विकल्प था कि अनारकली को समाज के अंधेरे में गुम कर दूं. लेकिन मैंने उसे आजाद हवाओं में सांस लेते हुए दिखाया. यहां मैंने अनारकली की जिद और उसकी हसरतों के साथ कहानी आगे बढ़ायी. समाज जो कि स्त्री को सचमुच योनि से ज्यादा कुछ नहीं समझता और बलात्कार की बेशुमार घटनाओं पर जैसी ठंडी प्रतिक्रियाएं देता है, वह अनारकली को बाजार से बाहर अपनी देहरी पर कैसे जगह दे सकता है? यही बात तो सुचित्रा ने कही है कि जो वेश्या का किरदार संभालती है, वह इतनी बड़ी बात कह कैसे सकती है?
स्वरा और सुचित्रा में क्या है अंतर ?
लेकिन स्वरा भास्कर, सुचित्रा कृष्णमूर्ति नहीं है. सुचित्रा की एक प्रतिक्रिया ने जाहिर कर दिया कि समाज, राजनीति, परंपरा और स्त्री के बारे में उनकी समझ क्या है और स्वरा भास्कर अपने तमाम राजनीतिक बयानों में पुरानी जड़ हो चुकी सामाजिक मान्यताओं पर हल्ला बोलती रही हैं. यही वजह है कि अनारकली की मुक्तिकामी चेतना के साथ फिल्म में वह पानी में नमक की तरह घुल गयी हैं. यही वजह है कि हर मुक्ति विरोधी विचार पर उन्हें गुस्सा आता है और वह चीखने लगती हैं.
पद्मावत देखने के बाद मैंने खुद लिखा था कि जो समाज पुरुष केंद्रित है, उसमें स्त्रियां शहादत की नियति के साथ पैदा होती हैं. दिल्ली का बादशाह अलाउद्दीन खिलजी भी स्त्रियों को खिलौना समझता है और मेवाड़ का सम्राट रावल रतन सिंह भी पद्मावती को जौहर की अनुमति देकर पुरुषों से अलग स्त्रियों की अस्मिता का होना खारिज करता है. कितना अच्छा होता, अगर संजय लीला भंसाली ने खिलजी और रतन सिंह की कहानी के बहाने उस समय की स्त्रियों के हालात पर फिल्म बनायी होती!
सुचित्रा कृष्णमूर्ति की प्रतिक्रिया पढ़ कर मुझे हिंदी के एक बेहतरीन कवि आलोक धन्वा की कविता "भागी हुई लड़कियां" का एक अंश याद आ गया. आलोक धन्वा कहते हैं, लड़की भागती है जैसे सफेद घोड़े पर सवार / लालच और जुए के आरपार / जर्जर दूल्हों से कितनी धूल उठती है ... तुम जो पत्नियों को अलग रखते हो वेश्याओं से / और प्रेमिकाओं को अलग रखते हो पत्नियों से / कितना आतंकित होते हो जब स्त्री बेखौफ भटकती है ढूंढती हुई अपना व्यक्तित्व / एक ही साथ वेश्याओं और पत्नियों और प्रेमिकाओं में ...अब तो वह कहीं भी हो सकती है / उन आगामी देशों में / जहां प्रणय एक काम होगा पूरा का पूरा!
मुझे उम्मीद है, ये काव्य पंक्तियां सुचित्रा कृष्णमूर्ति पढ़ेंगी और अपनी बातों पर एक बार पुनर्विचार करेंगी.
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( पेशे से पत्रकार रहे अविनाश दास ने "अनारकली ऑफ आरा" के साथ अपनी दूसरी पारी फिल्म निर्देशक के रूप में शुरू की है.इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है) )
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