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Jigar Moradabadi: ''ये इश्क नहीं आसां...'', दुनिया को समझाने वाले शायर की कहानी

Jigar Moradabadi एक हुस्नपरस्त शायर थे लेकिन उन्होंने हुस्न को बेलिबास नहीं किया.

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भारत
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ये इश्क़ नहीं आसां इतना ही समझ लीजे,
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है.

चंद लफ्जों में इश्क का रहस्य समझाने वाला, अपनी कलम से दुनिया को मोहब्बत का पैगाम देने वाला साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित उर्दू का वो कलमकार, जिसकी जिंदगी हिंदी सिनेमा के किसी फिल्म जैसी नजर आती है. मोहब्बत में सराबोर कलाम में कोई बनावट नहीं, शेर कहने का लहजा ऐसा कि जिसकी कई शायरों ने नकल करने की कोशिश की.

हम बात कर रहे हैं उर्दू शायरी के सिकंदर जिगर मुरादाबादी (Jigar Moradabadi) के बारे में, जिनकी पैदाइश 1890 में उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद जिले में हुई थी.

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जिगर साहब का असली नाम अली सिकंदर (Ali Sikandar) था, उन्हें शायरी विरासत में मिली. आगे चलकर वो उर्दू के एक ऐसे जिंदादिल शायर के तौर पर पहचाने गए, जिनकी शायरी में हुस्न का मिजाज, आशिकी की रौनक, पुरानी परंपरा, आधुनिकता के रंग और जिंदगी से जंग का असर दिखता है.

हमको मिटा सके ये ज़माने में दम नहीं,

हमसे ज़माना ख़ुद है ज़माने से हम नहीं.

जिगर साहब बेहद ही भावुक, हमदर्द, देशप्रेमी और आजाद खयाल के इंसान थे. उन्होंने शायरी और पढ़ाई में से शायरी को चुना.

स्कूल के दिनों से ही शायरी लिखने का शौक था. लखनऊ में नौंवी तक पढ़ाई हुई और पिता के गुजर जाने के बाद उन्हें मुरादाबाद वापस लौटना पड़ा. पैदाइशी जिले में कुछ वक्त गुजारने के बाद जिगर साहब ने नौकरी तलाश में आगरा कूच किया, यहां नौकरी करते हुए उनके दो साथी बने- शायरी और शराब.

आगे चलकर जिगर साहब मदिरापान के आदी हो गए. जब उनसे कोई शराब छोड़ने की बात करता, तो वो कहते कि “मेरा खुदा मुझे शराब पिलाता है, आप कौन होते हैं रोकने वाले”

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पाकीजगी से मुकम्मल हुस्नपरस्त शायर

कहा जाता है कि जब जिगर मुरादाबादी ने शायरी की दुनिया में कदम रखा तो इस दुनिया का रंग ही बदल गया. वो जब तरन्नुम में पढ़ा करते थे, तो फजा में एक अलग ही चमक आ जाया करती थी. कई शायरों ने उनके लहजे का त’आकुब (अनुसरण) करने की कोशिश की लेकिन उनकी शख्सियत की नकल किसी से नहीं हो पाई.

जिगर साहब एक हुस्नपरस्त शायर थे लेकिन उन्होंने हुस्न को बेलिबास नहीं किया बल्कि इसे बेहद पाकीजगी के साथ पेश किया. उन्होंने अपनी एक गजल में लिखा...

रंगे-हया है ये तेरे जोशे-शबाब में,

या चांदनी का फूल खिला है गुलाब में.

आंखों में नूर जिस्म में बनकर वो जां रहे,

यानी हमीं में रह के वो हमसे निहां रहे.

जिगर साहब हुस्नपरस्त के साथ ही एक जिंदादिल वतनपरस्त भी थे.

उनकी जीवनी लिखने वाले मशहूर आलोचक शारिब रदौलवी जिगर की वतन-परस्ती के एक दिलचस्प वाकिए का जिक्र करते हैं...

“जिगर साहब 1949 में मुशायरे में शिरकत करने के लिए कराची गए हुए थे. वहां बहुत से लोग उनसे मिलने आए. लोगों में एक साहब ऐसे भी थे जो मुरादाबाद के रहने वाले थे और जिगर से पाकिस्तान जाने से पहले खूब मिला करते थे. वह जितनी देर जिगर के पास बैठे रहे हिंदुस्तान की बुराई करते रहे. जिगर साहब को उनकी बातें सुनकर गुस्सा आ गया और तल्ख लहजे में बोले, ‘नमक-हराम तो बहुत देखे हैं, लेकिन वतन-हराम पहली बार देख रहा हूं”

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जिगर मुरादाबादी ने दुनिया के सामने शायरी को इतने आसान तरीके से पेश किया, जिसे देखकर कई बड़े शायरों ने हैरत की. जिगर साहब अपने एक शेर में लिखते हैं...

आह, रो लेने से भी कब बोझ दिल का कम हुआ,

जब किसी की याद आई फिर वही आलम हुआ.

