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हाथरस जैसे मामलों से दलित समुदाय की मानसिक सेहत पर असर पड़ता है

ये भी सच है कि दलित महिलाओं और पूरे समुदाय का रोजमर्रा का जीवन भी मानसिक अवसाद से भरा होता है.

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हाथरस गैंगरेप जैसे उत्पीड़न के मामलों का दलित समुदायों पर बहुत अधिक मानसिक असर हो सकता है. भले ही वे पीड़ित से सीधे संबंधित न भी हों. हालांकि, यह भी सच है कि दलित महिलाओं और पूरे समुदाय का रोजमर्रा का जीवन भी मानसिक अवसाद से भरा होता है. उन्हें पीढ़ियों से जाति आधारित भेदभाव और हिंसा का शिकार बनाया गया है. उनका समाज निकाला किया गया है.

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दलित अपनी पहचान छिपाए या दिखाए- कोई फर्क नहीं पड़ता

इस हिंसा और समाज निकाला में कई बार बहुत क्रूरता नजर आती है, और कभी बहुत चालाकी से दलितों को उनकी ‘औकात’ दिखाई जाती है. हममें से अधिकतर लोगों के तौर तरीके से यह साफ नजर आता है कि हमारा जातिगत चश्मा कैसी भयावह छवियां दिखाता है. चाहे हम ग्रामीण क्षेत्रों में बसते हों या शहरी इलाकों में.

दलित सार्वजनिक स्तर पर अपनी पहचान छिपाएं या दिखाएं, उन पर मानसिक दबाव कम नहीं होता- तनाव और एन्जाइटी कम नहीं होती. इसकी बहुत बड़ी वजह यह है कि अगड़ी जातियां जातिगत श्रेष्ठता का भदेस प्रदर्शन करती हैं और यह तनाव वहीं से उत्पन्न होता है.

गांव और शहरों में सिर्फ भेदभाव का तरीका फर्क है

ग्रामीण क्षेत्रों में फर्क इतना है कि वहां लोग दलितों पर अत्यधिक क्रूरता करने में संकोच नहीं करते. दलित महिलाओं के शरीर पर तथाकथित ऊंची जातियों के हक को हमारा समाज भी तर्कसंगत मानता है और ऐसे हादसे दलित समुदायों को झकझोर कर रख देते हैं.

दूसरी तरफ शहरी इलाकों में थोड़ी चतुराई से काम लिया जाता है. यूनिवर्सिटीज़ और दूसरे ‘आधुनिक’ संस्थानों की संरचनाओं में अगड़ी जातियों का प्रभुत्व कायम है. दलित लड़के-ल़ड़कियों को कई तरह से याद दिलाया जाता है कि वे इन जगहों को ‘बिलॉन्ग’ नहीं करते. क्लासरूम्स, स्टूडेंट राजनीति और एकैडमिक स्पेस में उन्हें रोज एक नई जंग लड़नी पड़ती है. अपर कास्ट स्टूडेंट्स को लगातार दलित स्टूडेंट्स से असुविधा महसूस होती है और यूनिवर्सिटीज में यह असुविधा साफ तौर से नजर आती है.

आरक्षण का विरोध करते हुए- इस बात को नकारते हुए कि जाति व्यवस्था भारतीय समाज की सच्चाई है और दलित स्टूडेंट्स के अनुभवों को सिरे से खारिज करते हुए हम इसी असुविधा को बार-बार जाहिर करते हैं.
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कथित प्रगतिशील तबकों में भी जातिगत नफरत

दलितों के साथ भेदभाव का उन्नत रूप उन ‘प्रगतिशील तबकों’ में देखने को मिलता है, जो अधिक मुखर और पब्लिक स्पेस में एक्टिव हैं. यूनिवर्सिटीज़ में मुख्य रूप से लेफ्टिस्ट संगठन और फेमिनिस्ट ग्रुप्स दलितों के विरोध में रहते हैं. यह असुविधा और जातिगत नफरत प्रगतिशीलता का जामा पहन लेती है. ये प्रगतिशील तबके दलितों के साथ एजुकेशनल, इनफॉरमेटिव एंगेजमेंट की बात करते हैं. ऐसी स्थिति में अपनी बात साफ तौर से कहने का दबाव भी इन्हीं

जातियों पर होता है. जैसे उन पर यह जिम्मेदारी फेंक दी जाती है. ऐसे में दलितों को कोई बहुत अधिक फायदा नहीं होता. बल्कि मानसिक और शारीरिक दबाव का ही सामना करना पड़ता है. बार-बार अपनी बात कहने और साबित करने में बहुत अधिक ताकत खर्च होती है. तिस पर, लगातार उनकी बातों का खंडन किया जाता है, और कहा जाता है, हम सम्मानपूर्वक तरीके से तुम्हारी बात से सहमत नहीं, या हमें असहमत होने पर सहमति जतानी चाहिए. यह भाषा बहुत विनम्र, पर बहुत तकलीफदेह है.