'तारीख का महकता और जगमगाता हुआ नाम'

मुरादाबाद के उर्दू शायर और जिगर मुरादाबादी फाउंडेशन के प्रेसीडेंट मंसूर उस्मानी ने क्विंट से बात करते हुए कहा कि जिगर साहब एक बड़े शायर थे, उर्दू गजल की तारीख उनके बगैर कभी मुकम्मल नहीं होती...जिगर मुरादाबादी हमारी तारीख का एक महकता और जगमगाता हुआ नाम हैं.

1947 में आजादी मिलने के बाद जिगर साहब को पाकिस्तान से ऑफर आया कि आप यहां आ जाइए वहां क्या कर रहे हैं लेकिन उन्होंने इस बात को सिरे से नकार दिया और कहा कि हिंदुस्तान मेरा वतन है, मैं इसे छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगा, मेरी जितनी जिंदगी बची है वो यहीं गुजरेगी, जिगर साहब की ये हिंदुस्तानियत थी.

उन्होंने आगे कहा कि हमारी नई पीढ़ी को चाहिए कि वो जिगर साहब को पढ़े और उनकी जिंदगी से सबक हासिल करे. जिगर साहब की शायरी में आध्यात्मिकता भी नजर आती है और उनके अशआरों में एक सूफी भी छिपा हुआ है.

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जिगर साहब ने इश्क किया भी और लिखा भी. दुनिया आज भी उनके इश्क के चर्चे किया करती है. इस छोटे से एपिसोड में तो हम उनकी मोहब्बत की दास्तान मुकम्मल तरीके से तो नहीं बयां कर सकते लेकिन कुछ हिस्सा जरूर बताएंगे. दिल और शोहरत की बुलंदी के मायने में बेहद ही अमीर शख्सियत जिगर मुराबादी ने जिस चेहरे से इश्क किया उसके साथ जिंदगी नहीं गुजार सके.

दोस्त ने भरोसा तोड़ा, किस्मत ने रास्ता मोड़ा और जिगर साहब ज़िंदगी की उस दौड़ में शामिल हो गए, जिसमें उनका सुकून पूरी तरह से छिन गया. वो सुकून की तलाश में कभी-कभी अपने शायर दोस्त असगर गोंडवी के घर जाया करते थे.

इश्क की आग में तपकर उन्होंने मोहब्बत करने वालों की दुनिया को वो अश’आर दिया है, जिसे पढ़कर लोग मदहोश हो जाते हैं.

जिगर साहब इश्क की गुत्थी को सिर्फ कुछ ही लाइनों में समझाकर चले गए, जो लाइनें आज के दौर में लोगों के दिलों की धड़कन हैं.

हम ने सीने से लगाया दिल न अपना बन सका,

मुस्कुरा कर तुम ने देखा दिल तुम्हारा हो गया.

लाखों में इंतिख़ाब के क़ाबिल बना दिया

जिस दिल को तुमने देख लिया दिल बना दिया

दिल में किसी के राह किए जा रहा हूँ मैं

कितना हसीं गुनाह किए जा रहा हूँ मैं

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जब शराब छोड़कर मजहबी हो गए जिगर

जिगर साहब ने अपनी जिंदगी का कुछ वक्त गोंडा में भी गुजारा, जहां पर वो अपने शायर दोस्त असगर गोंडवी के कहने पर गए थे. असगर गोंडवी ने जिगर साहब की उथल-पुथल से भरी जिंदगी को कई बार सहारा दिया और संभाला, उन्होंने उनकी शादी भी करवाई. लेकिन जिगर साहब पर मदिरा की लत इस तरह हावी हुई कि वो अक्सर नशे में ही रहा करते थे.

उनकी जिंदगी में एक वक्त ऐसा भी आया जब उन्होंने शराब को भुला दिया लेकिन उसके बाद उन्हें रमी खेलने की आदत हो गई, जिसकी वजह से उन्हें खाने-पीने की भी याद नहीं आती थी. जिगर साहब ने हमेशा ही खुद को कहीं ना कहीं डुबेया रखा. एक दौर ऐसा भी आया जब वो बहुत ही धार्मिक हो गए और उन्होंने हज भी किया.

मुश्किलों से भरा जिंदगी का आखिरी दौर

जिगर साहब की जिंदगी का आखिरी पल बेहद मुश्किलों से भरा था. पिछले कई सालों के दौरान हुई लापरवाहियों का असर बुरी तरह से पड़ा. उन्हें दो बार दिल का दौरा पड़ा और दिल और दिमाग पर कंट्रोल नहीं रहा. नींद की दवाओं के बाद भी वो सो नहीं पाते थे.

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इसी तरह साल 1960 के सितंबर महीने में उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया. जिंदगी को एक हादसा कहने वाला शायर खुद एक हादसा हो गया.

ज़िंदगी इक हादसा है और कैसा हादसा,

मौत से भी ख़त्म जिस का सिलसिला होता नहीं.

जिगर की मौत पर उर्दू के मशहूर कलमकार फिराक गोरखपुरी को बेहद दुख हुआ और उन्होंने कहा- “जब तक जिगर ज़िंदा थे, हम सब जिंदा थे. मेरी जिंदगी का सबसे बड़ा गम जिगर की मौत है और सबसे बड़ा सुकून जिगर की याद है.”

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