इस पूरी प्रक्रिया से दलित स्टूडेंट्स कमजोर पड़ जाते हैं, उन्हें लगता है कि उनकी बात समझी नहीं जा रही है, वे अपमानित महसूस करते हैं. इसका उनकी मानसिक स्थिति पर गंभीर असर होता है.

रोजमर्रा के भेदभाव का मानसिक सेहत पर असर

दलित एक्टिविस्ट्स और नेताओं को भी ऐसे भी अनुभव से दो चार होना पड़ता है. जब युवा दलित महिलाएं एक्टिविस्ट्स और नेताओं के तौर पर मंच पर पहुंचती हैं तो ब्राह्मणवादी सत्ता और पुलिस प्रशासन से भिड़ने का दबाव भी उन्हीं पर होता है. ऐसे मामलों में वे ही अपनी बहनों और समुदायों की पैरोकार बनती हैं.

रोजमर्रा के जीवन में हिंसा और शारीरिक क्रूरता से लड़ने से जो मानसिक तनाव पैदा होता है, उससे जूझने के लिए दलित समुदाय के लोगों को बहुत अधिक मेहनत करनी पड़ती है. अगड़ी जातियों को भी दोतरफा दबाव झेलना पड़ता है. एक तरफ वे खुद को प्रगतिशील साबित करने में लगे रहते हैं तो दूसरी तरफ कास्ट हेरारकी बरकरार रखना चाहते हैं. इन दोनों के बीच संतुलन बनाने की कोशिश में वे दमनकारी रवैया अपनाते हैं. इसका बुरा असर होता है और कई बार दलितों के लिए जातिगत घृणा और मजबूत होती जाती है.

मेंटल हेल्थ का मार्केट बहुत अधिक महंगा

अगर हम मेंटल हेल्थ और सेल्फ केयर जैसे उपायों पर चर्चा करें तो पाएंगे कि पीढ़ी दर पीढ़ी और अनेक स्तरों पर भेदभाव झेलते समुदायों को थेरेपी, काउंसिलिंग और ट्रॉमा हीलिंग जैसी सुविधाएं नहीं मिल पातीं. फिर मेंटल हेल्थ का मार्केट बहुत ऊंचे दाम वाला है. इसके अलावा जब पूर्वाग्रह इतने गहरे दबे हुए हों, जाति व्यवस्था की सच्चाई पर लोग अपनी आंखें मूंद लेते हों और लगातार हकीकत को नकारते हों तो क्या ऐसे प्रोफेशनली ट्रेंड थेरेपिस्ट आसानी से मिल सकते हैं जो इन सब स्थितियों को समझते हों. दलितों की समस्याओं से वाकिफ हों.

जो कुछ समूह यह दावा करते हैं कि वे जाति जैसे मुद्दे को समझने की स्थिति में हैं कि वह किस तरह दलितों को प्रभावित करता है और वे हाशिए पर पड़े समूहों की मदद कर सकते हैं, पर उनके पास पेशेवर प्रशिक्षण नहीं है. मौजूदा वक्त में मानसिक स्वास्थ्य सेवा पर विमर्श की यही सच्चाई है.

मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं को सामाजिक और आर्थिक संदर्भों में समझने की जरूरत है. तभी यह सभी को उपलब्ध हो पाएंगी. यह और भी महत्वपूर्ण हो जाता है, जब इसके जरिए हाशिए पर पड़े व्यक्तियों और समुदायों की मदद की कोशिश की जाए, जैसे दलित समुदाय. लेकिन जब तथाकथित ऊंची जातियों का इरादा दलितों के अनुभवों को दरकिनार करना हो तो मानसिक स्वास्थ्य और दलितों का विमर्श सिर्फ एक दिखावा बनकर रह जाता है.

देश में मानसिक सेहत पर यूं भी किसी का ध्यान नहीं है. ऐसे में दलितों ने एनजाइटी, ब्रेकडाउन्स और गैसलाइटिंग से जूझने के अपने तरीके अपनाए हैं. उनके लिए लोगों के मन में जो नफरत है, जैसे उन्हें नजरंदाज किया जाता है, उनका उनकी शारीरिक और मानसिक सेहत पर बहुत बुरा असर हुआ है. वे अपनी पूरी क्षमता का उपयोग नहीं कर पाते और एक डर के साए में जीने को मजबूर होते हैं. मैं हमेशा यह देखकर दंग रह जाती हूं और हैरान भी होती हूं कि दलित लोगों में

परिस्थितियों को झेलने की अदम्य ताकत है. पीढ़ियों से ये लोग विरोध भी करते आए हैं और अपने विरोधियों से जूझते भी आए हैं. इसी से मौजूदा पीढ़ी मुकाबला करने और आगे बढ़ने का माद्दा रखती है.

(रिया सिंह डॉ. बी. आर. अंबेडकर यूनिवर्सिटी दिल्ली में डॉक्टोरल रिसर्चर और दलित महिला फाइट नामक कलेक्टिव की सदस्य हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. द क्विट न इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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